वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 475
From जैनकोष
वाक्चित्ततनुभिर्यत्र न स्वप्नेऽपि प्रवर्तते ।
चर स्थिरांगिनां घातस्तदाद्यं व्रतमीरितम् ॥475॥
अहिंसक पुरुष की प्रकृति ― मन, वचन, काय से त्रस अथवा स्थावर जीवों का घात स्वप्न में भी न हो उसे अहिंसा महाव्रत कहते हैं । बहुत पहिले नींबू या साग वगैरह के प्रयोग में काटने शब्द का प्रयोग न करते थे । वह एक अहिंसा का सूचक है । माँस खाने वाले लोगों को अगर कहना हो तो माँस का नाम न लेकर लोग कहते थे कि फलाने गंदी चीज खाते हैं, मिट्टी खाते हैं, तो ये सब अहिंसा की प्रतिष्ठा के संकेत थे । तो वचनों से भी हिंसामयी शब्द न बोले जायें और मन से भी किसी के घात की बात न आये । अरे कौन किसका शत्रु है ? किसका बुरा विचारना ? बुरा विचारने से बुरा विचारने वाले का तो बुरा हो ही चुका क्यों कि उसके परिणाम में विकार आया, मूढ़ता आयी । अपना उपयोग एक गंदे ख्याल में लगाया तो उसका तो बुरा हो ही चुका । दूसरे का बुरा करना हमारे आधीन नहीं है । उसका उदय विपरीत होता है तो हम निमित्त बन जायेंगे । हम बुरा परिणाम करके अपना ही बिगाड़ करते हैं, दूसरे का बिगाड़ नहीं करते । इतनी हिम्मत हो । हाँ कोई विपदा गृहस्थाश्रम में ऐसी सामने आये कि जिसका मुकाबला करना आवश्यक ही है, उस पदवी में तो एक वीरता की बात है, लेकिन परिणामों में क्षमा करने की प्रकृति होनी चाहिए । किसी को जीत कर भी उसको क्षमा कर देने का स्वभाव हो तो ये नम्रता, सरलता गुण की पोषक चर्यायें हैं । वचनों से भी दूसरे के घात की बात न आये, मन से दूसरे के घात की बात न आये और शरीर से भी न आये ऐसी जिनकी चर्या है उनको कहते हैं अहिंसक पुरुष । बड़े पुरुष बड़े समर्थ भी होते हैं लेकिन अपने सामर्थ्य का प्रयोग दूसरों को सताने के लिए या अपराधी का विनाश करने के लिए नहीं होता है । अरे अपराधी यदि हमारे व्यवहार से सदा के लिए अपराध करना छोड़ दे तो यही है अपराधी के अपराध की सही प्रतिक्रिया । दंड व्यवस्था भी आगे अपराध न करे इसके लिए की गई है, न कि अपराधी पर द्वेष करके उसके विघात के लिए की गई है । तो किसी भी जीव का स्वप्न में भी घात न हो ऐसी चर्या का नाम अहिंसा महाव्रत है ।