वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 510
From जैनकोष
करुणार्द्रं च विज्ञानवासितं यस्य मानसम् ।इंद्रियार्थेषु नि:संगं तस्य सिद्धं समीहितम् ॥510॥
दयालु हृदयी के अहिंसा ― जिस पुरुष का मन दया से गीला हो, दूसरे पुरुषों की भलाई में, सुविधा में जिसका चित्त बसा रहा करता हो, जो विशिष्ट ज्ञान सहित हो, इंद्रिय के विषयों से दूर हो उसको मनोवांछित कार्यों की सिद्धि होती है । आत्मा स्वभावत: अद्भुत समृद्धिवान है । जैसे-जैसे स्वच्छता बढ़ेगी वैसे ही वैसे समृद्धि का विकास होगा । समृद्धियों का उत्कृष्ट सहकारी है केवलज्ञान । यहाँ किसी को बहुत बड़ा ज्ञानी निरखकर हम लोग उसे अतिशय देते हैं । यह बहुत महान पुरुष है, और, अनेक चमत्कार उत्पन्न हो जायें तो उसे और अतिशय देते हैं । तो ज्ञान जिसमें है उसमें लोग अतिशय मानते हैं तो जो ज्ञान तीन लोक, और अलोक के समस्त पदार्थों को स्पष्ट जानता हो उसके ज्ञान को कितनी बड़ी समृद्धि बतायी जाय ॽ यह बात उसके ही उत्पन्न होती है जिसका चित्त दया से भीगा हो । धर्म करने का पात्र दयालु ही हो सकता है । जिसके चित्त में क्रूरता हो वह माला भी जपें, भजन भी करे पर चित्त कठोर है तो क्या भजन और क्या उसकी पूजा ॽ करूणा से जिसका मन भीगा हो वह चाहे विधिपूर्वक धर्म की लाइन में न भी आया हो तो भी उसका स्वर्ग किसी ने नहीं छीना । व्रत न हो किंतु चित्त दयालु हो वह भी महापुरुष है । उसकी पारलौकिक स्वर्गगति है और जो व्रत और तपश्चरण करता हो, किंतु चित्त क्रूर रहता हो, एक सावधानी तो बना ली हो, साधुपना बन गया हो, मर्यादा का पानी, मर्यादा का भोजन, सारी बातें बहुत संभालकर करे और चित्त में दया न बसी हो, खाने के समय कोई भूखा पास में बैठा हो उसे खाना न दे सके, उसके ऊपर दया न आये, चित्त दया से जिसका भीगा नहीं है तो ये सब व्रत तपश्चरण शोध क्या कार्य कर सकते हैं ॽ
दया का महत्व ― दया का बड़ा महत्व है । जब एक चित्त दया से नम्र हो जाता तो आत्मा ही नम्र हो गया, विनयशील हो गया, अर्थात् अपने आपके स्वभाव की ओर झुक सकने वाला है तो अत्यंत समृद्धि का साधनभूत निज अंतस्तत्त्व का झुकाव एकदम समृद्धियों का विकास करने लगता है । तो चित्त में दयालुता होना बहुत बड़ी सिद्धि का विषय है । तो जिसका चित्त दयालु
हो और फिर ज्ञान हो, विषयों से विरक्ति हो, जिसमें ये तीन गुण आ जायें उस पुरुष को अभीष्ट समस्त कार्यों की सिद्धि होती है ।