वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 531
From जैनकोष
सूनृतं करुणाक्रांतमविरुद्धमनाकुलम् ।अग्राम्यं गौरवाश्लिष्टं वच: शास्त्रे प्रशस्यते ॥531॥
हितकारक वचन सत्य ― शास्त्रों मे उस ही वचन की प्रशंसा की गई है जो वचन सत्य है । सत्य का अर्थ है कि जिसमें जीव का भला हो, अपना भी भला हो, पर का भी भला हो और स्वपर का भला करने वाला वचन वस्तु के स्वरूप के अनुकूल हुआ करता है । अतएव जो पदार्थ जिस प्रकार है उस प्रकार से बोलने का नाम सत्य कहा गया है । जो वचन सत्य हो, जिस वचन में करुणा भरी हो, अपने और पर की दया की बात बसी हो, क्रूरतापूर्वक वचन न हो, जो लोक विरुद्ध न हो, दूसरे के विरुद्ध न हो, अपने हित के विरुद्ध न हो, जिन वचनों के बोलने के समय निराकुलता की बात बनती हो वे सब वचन लोक में और शास्त्रों में प्रशंसा योग्य कहे गए हैं । किसी मनुष्य के प्रति झूठ बोलने का अपक्रम किया जाय तो चित्त में आकुलता उत्पन्न होती है और दिल को बड़ा कड़ा बनाना पड़ता है, हिम्मत बनानी पड़ती है और सत्य वचन बोलने में दूसरों के हितकारी वचन बोलने में दिल को न कड़ा बनाना पड़ता, न दुसाहस की जरूरत पड़ती । बड़े आराम से निराकुलता से निर्भयतापूर्वक वे वचन बोले जा सकते हैं । तो सत्य वचन की पहिचान और स्वरूप ही ऐसा है कि जिसमें आकुलता नहीं रहती । तो जो वचन आकुलता रहित हों वे शास्त्रों में प्रशंसनीय वचन कहे हैं । उस ही वचन की प्रशंसा की गई है जो वचन अगम्य हैं अर्थात् गंवारों जैसी बात नहीं है । धोखे से पूर्ण नहीं है । जिनको जीवन में झूठ बोलने की प्रवृत्ति बन गयी है उनके लिए झूठ बोलना एक सहज काम सा बन गया है ।
स्वच्छ आशय से वचन की सत्यता ― किसी भी घटना को एकदम सही रूप में स्पष्ट रखने में जो अपनी शान नहीं समझते, कुछ भी बात हो झूठ की प्रकृति जिसकी हो गयी हो ऐसा पुरुष अपने आपमें अपने सत्यपथ का भान नहीं कर पाता । वचन समतापूर्ण हो और सत्य हो उस ही वचन की प्रशंसा है । वचन वह होना चाहिए जिसमें गौरव पड़ा हुआ हो, अपने हल्केपन की बात, तुच्छता की बात जिसमें समायी हो ऐसा वचन प्रशंसनीय वचन नहीं है । जो अपनी स्वच्छता का सूचक हो वह वचन युक्त है और इसका अनुमापक है कि इसका हृदय इतना स्वच्छ है । महापुरुष कभी हल्की बात नहीं बोलते हैं । तो जो गौरवपूर्ण वचन हो वही वचन प्रशंसा के योग्य कहा गया है । मनुष्य का धन एक वचन है । किसी भी मनुष्य की पहिचान यह अच्छा है, बुरा है, प्रमाणिक है, नीच है गुंडा है, सब तरह की परख वचनों से ही होती है । इसका हृदय कितना निर्मल है यह भी वचनों से परख होती है । इसका अर्थ यह नहीं है कि जिसका वचन जितना नम्रता से भरा हुआ हो उसका हृदय स्वच्छ हो । चापलूस पुरुष बड़ा नम्र होता है और उसके वचन भी बड़े सुहावने नम्रतापूर्ण लगते हैं किंतु आशय उसका स्वच्छ नहीं है । उसके आशय का पता भी नहीं पड़ता और आशय यदि स्वच्छ हो तो वह वचन भी सही बात का अनुमान करा देता है । बहुत दिनों तक मनुष्यों के पड़ोस में बसने पर या किसी मनुष्य से कुछ समय अधिक परिचय होने पर सब बात का पता पड़ जाता है । उन वचनों में कोई ऐसी अनिर्वचनीय पद्धति और कला है जो कला एक स्वच्छ आशय का अनुमान कराती है ।
प्रशंसनीय वचन ― नम्रता के वचन होने से हृदय स्वच्छ हो गया हो यह निर्णय नहीं है । भले लगने वाले वचन हृदय की स्वच्छता के अनुमापक हो यह भी निर्णय नहीं है । कैसे वचन हृदय की स्वच्छता बतलाते हैं उसका हम कुछ वर्णन नहीं कर सकते किंतु अनुभव सबको है । तो जो वचन सत्य हो, दयामयी हो, विरोध न हो, अनाकुलता हो, गंवारों जैसा न हो और गौरव सहित हो वह वचन शास्त्र में प्रशंसनीय कहा गया है ।