वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 543
From जैनकोष
असत्येनैव विक्रम्य चार्वाकद्विजकौलिकै: ।सर्वाक्षपोषकं धूर्तै: पश्य पक्षं प्रतिष्ठितम् ॥543॥
चारूवाकमत की वाणी में असत्यपना ― इस असत्य वचन के ही प्रभाव से अनेक बड़े-बड़े दार्शनिक लोग भी यथार्थ मार्ग से च्युत होकर इंद्रिय के विषयों को पोषने वाले अपने पक्ष का स्थापन करते हैं । चारूवाक लोग जिनके वचन तो बड़े मीठे होते हैं उनके सिद्धांत में यह बताया है कि जीव कुछ नहीं है । जो लोग जीव का भ्रम करते हैं, जीव कुछ है ऐसा मानते हैं उन्हें न तो शांति हो सकती जीवन में और मिलकर तो रहेंगे ही क्या ॽ चारूवाक का सिद्धांत है कि जब तक जियें सुख से जियें, खूब खाये पियें । ब्याज भी लेना पड़े, कर्ज भी लेना पड़े पर खूब मौज से रहें । ऐसा वहाँ नास्तिकताभरी वाणी का कथन है । भला उस सिद्धांत से हम अपने आपमें शांति क्या प्राप्त कर सकते हैं ॽ कोई यह कहने लगे कि धर्माचरण करना बिल्कुल व्यर्थ है । जब तक जिंदगी है तब तक यह है और जब जिंदगी बुझ गई तो यह जीव ही कुछ न रहेगा, फिर किसलिए कठोर साधन और आचरण करना ॽ इस संबंध में निश्चय तो उसको भी यह नहीं है कि यह जीव मरने के बाद आगे-आगे नहीं रहता है और प्राय: जब कि यह संदेह हो कि यह मैं जीव आगे भी मरने के बाद रहूँगा या नहीं, तो सोच लीजिए कि यदि हम आचरण भला करें, धार्मिक अपना व्यवहार रखें तो उस व्यवहारधर्म के पालन में भी आकुलता तो नहीं हुई, वहाँ भी आनंद की प्राप्ति नहीं होती और कदाचित् निकल आये, पर लोक स्मरण के बाद भी जन्म लेना पड़े तो वहाँ भी इसे लाभ होगा । यदि सभी लोग दुराचार से रहने लगें, हिंसक बन जायें, मान लो कि भ्रष्ट हैं, इस भव के बाद कहीं न जायेंगे, इस मान्यता के बावजूद भी यदि लोग न्याय नीति से व्यवहार नहीं करते, सदाचार से नहीं रहते तो वे इस दुनिया में बैचेन है, बेकार हैं, उनको यहाँ भी शांति नहीं है, और धर्माचरण से रहते, मंद कषाय से रहते तो इस भव में भी उन्हें लाभ है और अगला भव निकल आये तो वहाँ भी उन्हें लाभ है ।मीमांसक सिद्धांत में भी असत्यपना ― तो जैसे चारूवाक सिद्धांत में इंद्रिय पोषने की ही बात कही गई है उससे आत्महित कुछ नहीं होता ऐसे ही मीमांसक आदिक सिद्धांतों में भी जहाँ अपने आपको कुछ नहीं माना गया, अपनी दृष्टि बनाते हैं तो ईश्वर सुख दु:ख देता है, ईश्वर यों करता है, यों कर्तृत्ववाद का आशय लिए हैं और उस भिन्न ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ आदिक रचे जाते हैं । ऐसे सिद्धांत में अपने आपको पामर बना दिया गया है । मैं कुछ नहीं हूँ, कोई है एक अलग शक्ति ईश्वर । जो वह चाहे वह मुझमें होता है । तो जहाँ अपने आपको पुरुषार्थहीन बना लिया वहाँ भी धर्ममार्ग कैसे प्राप्त होगा, शांतिलाभ कैसे होगा ॽ तो इन साधनों में शब्दार्थ मार्ग से च्युत होकर ऋषी संतों ने विषयपोषक पक्ष का ही स्थापन किया है । कोई बड़े विशुद्ध योग से आत्मकरुणा करके सर्वविकल्पों को हटाने का प्रयत्न रखे, ऐसे चित्त बनाए कि मुझे कुछ भी परतत्त्व नहीं सोचना है । सभी पदार्थ हैं और वे अपने उत्पाद व्यय से परिणमते रहते हैं, उनसे मेरा कुछ संबंध नहीं है, ऐसा जो जानते हैं वे तो धर्ममार्ग प्राप्त कर लेते हैं और जिन्होंने अपनी सत्ता ही खो दी है पर के किए हुए हम बनते हैं, यों अपने को जो कायर बना लेते हैं ऐसे पुरुष आत्मध्यान के पात्र नहीं होते हैं ।
सत्यधर्म के अवलंबन से सारे संकटों की समाप्ति ― यह निश्चय करके जानें कि मेरा शरण मेरा सहजस्वरूप का स्मरण है, धर्म के लिए क्या चिंता करना ॽ धर्म पैसों से प्राप्त नहीं होता । धर्म की अन्य कोई और स्थिति नहीं है । धर्म तो आत्मस्वभाव के अवलंबन से उत्पन्न होता है । लेकिन जहाँ स्याद्वाद का निरूपण नहीं है, एकांत से धर्म का उपदेश दिया गया है वहाँ कैसे शांति का मार्ग प्राप्त हो सकता है ॽ सत्य वचन हो, सत्य भावना हो, और इस सत्य पर दीवाना सा बन जाय, केवल एक सत्य की ही धुन रह जाय तो ऐसे पुरुष को निर्वाण की प्राप्ति सुगमता से होती है, वही शांत, सुखी रह सकता है । जो सत्य का आदर करता है और सब जीवों के हित की भावना करता है, लोग उसे चाहे कुछ कहें यह लोगों की मर्जी है, किंतु जो अपने आपमें बसे हुए सहज ज्ञानानंदस्वरूपमय परमप्रभु की उपासना करता है वह इस ब्रह्मस्वरूप की उपासना के बल से सारे संकट दूर करता है । तो अनेक ऋषियों ने अनेक शास्त्र रचे हैं लेकिन यह परख लो कि जो वचन-इंद्रिय के पोषण में मदद दें वे वचन तो हैं हेय और जो अपने विशुद्ध ज्ञानानंद का अनुभव कराने में मदद करें वे सब क्रियाएँ, वे सब वचन उपादेय हैं । हम बोलें कम अथवा न बोलें और जब बोलें तो ऐसे ही वचन बोलें जो दूसरे जीवों को हितकारी हों और अपने आपका भी हित करने में समर्थ हों ।वचनधन से शांति प्राप्त करने की शिक्षा ― वचनों का बहुत बड़ा महत्त्व है । वचनों से ही हम सुखी दु:खी रह सकते हैं, दूसरों को सुखी कर सकते हैं । एक बार दाँत में और जीभ में कुछ विवाद हो गया । दाँतों को गुस्सा आया तो बोले अरी जीभ तू हम तीस बत्तीस के बीच में अकेली है, ज्यादा बकवास न कर, नहीं तो अभी दबोच देंगे । तो जीभ बोली कि भले ही तुम तीस बत्तीस हो, किंतु हममें वह कला है कि क्षण में तुम तीस बत्तीस का ढेर करा दें । तो ठीक भी है । जिह्वा के द्वारा किसी बलवान पुरुष को कुछ कठोर बात बोल दी जाय तो वह दो चार मुक्के ऐसे लगाये कि सारे दाँत साफ हो सकते हैं । तो इन वचनों से ही हम दु:ख पा लेते हैं और इन वचनों से ही हम सुख शांति पा लेते है। वचन धन को न बिगाड़ें, किंतु वचनों से अपने आपमें शांति समृद्धि प्राप्त करने का यत्न करें ।