वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 559
From जैनकोष
एकत: सकलं पापं असत्योत्थं ततोऽन्यत: ।साम्यमेव वदंत्यार्यास्तुलायां धृतयोस्तयो: ॥559॥
असत्य आग्रह से अंधेरापना ― जैसे परमार्थ में एक विवेक तराजू के एक पलड़े पर अज्ञानजनित पाप रख दें और एक पलड़े पर हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील अन्याय से शरीरकृत कार्यों के पाप रख दें तो देखा जाय तो दोनों पाप समान होंगे, अथवा यों भी कह सकेंगे कि अज्ञान और मिथ्यात्वजनित पाप उन सब पापों से भी अधिक पाप हुआ । यों ही व्यवहार की बातों में भी यही समझिये कि एक असत्य संभाषण का पाप विवेक तराजू के एक पलड़े पर रखिये और एक ओर सकल पाप तो वे दोनों पाप उस तुला में समान प्रणीत होंगे । इस प्रकरण में सत्य महाव्रत का वर्णन किया जा रहा है और प्रकरणानुसार असत्य पाप का वर्णन किया गया है, वह कितना कठिन और जीवों का अहित करने वाला है । असत्य की रुचि, असत्य का आचरण, असत्य का संभाषण ये जीव को अज्ञान अंधेरे में डाल देते हैं । पापी पुरुष आत्मा के ध्यान का पात्र नहीं रहता ।
आत्मध्यान से मानवजीवन की सफलता ― आत्मध्यान ही सर्वसंकटों के दूर करने का एक मात्र उपाय है । हम प्रभु के दर्शन करते हैं, वहाँ हम क्या करना चाहते हैं । प्रभु के स्वरूप को चितारकर अपने स्वरूप की खबर मिले, मैं भी ऐसा ही चैतन्यस्वरूप हूँ जो अनंत आनंद, अनंत चतुष्टय प्रभु में प्रकट हुए हैं ऐसा ही मेरा स्वभाव है । भगवान में निज सत्य की खोज कीजिए । तो सत्य से प्रेम जगना, सत्य का ही भाषण करना, सत्य के लिए ही अपना आशय बनाना यह एक उन्नति का उपाय है । सर्वकार्यों के होते हुए भी सत्य की रुचि जगे तो वह आदमी धन्य है, उसका जीवन सफल है । हम समागमों के मोह में न फँसे, इसे एक गृहस्थी का कर्तव्यभर मानें और मुख्य कर्तव्य समझें । हम अपने आपके शुद्ध सहज सत्य स्वरूप का परिचय पायें और अपने ही अंतस्तत्त्व के निकट रहकर अपने में संतोष करें, इसका यत्न हो और एतदर्थ ऐसा ही ज्ञान का अभ्यास चले तो इससे इस नरजीवन की सफलता है ।