वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 569
From जैनकोष
अनासाद्य व्रतं नाम तृतीयं गुणभूषणम्।
नापवर्गपथि प्राय: कचिद्धत्ते मुनि: स्थितिम्।।
अस्तेय महाव्रत का निर्देशन- सम्यक्चारित्र के प्रकरण में तीसरा व्रत बताया जा रहा है। इसका नाम है अस्तेय महाव्रत। यह व्रत गुणों का भूषण है। अस्तेय नाम है किसी की चीज को चुराना। जब तक अस्तेय महाव्रत अंगीकार नहीं किया जाता तब तक मोक्षमार्ग में कभी भी स्थिरता नहीं मिल सकती है। धन को व्यवहार में 11 वाँ प्राण कहा करते हैं। 10 तो प्राण होते ही हैं। 5 इंद्रिय, तीन बल, स्वासोच्छ्वास और आयु और धन की 11 वाँ प्राण सा मोहियों ने माना है। किसी के धन को हर लेने पर, नष्ट कर देने पर जिसका धन नष्ट हुआ है वह कितना दु:खी होता है? तो यह कितना असभ्य व्यवहार है कि दूसरों की वस्तु को आँखों बचाकर या किसी तरह चुराकर अपने कब्जे में कर ले। चोरी के अनेक ढंग होते हैं। कोई डाकू आये और बंदूक दिखाकर किसी से धन ले जाय तो वह चोरी है या नहीं? कोई कहे कि चोरी कैसे है? वह तो उसके हाथ से लेता है। डाकू तो कहता है कि संदूक अपने हाथ से खोलो, धन अपने हाथ से निकालकर दो। वह अपने हाथ से निकालकर दे देता है, इसमें चोरी कैसे हुई? तो कहते हैं कि नहीं, वह चोरी है, हाँ अगर अपनी इच्छा से दे तो वह दान कहलाये। वह डाकू तो जबरदस्ती ले रहा है। इसका नाम चोरी है। जब तक कुछ त्याग नहीं होता तब तक मोक्षमार्ग में स्थिरता नहीं होती।
प्रवृत्ति के पापों की पद्धति- यह लोक पहले छोटे पाप से पाप की सीख सीखता है फिर बाद में बड़ा पाप आ जाता है। बड़ा पाप प्रारंभ में कोई नहीं करता। यद्यपि अज्ञान महापाप है वह बात अलग है लेकिन बड़ी चोरी करना, बड़ा झूठ बोलना, बड़ी हत्यायें करना, ये काम एकदम कोई नहीं करता। प्रारंभ में छोटा पाप करता है, उसको लोग प्रोत्साहन देते हैं तो फिर वह बड़ा पाप करता है। एक कहानी स्कूल की पुस्तक में लिखी है कि एक लड़का पाठशाला से किसी का एक अच्छा सा चाकू चुरा लाया। उसकी माँ ने उसे मिठाई खिलायी और कहा- अच्छा चाकू ले आया। उसे प्रोत्साहन मिल गया। फिर और चीजें चुराने लगा। इस तरह वह एक बहुत बड़ा डाकू बन गया। एक डकैती में पकड़ा गया। वह फाँसी के तख्त पर जब चढ़ता है तो अधिकारी पूछता है कि भाई तुम्हारी जो कुछ खाने-पीने की इच्छा हो सो खा लो, जिससे मिलना चाहो मिल लो, तुम्हारे दिल की अंतिम मुराद पूरी की जायगी। तो उसने कहा के हमें कुछ न चाहिए, सिर्फ हमारी माँ से हमें मिला दीजिए। माँ से मिला दिया। तो उसने माँ से और कुछ नहीं कहा, झट उसी चाकू से माँ की नाक काट ली। फिर जनता को कहा कि मुझे चोरी करने का प्रोत्साहन इस माँ से मिला और इस चाकू से मिला। तो सबसे पहले उसने चाकू चुराया, बाद में बड़ी-बड़ी चोरियाँ करने लगा। ऐसे ही हिंसा की बात है। एकदम से बड़े जीवों को मारने का पहले किसी का दिल नहीं चाहता। पहले कीड़ा कीड़ी मुर्गामुर्गी वगैरह की वह हिंसा करता है, बाद में बड़े जीवों की हिंसायें करने लगता है। चोरी की भी ऐसी ही आदत है। पहले कोई छोटी चोरी की, उसमें प्रोत्साहन मिला, फिर और कुछ चुराया उससे प्रोत्साहन मिला, यों धीरे-धीरे वह बड़ी चोरियाँ करने लगता है। इस कारण अल्प पाप से भी बचने का उपक्रम करना चाहिए।
चौर्यवृत्ति वालों में आत्मध्यान की अपात्रता- जिसकी परधन चुराने की प्रकृति है ऐसे पुरुष का हृदय तो बड़ा कलुषित है। बहुत बड़ा पाप है किसी का द्रव्य चुरा लेना। तो उसका जब तक त्याग नहीं है तब तक वह आत्मा ध्यान का पात्र नहीं होता। इस ग्रंथ में ध्यान की सिद्धि का उपाय बतावेंगे, उसमें सबसे पहले ध्यान का पात्र कौन होता, उसका वर्णन है। ध्यान के अंग हैं तीन- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। जिन पुरुषों का रत्नत्रयरूप परिणमन चलता है वे पुरुष आत्मा के ध्यान में सिद्धि प्राप्त करते हैं। तो सम्यक्चारित्र में अहिंसा का वर्णन किया है, सत्य का वर्णन किया है, अब यह अस्तेय का वर्णन चल रहा है।