वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 57
From जैनकोष
हृषीकार्थसमुत्पन्ने प्रतिक्षणविनश्वरे।
सुखे कृत्वा रति मूढ़ विनष्टं भुवनत्रयम्।।57।।
इंद्रियसुखों में रति की प्रतिषेध्यता― हे आत्मन् ! इन सांसारिक सुखों में रति करके तूने अपने आपका अब तक विनाश किया है। अब तो अपने आपका स्वरूप निरख। यह आत्मा अमूर्त विनाशकारी है, लेकिन इस जगत में कौनसा जीव अपने आपको अमूर्त और अविनाशी अनुभव कर रहा है? यदि अमूर्त और अविनाशी अपने आपको माना होता तो फिर विपदा किसकी, शंका किसकी, भव किसका? निरंतर शंकित रहता है, निरंतर विपदा का अनुभव करता है यह सब अज्ञान परिणामों की ही बात है कि हमने अपने को अमूर्त और अविनाशी नहीं मान पाया है। इसका प्रधान कारण है कि हम इन देहादिक सुखों से प्रेम रखते हैं। इंद्रियजंय सुख भोगविलास आराम के सुखों में रति की तो उसके साधन में ममता अपने आप आयेगी। इंद्रिय सुख को चाहा तो यह जीव इंद्रिय सुख के साधनों को भी जुटायेगा और उन साधनों की पराधीनता में यह अपने आपके स्वरूप को भूल जायेगा, दु:खी होगा।
आत्मा का आकिंचन्य― भैया ! इसी समय देख लो, यदि कोर्इ ऐसा उपयोग बन जाय अपने आपके बारे में कि यह मैं आत्मा आकाश की तरह निर्लेप रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित सबसे न्यारा अविनाशी हूँ, यही अनुभव कर लिया जाय तो सारे क्लेश कम हो जायेंगे। क्लेश बनते हैं ममता से। इन अनंते जीवों में से कुछ जीवों को मान लिया कि ये मेरे हैं, अब उनसे विपत्ति बढ़ने लगी। इन अनंते जीवों में से दस पाँच हजार मनुष्यों में अपने नाम की धुन बन गई है, ये हमें समझें कि हम वैभववान् हैं आदिक धुन बन गयी, लो इसे कष्ट होने लगा। भला सोचिये तो सही कभी तो मृत्यु होगी? मृत्यु होने के बाद इस जीव को फिर यहाँ की क्या संपदा क्या व्यवहार? कुछ भी तो नहीं है।
आत्मपोषण का यत्न― यहाँ एक स्वरूपदृष्टि की बात कही जा रही है। जैसे वृक्ष को रात दिन नहीं सींचा जाता। किसी भी टाइम 10 मिनट पानी डाल दिया, किंतु उस 10 मिनट में जो पानी डाला उसका प्रभाव शेष 24 घंटे चलता है। वह वृक्ष हरियाता रहता है, ऐसे ही हम अपने आपकी स्वरूपदृष्टि का एक आनंदसिंचन करें, किसी भी क्षण ऐसा उपयोग बना लें कि मैं उन विपदावों से रहित केवल एक शुद्ध चित्प्रकाश हूँ। जो मैं हूँ तैसे ही ये सब हैं―ऐसा एक चैतन्यस्वरूप अपने को मान लें वहाँ भय नहीं होता है, दु:ख नहीं होता है। यह काम 24 घंटे में एक सेकंड भी बन जाय तो बाकी समस्त रात दिन अनाकुलता में व्यतीत होंगे।
सांसारिक सुखों में रति न करने का अनुरोध― हे आत्मन् ! इन इंद्रिय और पदार्थों के संबंध से उत्पन्न हुए सांसारिक सुखों में रति मत करो। ये समग्र सुख, ये समस्त पदार्थ प्रतिक्षण विनाशीक हैं, ये टिकने वाले नहीं है। इन्हें अपनावो तो भी नहीं टिकते। इन सुखों के पीछे अपने आपके उपयोग को खेद खिन्न मत करो। श्रद्धा सत्य बनावो, नहीं करते बनता तो वह एक परिस्थिति है, आसक्ति है, पर सच्ची बात जानने की भी कंजूसी करोगे तो पार न पा सकोगे। बने सो कीजिये। न बने, न कर सकें तो न कीजिये, किंतु सत्य बात की श्रद्धा तो बना लीजिये। मैं सबसे न्यारा हूँ, यह बात यदि झूठ है तो न मानो और सत्य है तो मान लीजिये। पूजा में आप कहा करते हैं―‘कीजे शक्ति प्रमाण, शक्ति बिना सरधा धरे।’ शक्ति प्रमाण करिये, पर नहीं है करने की शक्ति तो श्रद्धा तो यथार्थ बनाइये। श्रद्धा यथार्थ होगी तो अपना पूरा पड़ेगा, श्रद्धा ही ठीक न रही तो फिर अपना कहाँ जमाव होगा? हित नहीं हो सकता।
सुख दु:ख आनंद सब ज्ञान के विचार से है। हम कैसा ज्ञान बनायें कि आनंद हो जाय और कैसा ज्ञान बनायें कि दु:खी हो जायें। ममता से मिला हुआ ज्ञान चलेगा तो नियम से दु:ख होगा और सबसे निराला अपने आपको निरखने का ज्ञान चलेगा तो वहाँ आनंद होगा। सारा जीवन दु:खमय व्यतीत करें उसमें कुछ हित नहीं है। अनित्य पदार्थों को अनित्य जान जावो। अनित्य भावना में यह शिक्षा दी गयी है जो चीज मिट जाने वाली है उसे मानते तो रहो कि चीज मिटेगी जरूर। इससे भी लाभ है। जब वह चीज मिटेगी तो यह ख्याल जरूर आयेगा कि मैं तो पहिले से ही सोच रहा था कि यह चीज अवश्य मिटेगी। लो आज मिट गई, इसमें दु:ख करने की क्या बात है? अनित्य पदार्थों में नित्य मानने की बुद्धि जग रही हो तो वहाँ अचानक वियोग होने पर वज्रपात जैसा क्लेश माना जायेगा। इससे भाई जगत् में जो कुछ दृश्यमान् है, जितने भी इंद्रियों के विषय हैं, जो भी मन की कल्पना के आश्रय हैं वे सब नियम से नष्ट होने वाले हैं, इस प्रकार की भावना भाइये। सोचिये चिंतन कीजिये।
विषय सुखों की रति से बरबादी― ये तीन लोक के सभी जीव विश्नश्वर वैषयिक सुखों की रति करके नष्ट हो रहे हैं। मनुष्यों को देखो ये भी वैषयिक सुखों में बरबाद हो रहे हैं, पशु पक्षियों को देखो तो वे भी वैषयिक सुखों में बरबाद हो रहे हैं। ये केचुवा वगैरह छोटे-छोटे बरसाती जीव गिजाइयां ये भी अपने-अपने विषयों के सुखों में रति करके अपने आपको बरबाद कर रहे हैं। सोचो संभलो, एकदम बाहरी चीजों में आसक्त होने की हठ न बनावो। कभी तो छूटेंगे कभी तो मरण होगा, उससे पहिले यदि कुछ दिन अपने को विरक्त रख लो तो कौनसा नुकसान पा लिया? हे आत्मन् ! इन इंद्रियजंय सुखों में, इन विनाशीक संपदावों में रति मत करो।
नित्य तत्त्व की दृष्टि से अनित्यभावना की सफलता― अनित्य भावना में अनित्य जानने के साथ-साथ अपने आपको अविनाशी भी समझ लो। ये विनाशीक पदार्थ यदि मुझसे अलग हो गए तो उसमें मेरी क्या हानि है? यह मैं आत्मा तो एक अविनाशी तत्त्व हूँ, सदाकाल रहने वाला हूँ, इस अविनाशी तत्त्व की सुध लीजिये। इस ज्ञानार्णव ग्रंथ में पूर्व भूमिका के बाद यह अनित्यभावना का प्रथम प्रकरण चल रहा है।