वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 571
From जैनकोष
वित्तमेव मतं सूत्रे प्राणा बाह्या: शरीरिणाम्।
तस्यापहारमात्रेण स्युस्ते प्रागेव घातिता:।।
परधनहरण में प्राणहरण जैसे पाप का कारण- शास्त्रों में धन को जीवों का बाह्यप्राण कहा गया है, इस कारण जो धन का हरण करता है वह समझिये दूसरे जीवों के प्राणों का घात करता है। सफर में मान लो टिकट में कोई बात की साधारण सी गलती रह गयी और टिकटचेकर आकर देखता है, उस मुसाफिर का टिकट रख लेता है तो वह मुसाफिर कैसा उसके पीछे लगा लगा फिरता है। मानो उस टिकटचेकर ने उसके प्राण हर लिए हों, किसी का धन कोई हर ले तो मानो उसके प्राण ही हर लिए हों। इस धन को बाह्य प्राण कहा है। वैसे तो प्राण इंद्रिय, आयु, बल और स्वासोच्छ्वास हैं, अन्न प्राण नहीं हैं, मगर कहा है कि अन्न भी प्राण है। कोई अन्न न खाये तो कैसे प्राण रहें? और अन्न मिलता है पैसों से। पैसा न हो तो कैसे अन्न खाने को मिले? तो पैसा भी प्राण माना है। जिन्हें लोक में यश की, नाम की, इज्जत की चाह है उनके लिए वैभव प्राण है। तो ये सब बाह्य प्राण कहे गए हैं। जो किसी का धन हरे तो समझना कि उसने उसके प्राण ही हर लिए। तो चोरी का करना भी हिंसा है।
हिंसा पाप और अहिंसा धर्म- भैया ! मूल में तो पाप एक ही है हिंसा और व्रत एक है अहिंसा। एक हिंसा में ही सब पाप गर्भित हो गए। अज्ञान रहे, कोई विवेक न जगे, भेदभाव न हो, आत्मा का परिचय न हो तो वह हिंसा ही तो है। उसने अपने प्रभु की हिंसा की। विकास रुक गया तो वह हिंसा ही तो हुई। हिंसा की तो हिंसा हुई, झूठ बोला तो वह भी हिंसा, जिसके संबंध में झूठ बोला प्रथम तो उसका प्राण दुखाया। कितना बुरा लगता है। कोई हमारे संबंधों में झूठ बोल दे, जो बात हो ही नहीं तो उसको सुनकर कितना बुरा लगता है। तो झूठ बोलना भी एक प्राणों का घात है, दूसरे को सताया है। तो असत्य बोलना भी हिंसा ही है, चोरी करना भी हिंसा ही है। दूसरे का बाह्यप्राण हर लिया तो उसने उसका कितना दिल दुखा दिया, यह भी चोरी है। तो चोरी करना भी हिंसा में शामिल है, धर्म भी एक है अहिंसा। ज्ञान किया, भ्रम छोड़ा, आत्मतत्त्व को समझा तो वहाँ हमने क्या किया? अपनी दया की। अपने आपको संसार में रुलने से बचा लेना, यह अपनी दया हुई कि नहीं? यही अहिंसा हुई। ज्ञान करें वह अहिंसा, दया का आचरण करें वह अहिंसा, सत्य का आचरण करें वह अहिंसा, परवस्तु को न चुरायें यह भी अहिंसा ही है। क्योंकि इसमें अपने चैतन्य प्राणों की रक्षा की। ज्ञान, दर्शन का विकास न रुकेगा, तो ज्ञान, दर्शन प्राण की रक्षा की, सो अहिंसा ही है और दूसरों को भी निर्भय रखे तो वह भी अहिंसा है।
असत्प्रवर्तन में आत्मध्यान की अपात्रता- जो मनुष्य ईमानदार है, सत्य है, परधन नहीं हरता उसके प्रति लोगों की कितनी बड़ी आस्था रहती है। बड़ा सज्जन है, बड़ा सदाचारी है। तो व्रती पुरुष का लक्षण ही यह है कि जिसकी ओर से लोग नि:शंक रहें। तो जैसे व्रती पुरुष में एक यह गुण होता है कि चोरी नहीं करता ऐसे ही यह भी गुण होना चाहिए कि वह झूठ न बोले। प्राय: करके यह गुण तो बहुतों में पाया जाता है कि दूसरे के धन की चोरी नहीं करते, इसकी अपेक्षा कभी झूठ न बोलें इसमें कुछ कमी रह जाती है। किसी भी बात पर जरा सी बात पर झूठ बोल देते हैं। बच्चा कह रहा है कि पैसा दो, कहते हैं कि नहीं है पैसा। रखे हैं जेब में पैसा पर झूठ बोल देते हैं कि नहीं है पैसा। किसी ने कुछ माँगा तो कह देते हैं कि नहीं है, अमुक चीज और अपने पास वह चीज रखे हैं। यों झूठ बोलने की एक आदत सी बन जाती है। तो यह झूठ बोलने की शिक्षा धीरे धीरे छोटी छोटी बातों में मिलती है। बाद में बड़ी-बड़ी झूठ बोलने की आदत बन जाती है। तो इसमें अपने प्राणों का घात किया। आत्मातिरिक्त वस्तु को अपनाने के लिये जो प्रवृत्ति है असत्यभाषण है वह भी चोरी है। ज्ञाता द्रष्टा न रह सके, आत्मा का ध्यान न कर सके, एकदम किसी वस्तु की ओर आकर्षण है तब तो झूठ बोला, चोरी की। तो ऐसा ज्ञानरूप जो आचरण करता है वह आत्मा का ध्यान नहीं कर सकता।