वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 573
From जैनकोष
पुण्यानुष्ठानजातानि प्रणश्यंतीह देहिनाम्।
परवित्तामिषग्रासलालसानां धरातले।।
चोरी का रूप- पहले तो अध्यात्मदृष्टि से चोरी की बात का निर्णय करें कि देखिये- हैतो प्रत्येक वस्तु का स्वरूप न्यारा और उसे अंगीकार करेंकियह मेरी वस्तु है तोबताओ यह चोरी हुई कि नहीं हुई? देह है, आपके घर के तिजोरी में रखा हुआ धन है तो भले ही रखा है, लोकव्यवहार में आपका उस पर अधिकार है, आप उसकी व्यवस्था बनाते हैं लेकिन यह तो बताओ कि आखिर वह परधन है कि नहीं? आपकी कोई चीज है क्या? वह तो परवस्तु है। मेरी है, यही मानने का नाम चोरी है। जो कपड़े आप पहिने हैं वे कपड़े भी आपकी चीज है क्या, आपका उनमें स्वरूप नहीं, आपका उन पर अधिकार नहीं, वे जड़ है, बाहरी चीज हैं- आपसे न्यारे हैं और भीतर में यह श्रद्धा बनायें कि यह मेरी कमीज है तो अध्यात्मदृष्टि से यह चोरी हुई। परवस्तु को मानना कि यह मेरी है बस यही अध्यात्मदृष्टि से चोरी है फिर बाह्य की अवस्था में आपके अधीन जितनी चीजें हैं वे आपकी हैं, उन्हें फिर अपनी मानना, अपनी बनाना यह तो चारी प्रकट ही है।
चोरी से लौकिक और पारलौकिक हानि- परवस्तु को अपनी अंगीकार करना, अपने कब्जे में करना ऐसा जो आचरण रखता है, उसकी दृष्टि तो पर की ओर लगी हुई है, वह आत्मध्यान नहीं कर सकता। इस पृथ्वी में परधनरूपी मांस के भक्षण में आसक्त पुरुषों के पुण्य के आचरण इसी लोक में नष्ट हो जाते हैं। चोरी करने वाले के आचरण उत्तम नहीं है। आप देखिये- छोटे-छोटे लोग जिनके संबंध में यह विदित हो जाता है कि इनमें चोरी की आदत है उन्हें कोई अपने ठिकाने में ठहरने नहीं देता। चोरी करने वालों की कलायें बहुत विचित्र-विचित्र हैं। किसी को पता भी न पड़े, ऊपर के कपड़ों में कुछ न असर पड़े और सबसे नीचे की कमीज की भीतरी जेब कहो कट जाय। यह भी उनका एक पाठ्यक्रम है, उसे भी सिखाने वाले और सीखने वाले लोग होते होंगे। ऐसा काम करने वालों का कितना क्रूर चित्त होता होगा। जब वे यह विचार कर चलते हैं कि किसी का धन हरना है, किसी की जेब काटना है तब उनके अंतरंग आत्मा को देखिये- कितना मलिन है उनका आत्मा और वे इतनी चोरी करते मगर साहूकार वे नहीं बन पाते। चोरी करने वाला कोई धनी नहीं देखा जाता और न कोई उनकी इज्जत करता है। चोरी करने की आदत बहुत नीची प्रकृति की है। चोरी के सर्वथा त्याग का संकल्प हो और त्याग हो तब ही उसमें धर्म की पात्रता आ सकती है।
चोरी और झूठ का परिणाम- सत्यघोष की कथा प्रसिद्ध है। उसने दुनिया में अपने को बड़ा सत्यवादी प्रसिद्ध कर रखा था। जनेऊ में चाकू लटका कर रक्खा था और सबसे कहता था कि मेरा यह नियम है कि यदि मुझसे झूठ बोलना हो गया तो मैं अपनी जीभ इस चाकू से काट लूँगा। वह सत्य बोलता भी रहा। यों ही तो किसी को विश्वास हो नहीं जाता। कोई अनेक असत्य बोलता हो तो उससे उतना खतरा नहीं पहुँचता जितना की कभी असत्य न बोलता हो और एक बार झूठ बोल दे। क्योंकि, असत्य बोलने वाले से तो लोग सावधान रहते हैं और सत्य बोलने वाले के विश्वास में लोग पड़ जाते हैं। एक समय किसी सेठ को कहीं यात्रा में जाना था, सो 10 रत्न उसने सत्यघोष के पास रख दिये और कह दिया कि जब हम लौटेंगे तो वापस ले लेंगे। जब यात्रा करके वह सेठ लौटा तो अपने दसों रत्न माँगे। सत्यघोष ने वे रत्न देने से मना कर दिया। बोला- हमारे पास रत्न नहीं है। उस सेठ को तो यह विश्वास था कि सत्यघोष ने दुनिया में अपने को सत्यवादी प्रसिद्ध कर दिया है यह झूठ न बोल सकेगा, पर आज इसने झूठ बोला है। वह सेठ बड़े जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि सत्यघोष ने मेरे 10 रत्न रख लिए हैं और देने से इन्कार कर दिये हैं। जब वह सेठ रोज-रोज चिल्लाया तो एक दिन राजा ने बुलवाया। जब सेठ ने अपनी बात बताया तो राजा को विश्वास न हुआ। मगर रानी ने कहा कि हम इसका सही सही पता लगायेंगी। सत्यघोष को रानी ने अपने यहाँ बुलाया, कुछ खेल खेलने लगी। सत्यघोष से रानी ने चाकू भी जीत लिया, जनेऊ भी जीत लिया। चाकू और जनेऊ एक दासी को रानी ने देकर कहा कि सत्यघोष के घर जावो और उसकी स्त्री से यह कहो कि सत्यघोष ने देखो यह निशानी भेजी है और कहा है कि जो 10 रत्न रखे हैं वे ले आवो। सत्यघोष की स्त्री ने दसों रत्न निकाल कर दे दिए। यह दासी रानी को दसों रत्न लाकर दे देती है। लेकिन रानी ने उस सेठ की परीक्षा के लिए बहुत से नकली रत्नों में उन दसों रत्नों को मिलाकर कहा कि इनमें से जो तुम्हारे रत्न हों सो निकाल लो। सेठ ने अपने वे ही दसों रत्न निकाल लिए जो उसके थे। फिर उस सत्यघोष को तीन दंड दिये गए, जिनमें से उसे एक स्वीकार करना था। या तो थाली भर गोबर खाये, या मल्ल के 32 घूँसे सहे या अपना सारा धन दे। सत्यघोष को सबसे सस्ता लगा मल्ल के 32 घूँसे सहना। मल्ल ने एक ही घूँसा मारा तो उसकी दम निकलने लगी। हाथ जोड़कर कहा हम मल्ल के 32 घूँसे न सहेंगे, हम तो थाली भर गोबर खायेंगे। उसे गोबर भी खिलाया, वह भी न खाया गया और अंत में उसका सारा धन भी जब्त कर लिया। तो जो सत्य बोलता है और एक भी झूठ बोल जाय तो उससे भी उसका और दूसरों का अधिक बिगाड़ है। जो बड़े आचरण से रहता है, चोरी नहीं करता है वह कदाचित् एक बार चोरी कर ले तो उससे भी उसका और दूसरे का भी अधिक बिगाड़ है। जो अस्तेय व्रत का पालन नहीं करता है ऐसे पुरुष के धर्म कहाँ है और आत्मा का ध्यान कहाँ है? आत्मा की सिद्धि के प्रकरण में यह अस्तेय का वर्णन इसीलिए किया जा रहा है कि ये सब ध्यान के अंग हैं। अपना आचरण सत्य हो तो आत्मध्यान की योग्यता हो सकती है।