वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 576
From जैनकोष
चुराशीलं विनिश्चित्य परित्यजति शंकिता।
वित्तापहारदोषेण जनन्यपि सुतं निजम्।।
जननी द्वारा भी चोर का परिहार- जिसका स्वभाव चोरी करने का हो जाता है ऐसे अपने पुत्र की माता भी यह जानकर कि यह चोर है, इसका चोरी का स्वभाव है, अपना धन हरे जाने के भय से पुत्र को भी छोड़ देती है। चोरी की आदत वाले पुरुष पर किसी का विश्वास नहीं रहता, उसे कोई निकट नहीं बैठने देता। माँ भी उस पुत्र का साथ नहीं देती है जो चोरी करता है और की तो कथा ही क्या है? और, धन ऐसी चीज है कि एक प्राण की तरह है। सबको अपना-अपना धन प्रिय है। माँ भी अपना धन रखे है तो वह भी अपने पुत्र को नहीं दे सकती और ठीक भी बात है। कोई दूसरा पुरुष ऐसा विश्वासी नहीं है कि सारा धन उसे दे दो तो वह सेवा करता रहे। पुत्र का अगर भाव बदल जाय, माँ की खबर न रखे, तो यह भी तो हुआ करता है। संसार का निवास बड़ा कठिन है। क्या करे, किस तरह शांत रहे, सुखी रहे? और कठिन भी कुछ नहीं। यदि संतोष है और एक ही उद्देश्य है- मैं मनुष्य हुआ हूँ तो रत्नत्रयधर्म पालन के लिए हुआ हूँ, मेरे को काम यही है कि मैं अपने आत्मा का सही विश्वास रखूँ, ज्ञान रखूँ, उसमें ही मग्न रहूँ, उसमें ही प्रसन्न रहूँ, इस प्रकार का उद्देश्य बनता है तो मनुष्य को कहीं क्लेश नहीं है।
परवैभव की अप्रयोजकता- भैया ! लंबी चौड़ी बात है क्या, इतनी ही तो बात है कि थोड़ी भूख की वेदना मिटानी पड़ती है। इसके अलावा और मनुष्य का अटका क्या है? अटका तो धर्मपालन का काम है। धर्मपालन के बिना न शांति मिले और न उद्धार हो सकता है। दुनिया में नाम, यश न हो तो क्या बिगाड़ है? न हो न सही वैभव अधिक न हो तो क्या बिगाड़ और इल्लत से बचे। जितना वैभव होगा उतने विकल्प, उतनी चिंता और उतने ही क्लेश हैं, और उतना ही धर्म में मन नहीं लगता। तो संतोष बिना तो कहीं भी गुजारा नहीं होता, चाहे धनी हो अथवा गरीब। ज्ञान ही इस जीव का शरण है। ज्ञान के सिवाय कोई अपना बंधु, देव, मित्र, गुरु नहीं है। ज्ञान ही हमारा भगवान है, ज्ञान ही हमारी रक्षा करने वाला है, तो चोरी करने के स्वभाव वाले पुरुष चित्त में विह्वल रहते हैं, वे आत्मा का क्या ध्यान करेंगे? लोक में भी उनका कहीं ठिकाना नहीं है।