वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 610
From जैनकोष
अनंतव्यसनासारदुर्गे भवमरुस्थले।
स्मरज्वरपिपासार्त्ता विपद्यंते शरीरिण:।।
कामज्वलन और उसके शमन का उपाय- आचार्यदेव कह रहे हैं कि मैं ऐसा मान रहा हूँ कि ये जीव के समूह कामरूपी अग्नि से जल रहे हैं, तभी तो स्त्री शरीररूपी कीचड़ में प्रवेश करके डूबते हैं। एक परस्पर का प्रसंगरूप कीचड़ इसलिए ही लपेटते हैं ये मनुष्य कि वे काम अग्नि से तीव्र जल रहे हैं और केवल एक स्पर्शन इंद्रिय की ही बात क्या, सभी इंद्रियों की इच्छायें इतनी तीव्र ज्वालाएँ हैं कि विवेक भी भस्म हो जाता है और उस विवेक रहित दशा में यही एकमात्र उपाय सूझता है कि विषयों के साधनों को जुटा लिया जाय। पर विषयों के साधनों के संचय से क्या यह कामनाओं की ज्वाला दूर हो सकती है? जितने-जितने समागम मिलते जायें उतनी ही तृष्णा और बढ़ती जाती है। जीवन तो समाप्त हो जाता है पर तृष्णा समाप्त नहीं होती। बुढ़ापे में भी जब कि यह शरीर शिथिल है मन भी काम नहीं देता, कमाते भी लड़के लोग है, कमाई में भी अब बुद्धि नहीं चलती है ऐसी स्थितियाँ हो जाती हैं, इतने पर भी तृष्णा दूर नहीं होती और इसी तृष्णा के कारण उन कमाऊ लड़कों के बीच-बीच बोलते रहते हैं, पर लड़के लोग मानते नहीं वृद्ध पुरुष की बात, क्योंकि उन्हें जिस उपाय से लाभ हो वही तो करेंगे। तब यह बूढ़ा अपनी कल्पनाओं से एक दु:ख यह बढ़ा लेता कि मेरी बात कोई लड़का मानता ही नहीं। तो तृष्णा का परित्याग होना यह बहुत ऊँचा तपश्चरण है। जिन्होंने कामवासना का परिहार किया, इच्छावों का परिहार किया और अपने आपके स्वरूप से अपने आपमें संभालने की ही रुचि की, वे पुरुष संकटों से दूर होते हैं। इस समय भी संकटों के ज्वलनों की बाधा दूर करने के लिए इसका ही प्रयोग करियेगा। चाहे थोड़ा ही हो सके। मैं सबसे न्यारा ज्ञानानंदमात्र हूँ, इस आत्मभावना के प्रसाद से सर्वसंकट दूर होते हैं।