वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 612
From जैनकोष
दिग्मूढमथ विभ्रांतमुंमत्तं शंकिताशयम्।
विलक्ष्यं कुरुते लोकं स्मरवैरीविजृंभित:।।
कामवशी प्राणियों का घृणित कार्यों में प्रवर्तन- कामरूपी सिंह से चबाया गया यह मनुष्य ऐसे ऐसे घृणास्पद कार्यों को भी करता है जो योगियों के द्वारा अति निंदित हैं, पाप से भरे हुए हैं, अत्यंत क्रूरता का आशय जिनमें पड़ा हुआ है। अनेक घटनाएँ ऐसी हुई हैं कि कोई पुरुष किसी परस्त्री में आसक्त हुआ या कोई स्त्री परपुरुष में आसक्त हुई तो अपने पति और स्त्री को अपने पापकार्य में बाधक जानकर उनको भी मार डालते हैं। कोई ऐसा घृणास्पद कार्य न होगा जो कार्य व्यभिचारी न कर सकता हो। जब सबसे निकृष्ट कार्य को व्यभिचारी ने कर डाला तो उसका सारा विवेक खतम हो गया, फिर तो उससे कौनसा घृणित कार्य नहीं हो सकता? जिस अंतरंग में विकल्पों से आशय दूषित बन गया है तो अन्य पाप इसके समक्ष और क्या हैं, जुवा खेलना, माँस खाना, मदिरापान ये भी ऐब उसमें आने लगते हैं। झूठ बोलना, चोरी करना, ये कार्य तो उसके लिए न कुछ सी चीज बन जाते हैं। व्यभिचारी पुरुष पद पद पर झूठ बोलता है और साधन चाहिए तो उनके लिए चोरी करना भी उसे सुगम कार्य बन जाता है। संसार में अन्य कोई क्या घृणित कार्य कहा जाय, जो कामवेदनावश होकर प्राणी न कर सके। व्यभिचारी आदमी में दया होती नहीं। तो यह कामदाह से चबाया गया मनुष्य अत्यंत निंद्य पापमय बड़ी क्रूरतारूप अनेक खोटे कार्यों को कर डालता है। जिसके ऐसी खोटी वासना जगी हो वह धर्मकार्य क्या करेगा?
ब्रह्मचर्य से निष्कलुषता की सिद्धि- ब्रह्मचर्य से आत्मा में पवित्रता आती है। और इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही ऐसे शुद्धज्ञान का विकास होता है जिससे यह पर से भिन्न-निज चेतन स्वरूपमात्र अपने आपके दर्शन पाता है। लोक में अन्य किसी का भी दर्शन सुखदायी नहीं है, एक इस ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का दर्शन ही सुख को उत्पन्न करता है- बाकी तो सब भ्रमजाल है। ये दृश्यमान मायारूप मनुष्य स्वयं ही सुखी नहीं है, संसार में फिर किस दूसरे की आशा करते हो कि इससे मुझे शांति प्राप्त होगी? परजीवों से स्नेह का करना नियम से ही क्लेश का कारण है। मूढ़ता की बात तो यह है कि स्नेह से लाभ कुछ नहीं है, पर बुद्धि हरी गई अतएव व्यग्र हाकर वही पर का ही ध्यान बना रहता है और वह इस दुर्लभ मानव जीवन को बरबाद कर देता है। ब्रह्मचर्य ही ऐसा तपश्चरण है जिसके प्रसाद से सकल कलुषतायें दूर होती हैं वे सहज स्वरूप प्रकट होता है।