वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 614
From जैनकोष
जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति।
लोक: कामानलज्वालाकलापकवलीकृत:।।
जो कामबाणों से बीधा है ऐसे जीव का चित्त क्षणभर के लिए स्वप्न में भी स्वस्थता को प्राप्त नहीं होता। कामबाणों से बीधा हुआ जीव, जिसे एक कामासक्ति का व्यर्थ का विकार लग गया है उसका चित्त कैसे स्थिर हो सकता है, कहीं मन ही न लगेगा। कितना खोटा आशय है जिसका न कुछ आधार है, न कुछ लाभ की बात, बल्कि शरीरबल भी समाप्त करे, मनोबल भी समाप्त करे, वचन बल भी खराब कर दे, ऐसा यह काम रोग, यह कामबाण जिसके लगा है उस जीव का चित्त क्षण भर के लिए भी तो स्वप्न तक में भी स्वस्थता को प्राप्त नहीं होता। सोते हुए में भी और जागते हुए में भी उसका चित्त अस्थिर रहता है जिसका चित्त अस्वस्थ होता है उसको निद्रा में स्वप्न आया करते हैं खोटे, वे उसकी खोटी वासनाओं के सूचक हैं और जिनका चित्त स्वस्थ है, उन्हें धार्मिक भावनाओं के सूचक स्वप्न आया करते हैं। स्वप्न तो एक दिल का नक्शा बता दिया करते हैं। कैसी वासना लगी हुई है, कहाँ चित्त लगा रहता है इन सबको प्रकट बता देने वाला एक यह स्वप्न है। स्वस्थ चित्त में भी कामी मनुष्य का चित्त स्थिर नहीं रहता। ये सब दुराशय विवेक के बिना होते हैं।
सत्संगति से दुर्वासना के परिहरण का अनुरोध- सत्संगति और स्वाध्याय, इन दो का प्रयोग सुंदर रहे तो उपयोग नियम से सुंदर और स्थिर होगा। स्वाध्याय भी एक परम सत्संग है, क्योंकि उसमें भी गुणी और गुण की उपासना है। जिन्हें आत्मध्यान की रुचि है उसका कर्तव्य है कि स्वाध्याय और सत्संग से अपने चित्त को स्थिर रखें और शुद्ध ज्ञायकमात्र चैतन्यस्वरूप सिद्ध भगवंत की तरह अपने आत्मतत्त्व के दर्शन में उपयोग लगायें। संसार में अन्यत्र कहीं कुछ भी शरण नहीं है, चाहे सचेतन परिग्रह हो अथवा अचेतन परिग्रह हो किसी भी परिग्रह के समागम से इस जीव को शांति प्राप्त नहीं हो सकती।