वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 628
From जैनकोष
उंमूलयत्यविश्रांतं पूज्यं श्रीधर्मपादपम् ।मनोभवमहादंती मनुष्याणां निरंकुश:।।
कामवंचना से विडंबना- जो पुरुष विषयों की अभिलाषा रखते हैं, कामवेदना से पीड़ित हैं, काम के द्वारा ठगाये गए हैं वे पुरुष कई बातों में चतुर भी हों तो भी मूर्ख हो जाते हैं। बहुत बहुत क्षमा की प्रकृति रखते हों तो भी क्रोधी हो जाते हैं। जैसे आत्मा का सार आत्मा में चैतन्य की दृष्टि है, चैतन्य तत्त्व है इसी प्रकार शरीर में शरीर का सार बलवीर्य है। शरीर के बल को बरबाद करना इससे यह मनुष्य निर्बल हो जाता है, और कमजोर पुरुष के क्रोध आता ही रहता है तो जो कामी पुरुष हैं वे यदि क्षमा की प्रकृति भी रखने वाले हैं तो भी क्रोधी हो जाते हैं, शूरवीर कायर बन जाते हैं इस काम के समक्ष। धन्य है वह सत्संगति जिसमें रहकर यह मनुष्य अपने ज्ञान को स्वच्छ और उज्ज्वल बनायें रहता है। जिसका ज्ञान बिगड़ा, जिसे कहते हैं दिमाग बिगड़ा, पागलपन आया उसका तो सारा जीवन बिगड़ गया। अब उसे क्या सुख? जो हित अहित का विचार न कर सके ऐसी स्थिति पा ले उस मनुष्य का जीवन क्या जीवन है? ऐसे ही समझिये हम हित अहित का विचार न कर सकें और जो कुमार्ग है, व्यसन है, पाप है, हेय चीज हैं उनमें ही लगे रहें, उनकी आदत बन जाय, उन्हें न छोड़ सकें तो हमें भ्रष्ट कहा जायगा। ज्ञान काम ही नहीं करेगा। तो जिसका ज्ञान विषयों में पापों में प्रवृत्त होता है उसे आप ज्ञानवान कहेंगे क्या? वे भी एक तरह से पागल हैं। जिन्हें अपने आपकी दया नहीं है, जो अपने प्रभु पर अन्याय कर रहे हैं ऐसे पुरुषों को आप ज्ञानी कहेंगे क्या? तो अपना ज्ञान स्वच्छ बना रहे, ऐसी कोशिश रहना चाहिए। सत्संगति हो, ब्रह्मचर्य हो, ज्ञानार्जन हो, इससे बुद्धि की स्वच्छता होती है। जो पुरुष कामातुर हैं वे कितने ही बड़े हों, लोगों की दृष्टि में बड़े माने जा रहे हों तो भी वे क्षणमात्र में लघु बन जाते हैं। उद्यमी पुरुष भी आलसी हो जाते हैं।
ज्ञानयज्ञ में ब्रह्मचर्य की साधकता- इस प्रसंग में मतलब यह है कि कोई पुरुष किसी अन्य स्त्री में आसक्त न हो, कोई स्त्री किसी भी परपुरुष में आसक्त न हो। गृहस्थ है तो अपनी स्त्री अथवा पति में ही संतुष्ट रहे ऐसा संतोष जब रहता है तब धर्म भी होता है, कर्म भी कटते हैं, बुद्धि स्वच्छ रहती है, वही एक सौभाग्य है। ब्रह्मचर्य की साधना होती है। ब्रह्म कहिये, आत्मा में चर्य कहिये रमण करना अर्थात् यह ज्ञान अपने आत्मा के उस शुद्ध सहज निर्मल स्वत:सिद्ध ज्ञानस्वरूप को जानता रहे यही है महायज्ञ। यही है महातपश्चरण।
ब्रह्मचर्य का परमशरण- ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व की साधना के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक है। जो पुरुष ब्रह्मचर्य से नहीं रहते, पर स्त्री की ओर तकते हैं ऐसे जीवों का लोक में भी आदर कहाँ है? और बल्कि सारा जीवन विषैला हो जाता है। एक केवल मन के भावों को न सम्हाल सके ये कामी पुरुष जिससे इतनी विडंबनाएँ बन जाती हैं। ब्रह्मचर्य को परमतप कहा गया है। ब्रह्मचर्य परम तप:। इस लोक में अपने आपका केवल
आप ही शरण है, खूब निरख लीजिए। इतनी जिंदगी हुई है अनेकों का सहारा लेते हुए, अनेकों पर विश्वास किया है। लेकिन सभी प्रसंगों में देख लो, कोई किसी का शरण होता भी है क्या? जब तक स्वार्थ साधना चलती है दूसरों को तब तक वे उसे सब कुछ मानते हैं पर जब स्वार्थ नहीं सधता तो फिर कौन किसका मित्र रहता है? सगा पुत्र भी तो किनारा कर जाता है। तो जगत में इस जीव को शरण कुछ भी बाहर में नहीं है, और बढ़कर क्या कहा जाय, जब यह देह भी हमारा नहीं होता, यह शरीर भी नष्ट हो जाता है तो अन्य की तो बात ही क्या है?
क्लेशों का साधन शरीर- जितने भी इस जगत में क्लेश है वे सब इस शरीर के कारण हैं। शरीर एक अलग वस्तु है, जीव एक अलग वस्तु है। कल्पना करो कि इस जीव के साथ शरीर न लगा होता, यह केवल जीव होता तो भूख कहाँ से लगती? शरीर के संबंध से ही भूख प्यास, ठंड गर्मी आदिक की वेदनाएँ होती हैं, और लोक में जिसे सम्मान अपमान कहते हैं वे भी इस शरीर के संबंध से है। इस शरीर को ही तो निरखकर यह भाव करते हैं कि मेरा लोगों ने बड़ा अच्छा सम्मान किया। इस शरीर को ही आप मानकर यह अनुभव करते हैं कि अमुक ने मेरा बहुत अपमान किया। तो सम्मान और अपमान के भी कष्ट इस शरीर के संबंध से हुए। शरीर का संबंध न होता तो इस जीव को काहे का कष्ट था? खूब विचारते जाइये, जितने भी कष्ट हैं वे सब शरीर के संबंध से हैं।
शुद्धस्वभाव के उपयोग में धर्मपालन- शरीररहित जीव का मात्र ज्ञानानंदस्वरूप है। यद्यपि यह जीव वर्तमान शरीर में बँधा है तिस पर भी यह शरीर से निराले स्वरूप वाला है। ज्ञान के द्वारा हम इस बंधन अवस्था में भी अपने आपको शरीर से निराला केवल ज्ञानस्वरूप निहार सकते हैं। यही है धर्मपालन। अपना धर्म पाल रहे हैं, अपना मायने अपने आत्मा का। और, आत्मा का स्वभाव है ज्ञान और आनंद, उस रूप अपने को निहार रहे हैं, यही है आत्मधर्म का पालन। सब जीवों के पास यह धर्म है और इसकी दृष्टि करनी चाहिए। जिन्हें अपना उद्धार करना है उन्हें यह निर्णय कर लेना चाहिए कि धर्म से ही उद्धार होता है, और धर्म वही है जो मेरे स्वभाव में बसा हो। जो बात मेरे स्वभाव में न हो, कोटि उपाय करने पर भी जो बात मेरे में लादी न जा सके वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरे में स्वयं ज्ञान और आनंद का स्वभाव है, इस स्वभाव की आराधना की जाय तो इस तरह शुद्ध ज्ञान और आनंद की धारा प्रकट होती है, वहाँ शुद्ध शांति और आनंद मिलता है। यही है धर्मपालन।
व्यवहारधर्मपालन का उद्देश्य आत्मोपलब्धिरूप परमधर्म- धर्मपालन का सबकी आत्मा से संबंध है। यह बात जिन उपायों से मिल सके वह उपाय कहलाता है व्यवहारधर्म। व्यवहारधर्म में कुछ काल्पनिक भेद से भेद भी बन गया है। लेकिन व्यवहारधर्म के लिए ही तो धर्म नहीं पाला जाता है, निश्चयधर्म के लिए व्यवहारधर्म पाला जाता है। जैसे प्रभुपूजा का लक्ष्य यह है कि हम अपने को प्रभु के स्वरूप की तरह शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप में निरख लें, ऐसा तो कोई यत्न करे नहीं और केवल पूजा की जो बाहरी विधियाँ हैं घंटा बजाया, यहाँ से वहाँ पुष्प आदिक रख दिया और समझ ले कि मैंने प्रभुपूजा कर ली है तो उसकी समझ भूलभरी है। प्रभुपूजा का उद्देश्य है कि प्रभु का जो ज्ञानानंदस्वरूप है उस स्वरूप का अनुभव हो जाना कि प्रभु में यह माहात्म्य पड़ा हुआ है। प्रभु की तरह अपने आप निरखना, यह जब तक नहीं किया जा सकता तब तक प्रभु के स्वरूप का दर्शन भी नहीं होता।
सत्य उद्देश्य में धर्मपालन की सफलता- मनुष्य जितने भी कार्य करते हैं उनका प्रभाव स्वयं पर होता है। तो यों आत्मस्वरूप में मग्न होना, इसकी दृष्टि बनाना, मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, सबसे जुदा हूँ, परिग्रह से भी दूर हूँ, निर्लेप हूँ, केवल हूँ, ऐसा अपने आपका अनुभव करना यही है धर्मपालन, और इससे ही वास्तव में शांति होती है और मुक्ति की प्राप्ति होती है, यह मूल लक्ष्य बन जाना चाहिए। और जो व्यवहारिक भेद है, कोई किसी मजहब को मानता, कोई किसी मजहब को मानता, कोई किसी संन्यासी को मानता, कोई किसी प्रकार की मान्यता रखता, ये सब बातें करते रहने के लिए नहीं किए जाते, किंतु ब्रह्मस्वरूप आत्मस्वरूप का परिचय पाकर उसमें ही समृद्धि प्राप्त कर ले, इसके लिए किया जाता है। जब उद्देश्य से हट जाता है मनुष्य तो फिर जो वह स्तुति करता है वह विडंबना और हास्य की चीज बन जाती है।
उद्देश्यभ्रष्टता में विडंबित प्रवृत्तियाँ- कोर्इ एक चतुर सेठ था, उसके कोई विवाह काज हुआ तो लोग जीमने आये। पातलें परोसीं और साथ में तीन चार अंगुल की सींक भी परोसी दाँत खोदने के लिए, ताकि लोग पातल से सींक निकालकर पातल में छेद न करें। एक कहावत है जिस पातल में खाये उसी में छेद करे इस उद्देश्य से उस सेठ ने अलग से तीन चार अंगुल की एक-एक सींक भी साथ में परोसवा दी थी। अब सेठ तो गुजर गया। जब उसके लड़कों के कोई कामकाज का अवसर आया तो इस शान में आ गये कि हमारे पिता ने जैसा काम किया था उससे हम दूना अच्छा काम करेंगे। तो सेठ ने 3 मिठाइयाँ बनवायी थीं, लड़कों ने 6 मिठाई बनवायी। सेठ ने 4 अंगुल की सींक परोसी थीं, लड़कों ने 12 अंगुल की सींक परोसी क्योंकि वहाँ शान पड़ती है। जब वे लड़के भी गुजर गए तो सेठ के नाती पोतों का जमाना आया। उनके जब कोई काम पड़ा तो वे और भी शान में आ गए। सोचा कि जैसा काम हमारे बाप ने किया उससे दूना अच्छा हम काम करेंगे। सो बाप ने 6 मिठाई बनवायी थीं, उन्होंने 12 मिठाई बनवायी। बाप ने 12 अंगुल की सींक परोसी थी उन्होंने डेढ़ डेढ़ फुट का डंडा परोसवाया। उन्होंने उस सींक परोसने का लक्ष्य ही न समझ पाया तो डेढ़ डेढ़ फुट के डंडे परोसने तक की नौबत आ गयी, इतनी बड़ी विडंबना बन गयी।
धर्मकार्य का प्रयोजन निर्दोषानुभूति- जब लक्ष्य से भ्रष्टता हो जाती है तो प्रवृत्तियाँ विडंबनारूप बन जाती हैं। हम जितने भी धर्म के कार्य करें उनमें यही समझें कि ये सब काम रागद्वेष मोह को दूर करने के लिए हैं, और देखें कि हम इन कार्यों से रागद्वेष मोह से दूर होते हैं या लगते हैं। यदि लगते हैं तो वे धर्मकार्य नहीं और यदि दूर होते हैं तो वे धर्मकार्य हैं। इसके लिए मूल काम यह करना होगा कि मेरे स्वभाव में रागद्वेष मोह नहीं हैं, केवल मैं ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ, ऐसी उपासना करने से रागद्वेष मोह को दूर करने का अवसर मिलता है।
।।ज्ञानार्णव प्रवचन अष्टम भाग समाप्त।।