वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 629
From जैनकोष
कुर्वंति वनिताहेतोरचिंत्यमपि साहसम्।
नरा: कामहठात्कारविधुरीकृतमानसा:।।
कामार्तों का अचिंत्य दु:साहस- कामवासना से जिसका चित्त दुखित है ऐसा पुरुष स्त्री की प्राप्ति के लिए ऐसा भी काम करने का साहस करता है जो चिंतयन में भी न आया हो। वैसे पुराणों में कई जगह सुनने में आया कि स्त्री को पाने के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ भी लड़ी और आजकल भी छोटे कुलों में कितनी घटनाएँ बनती हैं जो अनेक मायाचार, छल, धोखा भी कर बैठते हैं। प्रयोजन यह है कि कामव्यथा एक ऐसी खोटी मानसिक व्यथा है जो व्यर्थ की है। कामव्यथा इतनी खोटी व्यथा है कि जिसमें अपने आत्मा की सुध रखना तो दूर रहो किंतु बड़े से बड़ा निंद्य कार्य भी कर सकता है। वैसे काम भी एक लोभकषाय का अंश है। जैसे कषायें चार हैं क्रोध, मान, माया, लोभ तो वह भी लोभ का एक हिस्सा है। लेकिन यह इतनी कठिन कषाय है कि कषाय के नाम से भी अलग नाम इसका रखा है। जहाँ बताया है कि जीव के 6 बैरी हैं वहाँ मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ ये 6 बताये हैं।
मोह और काम की अहितकारिता- सर्वप्रथम बैरी मोह को बताया है क्योंकि उसमें पदार्थ के स्वरूप का सही ज्ञान भी नहीं रहता। मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानज्योति स्वरूप हूँ इसका भान मोह में होता ही नहीं है। जहाँ भिन्न परवस्तुवों से मोह भाव लगा है वहाँ आत्मतत्त्व का भान क्या? मोह के बाद फिर काम का नंबर रखा है। यद्यपि काम भी प्राय: मोहवश होता है लेकिन मोह का अतीव गहन अंधकार है और उसके निकट का अंधकार काम है। जितना विवेक क्रोध के समय भी रह सकता है उतना भी विवेक कामवासना के समय नहीं रहता। क्रोध करते हुए भी पुरुष यह निहार सकता है कि मैं ठीक काम नहीं कर रहा हूँ और मुझे क्रोध न करना चाहिए। मान कषाय में भी हित का लक्ष्य कभी रखा जा सकता है, मगर काम में हित का बोध नहीं रखा जा सकता। इसी तरह काम के बाद फिर विकट कषाय है माया कषाय। काम इन कषायों में सिरताज कषाय है। जो काम के वशीभूत हैं वे आत्मध्यान के पात्र नहीं हैं और जिनमें आत्मा की सुध लेने की पात्रता नहीं है उन पुरुषों को शांतिलाभ नहीं मिलता है। शांति तो जितना आत्मा के सहज स्वरूप के निकट आये उतनी ही प्राप्त होती है। परवस्तुवों की ओर आकर्षण रहे तो जब अपना उपयोग बाहर की ओर गया है तो वह अशांतिरूप रखकर ही गया है। तो आत्मा के निकट आने की पात्रता उस ही जीव के होती है जो कामासक्त पुरुष नहीं है। कामव्यथा न उत्पन्न हो सके इसके लिए चाहिए कि हम ज्ञानार्जन, गुरुसत्संग में अपना समय बितायें और अपनी आजीविका के कार्यों में भी समय लगायें। अच्छा उपयोग लगता रहे न्याय कार्यों में, तो ऐसे गंदे विचार उत्पन्न होने का अवसर नहीं आता।