वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 75
From जैनकोष
वह्विं विशति शीतार्थ जीवितार्थ पिवेद्षिषम्।
विषयेष्वपि य: सौख्वमन्वेषयति मुग्धधी:।।75।।
विषयों में सुख के अन्वेषण की मुग्धता― जो मूर्ख, जो व्यामोही पुरुष पंचेंद्रिय के विषयों के सेवन में सुख तलाशते हैं वे ऐसा काम कर रहे हैं जैसे कि कोई अपने में ठंड लाने के लिये, शीतलता लाने के लिये आग में कूद जाये। चाह तो उसकी यह थी कि मेरा संताप बुझे, मुझमें शीतलता आये, लेकिन प्रयत्न किया आग में कूद जाने का। तो ऐसे पुरुष को आप मूढ़ ही तो कहेंगे, ऐसे ही लोग चाहते तो हैं कि मुझे आनंद मिले और उस आनंद की आशा से पंचेंद्रिय के विषयों की दाह में कूद जायें तो फल इसका क्या होता है? संताप। अब भी संताप, आगे भी संताप, जन्ममरण की परंपरा की वृद्धि और जैसे कोर्इ पुरुष बहुत काल जीने की इच्छा से विष को पी ले तो यह उसकी कितनी उल्टी चाल है? ऐसे ही सुख पाने के लिये जो पंचेंद्रिय के विषयों का सेवन करते हैं, विषय विषपान का पान करते हैं तो यह भी उनकी कितनी मूढ़ता है?
त्याग वृद्धि में सुख की संभावना― हे आत्मन् ! विपरीत बुद्धि करने से सुख न मिलेगा, किंतु सुख के बजाय दु:ख ही मिलेगा। एक आदत ऐसी बनावो, प्रकृति ऐसी बनाओ कि विरक्ति की ओर झुकी हुई दृष्टि रहे और परिग्रहों की ओर से ममता का परिणाम न रहे। कुछ अपनी आदत बनावो इन परिग्रहों के त्याग की, और यह आदत रोज-रोज बने। धन, वैभव जोड़ते जायें, जोड़ते जायें और किसी समय 20-25 हजार दान में लगा दिया। अरे इसकी अपेक्षा तो रोज-रोज कुछ न कुछ दान करते रहते तो रोज की उदारता का पुण्य बंध होता और शांति की पात्रता रहती। सबकी प्रकृति होनी चाहिये कुछ त्यागरूप। दीन दु:खियों की सेवा में लगें, विद्यार्थियों के विद्याध्यन में लगें, किसी प्रकार की धर्म की प्रभावना में लगें, ऐसी आदत त्याग की सबमें कुछ न कुछ होनी चाहिये। इस त्याग की आदत से इस ममता डाइन की शिथिलता होने में बड़ी सहायता मिलेगी। बजाय विषय विष सेवन के त्याग की ओर दृष्टि बने तो शांति का मार्ग मिल सकता है।