वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 767
From जैनकोष
कषायदहन: शांतिं याति रागादिभि: समम्।
चेत: प्रसत्तिमाधत्ते वृद्धसेवावलंबिनां।।
वृद्धसेवा से कषायदहन का शमन- गुरुसेवा करने वाले मनुष्य के कषायें शांत हो जाती हैं, रागद्वेष मोहादिक विकार दूर हो जाते हैं। चित्त प्रसन्न और निर्मल हो जाता है। गुरुसेवा करने से क्रोध भी शांत हो जाता है। अगर कोई गुरु के सामने क्रोध करे तो वह लोगों की निगाह से गिर जाता है। यों ही अगर कोई गुरु के सामने मान से बैठा हो तो उसका मान भी खतम हो जाता है। गुरुजनों की सेवा में रहकर माया का कोई काम ही नहीं है। वहाँ कोई लालच तो होता नहीं। मायाचार का संबंध लालच से होता है। किसी वस्तु की तृष्णा जग गयी हो, लोभ लालच हो तो उसकी प्राप्ति के लिए अनेक मायाचार किये जाते हैं। सो वहाँ लालच का तो कोई प्रश्न है नहीं। गुरु की सेवा में रह रहे हैं तो मायाचार भी प्रकट नहीं होता। और, फिर गुरुजनों के गुणों के स्मरण के प्रताप से परिणाम ऐसे निर्मल होते हैं कि ये कषायें स्वयं शांत हो जाती हैं। जब कषायें शांत हुई तो चित्त प्रसन्न हो जाता है। जैसे वर्षाकाल में अनेक जगह पानी भरा हुआ होता है, वह गंदा होता है, निर्मलता उन तलैयों में वैसी नहीं रहती है जैसी कि शरदऋतु में होती है। शरदऋतु में जो भी कीच होता है वह सब नीचे बैठ जाता है तो पूर्ण जल निर्मल हो जाता है। इसी तरह हमारे जो उपयोग चल रहे हैं इनके साथ कषायकर्दम लगा हुआ है, नाना प्रकार के रागद्वेष भाव चल रहे हैं, तब वहाँ यह चित्त, यह ज्ञान कैसे प्रसन्न रह सके, कैसे निर्मल रह सकता है? जब बड़े जनों की सेवारूपी शरदऋतु आये तो यह कषाय कीच अपने आप शांत हो जाता है और चित्त निर्मल हो जाता है। ज्ञान सम्यक् रहता है। यही तो सुख है। कल्पना करो कि वैभव खूब इकट्ठा हो जाय पर चित्त में कालिमा बनी रहे तो उसे क्या सुख है? लखपति, करोड़पति भी हो और किन्हीं बातों से, किसी के बैर से, परिजनों में न बनने से, किसी को प्रतिकूल समझने से अनेक बातें होती हैं, यदि चित्त में निर्मलता नहीं है, प्रसन्नता नहीं है, चिंता और शंका का भार लदा है तो वहाँ उसे क्या सुख है? और, कोई बड़ा गरीब है, पर विवेक से रहता है, न्याय से अपनी आजीविका चलाता है, दूसरों से अच्छा व्यवहार रखता है तो ऐसे पुरुष का चित्त निर्मल रहता है और वह सुखी रहता है, प्रसन्न रहता है। तो गुरुवों की सेवा करने से यह प्रसाद प्रकट होता है, इसलिए वृद्धसेवा से समझिये कितनी शांति होती है, कितना चित्त प्रसन्न और निर्मल हो जाता है?