वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 770
From जैनकोष
तप:श्रुतधृतिध्यानविवेकयमसंयमै:।
ये वृद्धास्तेऽत्र शस्यंते न पुन: पलितांकुरै:।।
आत्मगुणों की वृद्धता में पारमार्थिकी वृद्धता- चिरकाल से अनेक व्यसनों और पापों में बसने वाले इन पुरुषों को आत्मोन्नति करने का प्रथम व सुलभ सहज उपाय है सत्संग। किसी भी कुपथ में लगे हुए मनुष्य को सर्वप्रथम आलंबन सत्संग मिलता है। जिस किसी भी मनुष्य का उद्धार होता है तो उसके उद्धार का सिलसिला सत्संग से शुरू होता है। उस सत्संग की बात कह रहे हैं जो अपने इस लोक का सुख चाहते हो और परलोक का सुख चाहते हो, उनका कर्तव्य है कि वे गुरु का सत्संग करें। तो वे गुरु कैसे होते हैं उनका नाम है वृद्ध। वृद्ध का अर्थ है बड़ा। जो बढ़ा हुआ हो उसे वृद्ध कहते हैं। लोक में तो बूढ़े का नाम वृद्ध है, पर वृद्ध का अर्थ तो बढ़ा हुआ होता है। जो अवस्था में बढ़ा है उसको भी वृद्ध कहते हैं। वृद्धों का सत्संग होना अनेक अवगुणों को दूर करता है। पर यहाँ वृद्ध का मतलब सफेद बाल वालों से नहीं है अर्थात् बूढ़ों से नहीं है किंतु जो तपस्या में बढ़े हों, ज्ञान में बढ़े हों, जितना धैर्य विशाल हो, ध्यान, विवेक, यम, संयम ये सभी जिनके बढ़े हुए हों उन्हें वृद्ध कहते हैं और वृद्ध मनुष्यों का सत्संग होना बहुत से गुणों को प्रकट करता है।
जो तप से पतित हैं तपश्चरण जिन्हें सुहाता ही नहीं है, अन्य-अन्य खोटे व्यसनों में जो लगते हैं ऐसे व्यसनी पुरुषों का संग विपत्तियों का कारण है। और, जो व्यसनी नहीं हैं तथा व्रत, तप में लगे हुए हैं ऐसे पुरुषों का संग हो तो शांति इस कारण मिलती है कि ऐसे सत्संग में रहने वाले पुरुष के तृष्णायें कम हो जाती हैं। उनका दर्शन करके चित्त में यह ख्याल होता है कि ये जगत के वैभव जो विनश्वर हैं और अनेक भवों में प्राप्त किये हैं, जिनसे आत्मा का हित होना तो दूर रहो, पर तृष्णा, मूर्छा, ममता बढ़-बढ़कर इस परिग्रह के ही कारण संसार में रुलना पड़ता है। ऐसा विवेक जगता है तपस्वी पुरुषों के संग में रहकर तो जो शुद्ध तपश्चरण में बढ़े हों उन्हें वृद्ध कहते हैं, ऐसे वृद्धों की सेवा करना प्रशंसनीय है।
मनुष्य के आचरण से संगति का परिचय- मनुष्य के आचरण से सोहबत की पहिचान हो जाती है और सोहबत से मनुष्य के आचरण की पहिचान हो जाती है। सत्संग जीव के उद्धार का एक बहुत बड़ा आलंबन है। विषयकषायों के भोगने में ही तो जीव को कुछ लाभ नहीं है ना। ऐसे संग से क्या लाभ जिसमें क्रोध, मान आदिक कषायों का पोषण हो। ऐसा जीवन तो बेकार है। समझिये वृक्ष तो फल प्राप्त करके झुक जाता है, नम्र हो जाता है और मनुष्य पुण्यफल पाकर, संपदा पाकर और ऊँची नजर करता है तो क्या कहा जाय उस मनुष्य को? वह तो वृक्ष से भी पतित है। भला जो अभिमान के वश है, मायाचार के वश है, तृष्णा के वश है ऐसे पुरुष का जीवन क्या जीवन है? जीवन तो वही सही है, जो भविष्य में भी सुख शांति का कारण बने।
सुख के प्रकार- सुख दो प्रकार के होते हैं- एक वैषयिक सुख और एक आत्मीय सुख। जो वैषयिक सुखों को ही सुख मानते हैं- विषयसेवन किया, स्वादिष्ट भोजन किया, बाह्य पदार्थों का संचय कर लिया, किसी सुंदर रूप को निहारते रहे, राग रागिनी से प्रेम बढ़ाने वाले, कामव्यथा बढ़ाने वाले शब्दों को सुनते रहे ऐसे विषयों में जो सुख मानता रहे वह तो उसका भ्रम का सुख है। वे सुखाभास हैं, फिर भी सदा रहते नहीं और ऐसे सुख भोगने से आत्मीय बल हीन होता है तो अंत में पछतावा ही हाथ रहता है। वैषयिक सुखों में मग्न रहने का फल भला नहीं है। और, वैषयिक सुखों से हटकर जो आत्मीय सुख में लगता है वह तो ज्ञानप्रकाश में है, जो वैषयिक सुखों में ही भूल रहा है वह भ्रम में है। जो लोग इन वैषयिक सुखों में लगते हैं उनका ही तो यह संसार है। ऐसी श्रद्धा होना चाहिए कि मेरे आत्मा का जो सहज सुख है वही मेरा वास्तविक सुख है, उस ही सुख का भोगना हमारा कर्तव्य है। ऐसी समझ यदि बने तो समझिये कि हम सही ज्ञान के मार्ग पर हैं।
विषयसुखों की क्लेशरूपता- भैया ! विषय सुख भोगने के बाद फिर तुरंत तो अरुचि हो ही जाती है, और बाद में वह पछतावा भी करता है। भोजन की स्वाद लेने में अभी तक अपना जीवन बिताया, पर तत्त्व की बात उसमें क्या मिली सो बताओ? इसी प्रकार सभी विषय सुखों की बात है। और उन विषय सुखों का भी क्या करें? आज पंचेंद्रिय हैं तो उन पाँचों इंद्रियों के विषय भोग रहे हैं, मरण करके यदि चार इंद्रिय जीव बन गए तो आँख तक का ही विषय रह गया। तीन इंद्रिय बन गए तो घ्राणइंद्रिय तक का ही विषय रह गया। और, इन विषय सुखों का कुछ विश्वास भी है क्या? तो इन वैषयिक सुखों में सार नहीं है। इन सुखों के बीच परस्पर में दौड़ मचाना, विवाद करना, दु:खी होना, एक दूसरे को सताना यह कहाँ तक न्याय की बात है? उदारता का आदर करें। किसी का यदि कुछ अधिक प्राप्त होता हो या हमारा कुछ जाता हो तो जितना हम सहन कर सकते हैं सहन कर लें और दूसरों को यदि हमारे थोड़े से त्याग से सुख मिलता है तो उसमें भी हम अपना आनंद मानें।
विनश्वर विषयसुखों से परांगख होने में लाभ- ये जगत के विषयसुख न साथ आये न साथ जायेंगे। बड़े-बड़े महाराजा चक्री हुए हैं वे भी इसे छोड़कर गए। और आँखों सब देखते ही हैं, सभी लोग इस वैभव को छोड़कर चले जाते हैं। हम आप सबका भी ऐसा ही हाल है। ये सब कुछ तो प्रकट न्यारे है, वैसे ही सब छूटे हैं, और वियोग तो होगा ही। यह नियम है कि जिस पदार्थ का संयोग हुआ है उसका वियोग नियम से होगा। अब हम चाहे ज्ञान विवेक बनाकर उसे अपने आप छोड़ दें, अन्यथा छूटना तो सब ही है। चाहे त्याग दें या पाप उदय में आने से यह संपदा हमारे जीवन में ही छूट जाय, अथवा मरण हो जाने पर यों ही छूट गया, इन तीन प्रकारों में से किसी भी प्रकार छूटे, पर संपदा छूटेगी सबकी। मरकर छूटे तो उस छूटने से लाभ क्या और हमारे जीते जी किसी के लूटने से या किसी प्रकार छूट जाय तो उस छूटने से लाभ क्या? देखिये जब तृष्णा अधिक बढ़ती है, तो कुबुद्धि भी बढ़ती है, और कुबुद्धि के कारण ऐसा वातावरण बन जाता है कि हाथ आयी हुई चीज भी नष्ट हो जाती है। यों तो छूटने से कुछ लाभ नहीं। कुछ विवेक बनायें और अपने जीवन में अपने ही हाथों से, अपनी ही भावना से परपदार्थों का त्याग करते रहें तो पुण्यबुद्धि होती है, धर्म प्राप्त होता है और इस जीव को भविष्य में भी सुख समागम प्राप्त होता है।
सांसारिक सुखों में स्वतंत्रता का अभाव- संसार के जितने भी सुख समागम है अथवा जितने सुखसाधन मिलते हैं उन सबका भाग्य के साथ अनुविधान है, और यह जीव कुबुद्धि से हटकर अपने स्वभाव में आकर समस्त कर्मों का नाश कर दे और मोक्ष प्राप्त कर ले उसमें पुरुषार्थ की प्रधानता है। तो जो बात कर्माधीन है अन्य-अन्य कारणों से उत्पन्न होती है ऐसी संपदा के लिए हम क्यों चिंतातुर रहें, पुरुषार्थ करके जो लाभ होता हो उसमें संतुष्ट होने का प्रयत्न करें। और, उसमें भी कुछ त्याग करके दूसरों को दे करके यदि किसी को हम सुखी कर सकते हैं, किसी को दु:खी कर सकते हैं तो उसका भी अपने मन में संकल्प रखें, ऐसी उदारता होने पर यह जीव इस लोक में भी संतुष्ट रह सकता है। तो ये सब बुद्धियाँ हमारे प्रकट हों, उसके लिए हमें गुरुसेवा चाहिए। सत्संग से ये सब विवेक जगते हैं। बुद्धि भ्रष्ट न हो पाये, यह सबसे बड़ी विभूति है। कल्पना करो कि कितना भी वैभव हो और बुद्धि चलित हो जाय, दिमाग वश में न रहे तो वह समागम किस काम का? उस विचलित आत्मा को तो शांति है नहीं। तो सबसे बड़ी विभूति बुद्धि का स्वस्थ रहना है। स्वस्थ बुद्धि वह कहलाती है कि जहाँ यह ज्ञान बना रहे कि यह बात हित की है और यह बात अहित की है। ऐसा भान जिस बुद्धि में बन रहा है उसे स्वस्थ बुद्धि कहते हैं। यह स्वस्थता गुरुसेवा से प्राप्त होती है। सत्संग से यह शांति संपदा प्राप्त होती है।
वृद्धसेवा से हेयहान की और उपादेयोपादान की सुगमता- जो तपस्या में बढ़े हुए हों वे वृद्ध कहलाते हैं। उन वृद्धों की सेवा प्रशंसनीय है। जो ज्ञान में बढ़े हैं उनका नाम वृद्ध है, केवल अवस्था में बढ़ जायें और बाल भी सफेद हो जायें ऐसे वृद्धों को वृद्ध नहीं कहते, किंतु जो गुणों में बढ़े हों, उन्हें वृद्ध कहते हैं। ज्ञान वही बढ़ा हुआ कहलाता जो ज्ञान अपने आपकी समझ बनाये कि यह मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, दुनिया के समस्त पदार्थों से न्यारा हूँ, मेरा अन्य पदार्थों से कुछ संबंध नहीं है। मैं केवल ज्ञान का धनी हूँ और बिगड़ जाऊँ तो कल्पनाओं का धनी हूँ। इसके सिवाय मैं अन्य कुछ नहीं करता ऐसा जिनके विवेक जगा है वे वृद्ध मनुष्य है, उनकी सेवा करने से बुद्धि स्वस्थ रहती है। जो धैर्य के अधिकारी हैं उनकी सेवा से बड़ी शिक्षा मिलती है। एक मनुष्य चाहे वह गृहस्थी में हो, यदि वह धीर है, सोचकर बोलने वाला है, बड़ी बात का आदर करता है, तुच्छ विचार नहीं रखता ऐसे धीर गंभीर मनुष्य के पास आप बैठें तो आप पर भी कुछ असर होगा, अधीरता दूर होगी, धीरता का गुण आने लगेगा। तो जो मनुष्य धीर हैं वे वृद्ध है, गुरु हैं, उनकी सेवा से हममें भी गुण प्राप्त होने लगते हैं। जो मनुष्य आत्मा के ध्यान का उद्यम करते हैं, जिन्हें संसार, शरीर, भोग नहीं रुचते हैं ऐसे आत्मकल्याणार्थी संत मनुष्य कहीं मिलें तो सही, उनके सत्संग में बैठे तो अनुभव करेंगे कि बुद्धि कितना स्वस्थ होती है? हम शुद्ध सत्संग से निज मार्ग के अनुरागी बन जायेंगे। तो जो आत्मध्यानी मनुष्य हैं वे संत हैं, गुरु हैं, उनकी सेवा से हमारी बुद्धि स्वस्थ रहेगी।
सत्संगमें आत्मा की भलाई- जो मनुष्य विवेकी हैं, हित अहित का विवेक रखते हैं, अपने द्वारा किसी को कष्ट न हो ऐसा जिनके विवेक रहता है ऐसे मनुष्यों का संग अनेक गुणों को उत्पन्न करता है। जो व्रत संन्यास से रहते हैं, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पापों का जिन्होंने त्याग किया है, जो किसी भी जीव की हिंसा स्वप्न में भी नहीं चाहते हैं, अपने इंद्रिय के विषयों की ओर आसक्त नहीं रहते हैं, इंद्रिय की आज्ञा के दास नहीं रहते हैं ऐसे पुरुषों का संग अर्थात् सत्संग एक श्रेष्ठ संग है। सत्संग से अनेक गुणों की प्राप्ति होती है। यदि हमें अपनी भलाई करना है तो सत्संग में अधिक रहें। नगर में रहकर भी, गृहस्थी के बीच रहकर भी गृहस्थी में जो सत्पुरुष हों, जो अपने विचार ऊँचे रखते हों, जो दूसरों की भलाई की ही बात सोचते हैं ऐसे गृहस्थ तो आपके गाँव में भी मिलेंगे। ढूँढ़ने लगो। प्रत्येक गाँव के लोग यह अनुभव करते हैं कि हमारे यहाँ सत्संग नहीं है, पर सत्संग मिलेगा प्रत्येक गाँव में। चार पाँच प्रतिशत लोग ऐसे मिल जायेंगे जिनके भाव बड़े सुलझे हुए हैं, वे माया को ही अपना सब कुछ नहीं मानते हैं किंतु शुद्ध विचार, शुद्ध आचरण, आत्मा की उन्नति को ही अपना सर्वस्व मानते हैं ऐसे पुरुष प्रत्येक गाँव में मिलेंगे। उनका संग बनायें, उनकी आज्ञा में रहें। किसी भी समय में कोई विचार करना हो अथवा किसी विवाद में उलझ गए हों उनका सहारा लें, अपने को कुछ हानि हो जाय तो बाह्य पदार्थों के प्रति, धन आदिक के प्रति विह्वल न हों, किंतु तत्त्वज्ञान का सहारा लें और तब शांति उत्पन्न होती हो तो उसे सब कुछ मानें। ऐसा यदि भाव बन जाय प्रत्येक गृहस्थों में, तो देखिये कितना प्रेम का साम्राज्य छा जाता है।
लौकिक संपदा के संगकी अहितकारिता- भैया ! यह संपदा तो पुण्य की दासी है। जैसे छाया मनुष्य के पीछे-पीछे फिरती है। कोई मनुष्य छाया को पकड़ने के लिए बढे़ तो छाया दूर भागती है, पकड़ने में नहीं आती। और, मनुष्य अपनी छाया से मुख मोड़ ले और आगे बढे़ तो छाया उसके साथ-साथ चलती है, ऐसा ही इस संपदा का हाल है। जो मनुष्य तीव्र अभिमानी हैं, संपदा की ही माला जपते रहते हैं ऐसे मनुष्य के संपदा दूर भागती है और जो संपदा से मुख मोड़ लेते हैं, उसकी उपेक्षा कर देते हैं, अपने विचार आचरण से ही प्रेम रखते हैं ऐसे मनुष्यों के पुण्यफल बढ़ता है। अपना लक्ष्य होना चाहिए शांति का। जिसका शांति का लक्ष्य होगा उसे सब ज्ञान आयेगा और जिसे केवल सांसारिक सुखों का लक्ष्य ही होगा उसके शुद्ध ज्ञान नहीं जग सकता। आत्मा की स्वच्छता तो शुद्ध ज्ञान से होती है, संपदा के संचय से नहीं होती। तो ये सब बातें प्राप्त करने को हम वृद्धों की सेवा करें, गुरुजनों की सेवा करें, सत्संग से अधिकाधिक लाभ लें।