वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 772
From जैनकोष
न हि स्वप्नेऽपि संजाता येषां सद्वृत्तवाच्यता।
यौवनेऽपि मता वृद्धास्ते धन्या: शीलशालिभि:।।
शीलशाली वृद्ध जनों का हितोपदेश- जिनके सदाचरण स्वप्न में भी कभी मलिन नहीं होते ऐसे मनुष्य यौवन अवस्था में भी वृद्ध कहलाते हैं। ऐसे शीलवान महापुरुषों ने बताया है, मनुष्य जन्म में एक सदाचार की बड़ी विशेषता है। यदि सदाचार ही न हो तो फिर मनुष्य में और पशुवों में कुछ भी अंतर नहीं है। सदाचार अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार मनुष्यों में भिन्न-भिन्न श्रेणीरूप है, जैसे उन मनुष्यों का सदाचार जिनके कुलपरंपरा से शिकार खेलना, मांसभक्षण मदिरापान करना और सभी ऐब यों कहो कि जिनका जीवन पशुवत् परंपरा से चला आ रहा है ऐसे मनुष्यों का सदाचार कम से कम इन 8 बातों में है कि वे मांस, मदिरा, शहद तथा बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, अंजीर आदिक फलों का त्याग करें, जिनमें साक्षात् चलते-फिरते त्रस जीव रहते हैं। यह बहुत प्रारंभिक सदाचार है और इसका उपदेश उनको दिया जाता है जो परंपरा से सर्वप्रथम से भ्रष्ट आचार में रहे हैं। ये अष्ट मूल गुण के नाम से प्रसिद्ध हैं और उन नीच आचार विचार वालों के लिए यह सदाचार बताया है और जो मनुष्य कुछ थोड़ा बहुत परिपाटी से विवेक में चल रहे हैं लेकिन अत्यंत थोड़ा विवेक है ऐसे मनुष्यों के सदाचरण इन बातों में प्रारंभ होता है। उतना तो आचरण हो ही जितना कि कम से कम और अधम मनुष्यों के लिए बताया गया है उन्हें तो 7 व्यसनों का त्याग होना यह उनका सदाचरण है।
द्यूतक्रीडा के त्याग का कर्तव्य- जुवा खेलना, यद्यपि लोग दिल बहलावा से इसे शुरू करते हैं, लेकिन इनके व्यसन बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक बढ़ते जाते हैं कि अपनी संपदा तक को भी दाव पर लगा देते हैं, पर जिनके जुवे का व्यसन हो गया वे जीते भी हारे हैं और हारे तो हारे ही हैं। जुवा खेलने के व्यसन में जिनकी कुछ धुन बनी है ऐसे पुरुषों को बड़ा मानना पड़ता है कि अनेक विपदायें आने पर भी वे जुवा का परित्याग कर सकें और कदाचित् तृष्णावश ही सही किसी के मन में आ जाय कि अब इसे छोड़ दें, जो कुछ थोड़ा सा पल्ले रह गया है, उसकी ही रक्षा कर लें तो अन्य जुवारी लोग उसे ऐसी अपमान भरी बात कहने लगते हैं कि उसे जुवे से हटना कठिन हो जाता है। तो सदाचार की बात में एक यह भी सदाचार है कि जुवा खेलने का परित्याग करें। इससे बरबादी ही है और मन की अत्यंत अस्थिरता है, चित्त कहीं भी लगता नहीं है, पैसा लगाकर जुवा खेलने की बात तो अधम ही है, किंतु केवल तास के पत्तों को ही बिना पैसों का दाव लगाये जो खेल खेलने में लग जाता है वह भी समय पर भोजन नहीं करता, ऐसे मित्रों की खोज करता है जो तास खेलने में साथ देंगे, और-और प्रकार से वह अपने समय को बरबाद कर देता है। आवश्यक कामों से भी मुख मोड़ लेता है।
मांस मदिरा के त्याग का कर्तव्य- दूसरा सदाचार है मांस भक्षण का परित्याग करना। मांस भक्षण में भी सभी ऐब आ जाते हैं। हिंसा में तो दोष लगा ही हैं। मांस किसी जीव के घात के बिना उत्पन्न नहीं होता। तो जो मांसभक्षण करते हैं उन्हें जीव घात का पाप तो लगा ही है, साथ ही मांस में चाहे वह कच्चा हो, चाहे पक गया हो, जल्दी का हो या पुराना हो उसमें सतत् असंख्याते जीव उत्पन्न होते रहते हैं, जो इतने सूक्ष्म हैं कि आँखों दिख नहीं सकते। उसमें हिंसा का भी बहुत बड़ा पाप बसा हुआ है। और, फिर मांसभक्षण में बुद्धि भी धर्म में लगाने लायक नहीं रहती। तीसरा सदाचार है मदिरा त्याग करना शराब, गांजा, चरस, भंग इत्यादि विशेष बेहोश करने वाले पदार्थ हैं ही। और, भी जो यद्यपि कम मादक हैं लेकिन जिनकी आदत बनने पर शरीर का स्वास्थ्य भी बिगड़ता है और व्यर्थ का उपयोग भटकता है, जैसे तंबाकू खाना पीना, पान, बीड़ी, सिगरेट आदि खाना पीना ये सब व्यसन हैं। इनका परित्याग होना यह भी साधारण गृहस्थ जनों का सदाचार है।
चोरी के परित्याग का कर्तव्य- चौथा सदाचार है चोरी का व्यसन न होना। अपने आपमें कितना स्पष्ट और न्यायप्रिय रहता है सदाचारी कि वह परधन को चाहे गिरा हो, पड़ा हो, भूला हो उसके हरण करने की भावना मन में नहीं रखता। यह संसार ही सारा असार है। ये सारे समागम इस जीव का अहित करने वाले है। किसी भी समागम से जीव का हित संभव नहीं है, स्पष्ट दिखता है लेकिन प्रथम तो कोई किसी का होता नहीं। कल्पना में मान लिया कि यह मेरा पदार्थ है। लोकव्यवस्था भी कुछ-कुछ ऐसी है, लेकिन विवेकपूर्ण विचार से देखो तो जगत में अनंत जीव हैं, उनमें से कोई जीव तुम्हारे घर में उत्पन्न हो गए। यदि वे जीव तुम्हारे घर में न आये होते, कोई अन्य जीव तुम्हारे घर में पैदा हो गए होते तो उन्हें अपना मान लेते कि नहीं? तो जिस चाहे को कल्पना से मान लेते कि यह मेरा है। फिर दूसरी बात यह है कि अन्याय करके, झूठ बोलकर, व्यग्र बनकर, चिंतावों में घुलकर धन का संचय किया और अंत में मरण हो गया, वह यहाँ का यहाँ ही पड़ा रहा, खुद के लिए तो कुछ मददगार नहीं हुआ। रही दूसरों की बात तो दूसरे तो सब भिन्न हैं। जिन्हें आप अपना परिजन मानते, जिनके पीछे आप चिंताएँ रखते वे सब भी अपना-अपना भाग्य लेकर आये हैं। अपनी-अपनी भाग्य के अनुसार, योग्यता के अनुसार, अपनी बुद्धिबल से उन्हें भी सब कुछ प्राप्त होता रहता है, उनके पीछे चिंताएँ रखने से, व्यग्र रहने से इस अमूल्य नरजीवन को खो डालना यह तो विवेक नहीं है, संतोषवृत्ति से रहकर प्रभुभक्ति और आत्मध्यान इनमें प्रगति करना सो तो विवेक है, इसके विपरीत चिंतावों में मग्न रहना, अपने को परेशान बनाये रहना, दु:खी अनुभव करना यह विवेक नहीं है। परधन को जो चाहते हैं कि किसी भी प्रकार से मेरे पास आ जाय तो उसमें भी दयाहीनता का दोष लगा। सब वैभव मेरे पास आ जायें इसमें यह बात पड़ी हुई है कि और लोग चाहे कैसे भी रहें पर मेरे पास खूब धन आ जाय, तो इसमें दयाहीनता का दोष लगा। कर्तव्य तो अपना यह है कि गृहस्थी के नाते औसतन पुरुषार्थ करें और उसमें जो न्यायनीति से कमाई हो उसमें अपने कुटुंबियों का पालन-पोषण करें। जिन जीवों के चोरी का व्यसन लग गया है उनके चित्त में धर्म की पात्रता कहाँ से होगी? तो गृहस्थजनों का सदाचार है कि चोरी का परित्याग करें।
आखेट, परस्त्रीगमन व वेश्यागमन के परित्याग का कर्तव्य- एक शिकार खेलने का भी व्यसन होता है, उसका त्याग करना भी सदाचार है। निरपराध पशु-पक्षियों के प्राण लेना इसमें बहुत बड़ा अपराध है। किसी जीव को मारकर उसमें अपनी बहादुरी समझना इसमें कितना उस मारने वाले का उपयोग भटक गया। शिकार खेलने का परित्याग यह सदाचार है। यह दूसरी स्थिति का सदाचार कह रहे हैं। पहिले तो निम्न श्रेणी वाला सदाचार बताया था, उसके बाद द्वितीय श्रेणी के अविरत मनुष्यों का सदाचार कह रहे हैं उनका सदाचार है परस्त्रीगमन का त्याग करना अथवा स्त्रीजनों की ओर से परपुरुष का त्याग करना। परस्त्रीसेवन में चिंता, व्यग्रता, निर्दयता, कायरता ये सभी ऐब आ जाते हैं। प्रथम तो परस्त्री है। कुछ कामी मनुष्य के अधीन तो है नहीं। सो हर समय मिलना तो असंभव है, कभी गुप्त रूप से चोरी से अनेक यत्न करके मिलन होता है सो शेष समय मिलने का निरंतर चित्त बना रहता है और हृदय में कामव्यथा निरंतर बनी रहा करती है और ऐसी स्थिति में वह धर्मध्यान क्या कर सकता है, और फिर लौकिक आपत्तियाँ कितनी हैं, बुद्धि सब भ्रष्ट हो जाती है, चिंता है और खोटी बात के लिए व्यग्रता है। वहाँ बुद्धि सही काम कैसे कर सकती है? तो परस्त्रीगमन का त्याग करना यह है, गृहस्थजनों का सदाचार। और, सप्तम व्यसन बताया है वेश्यासेवन। यद्यपि निर्लज्ज होकर लाज छोड़कर जो मनुष्य वेश्यागमन का पाप अपने में लादते हैं उनको परस्त्री की तरह यह तो भय नहीं कि कोई जान जायेगा तो हमारी जान ले लेगा, लेकिन जो मायाचार करके सभी मनुष्यों के साथ दुराचार कर सकती है ऐसी वेश्या के प्रति जो भाव रहता है, आकर्षण रहता है उसमें वह कितना पतित हो जाता है? धर्म का वह पात्र कहाँ है?
तृतीय प्रकार से श्रावकों के आठ मूलगुण- 7 व्यसनों का परित्याग करना यह द्वितीय श्रेणी का मौलिक सदाचार है, इसके पश्चात् जो कुल परंपरा में जो उज्ज्वल आचरण वाले चले आये हैं, जिनमें धर्म की परंपरा भी चली आयी है उनके सदाचार में कुछ बातें बढ़ती जाती हैं। इतनी बातें तो होती ही हैं, पर साथ ही धार्मिक कार्यों की प्रवृत्ति भी बढ़ जाती है। जैसे प्रभुभक्ति में अपना चित्त लगाना, देवदर्शन करना, जीवदया में कुछ आगे प्रगति करना, रात्रिभोजन का त्याग करना, जल छान कर पीना, ये प्रवृत्तियाँ उनके लिए सुगम ही बढ़ जाया करती हैं। रात्रिभोजन में हिंसा का दोष है। अब धर्मरुचि घट जाने से लोग रात्रिभोजन करने लगे हैं, पर कोई समय था ऐसा जिसमें रात्रिभोजन करने वालों को निश्चरों जैसा मानते थे। साथ ही यह भी देखिये कि भोजन की आसक्ति दिन में भी रहे, रात्रि में भी रहे तो फिर चित्त को विराम कब मिले? और फिर धर्मकार्यों के लिए भी उनका समय नहीं निकल पाता। जिन लोगों के यहाँ रात्रिभोजन करने का रिवाज नहीं है, सूर्यास्त से पहिले ही भोजन कर लेते हैं उनके पास धर्म करने, धर्मोपदेश सुनने, चर्चा, व्याख्यान सुनने आदि का समय खूब मिल जाता है और जो लोग रात्रि भोजन करते हैं, उन्हें कहाँ इन बातों के लिए समय मिल पाता है? तो अनेक जीवदया संबंधी बातें इन तृतीय श्रेणी वाले गृहस्थों में और हो जाया करती हैं।
अणुव्रतों के उत्तरोत्तर विशेषतया पालन का कर्तव्य- कुछ विशेष वैराग्य जगने पर श्रावकों के कर्तव्य में पंच अणुव्रतों का पालन आ जाता है, अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्यअणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणअणुव्रत आदि ये सदाचार और बढ़ जाते हैं। इससे ऊपर जो गृहस्थजन धर्ममार्ग में चलते हैं फिर उनका प्रतिमारूप आचरण चलने लगता है जिसे श्रावक के 11 दर्जे कहते हैं। उन सब दर्जों में उत्तरोत्तर त्याग की विशेषता है। जितना परपदार्थों से उपेक्षा बढ़ती जायगी उतना ही आचरण अहिंसक बनता जायेगा। यों श्रावकों में उच्च दर्जों तक क्षुल्लक अथवा ऐलक पद के आचरण रहते हैं। जहाँ केवल एक दो कपड़ों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी परिग्रह की आवश्यकता नहीं रहती, और भोजन भी एक बार नियमित करके संतुष्ट रहते है तो यह उपेक्षा की ही तो बात है और अपना शेष समय स्वाध्याय में, चर्चा में, पठन में, लेखन में, ध्यान में बिताया करते हैं। यहाँ तक बात कही है निम्नश्रेणी के पुरुषों से लेकर उच्च श्रावकों तक के सदाचार की।
नैर्ग्रंथ्य परम आचार- श्रावकों के आचरण से ऊपर जो और उत्कृष्ट सदाचार चलता है वह है संत पुरुषों का। जो समस्त प्रकार के परिग्रहों का पूर्ण त्याग कर देते हैं यहाँ तक की ऐसी करुणा की मुद्रा बन जाती है कि वस्त्र आदिक से भी जिनका प्रयोजन नहीं रहता। नग्न दिगंबर साधु संतों का आचरण एक सर्वोत्कृष्ट आचरण है। कुछ लोग ऐसा सोच सकते हैं कि यह कैसी वृत्ति है कि नग्न हो गए लेकिन सोचिये तो सही उसकी दृष्टि से, जिसको आत्मतत्त्व का इतना उच्च परिज्ञान हो गया है कि जिसको अब परवस्तुविषयक विकल्प ही नहीं है, कामवेदना जैसी बात ही नहीं चलती उन पुरुषों का नग्न दिगंबर हो जाना यह निर्विकारता की सूचना देता है, कितना विकार विजयी हैं जिनमें रंच भी काम संबंधी विचार नहीं उत्पन्न होता ऐसे ही पुरुष नग्न हो सकते हैं। यह बहुत ऊँचा तपश्चरण है, साथ ही करुणा की मुद्रा है। जब कि कोई कहे संन्यासी लाठी, चिमटा, त्रिशूल आदि लिए रहते हैं, अपना भयंकर भेष बना लेते हैं। उनसे लोगों को यह भय रहता है कि कहीं हमसे कोई अविनय संबंधी बात बन जाय तो त्रिशूल, लाठी वगैरह मार न दें। और, नग्न दिगंबर साधु के हाथ में पिछी है जो आँखों में कुछ जाय तब भी वह पीड़ा नहीं देती। एक कमंडल पास में रखे हैं जो शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्धिक्रिया के लिए रखते हैं। ऐसी नग्न दिगंबर शांत मुद्रा को देखकर किसी को भी भय नहीं उत्पन्न होता। जब उनके पास किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं है तो उनसे मार देने की शंका किसी को उत्पन्न ही नहीं हो सकती। यों समझ लीजिए कि जिसे पता है कि यह सर्प विषरहित है तो उससे वह भय नहीं करता। ऐसे ही जो नग्न दिगंबर साधु कुछ भी हथियार आदिक नहीं रखता उससे किसी को भय कैसे उत्पन्न हो सकता है? वह एक सदाचार की ऊँची स्थिति है।
नैर्ग्रंथ्य आचरण में 28 मूलगुणरूप वृत्ति- जब गृहस्थों से भी ऊपर उठकर सदाचार की बात आती है तो वह द्विज कहलाने लगता है। यों समझिये कि उसका दूसरा जन्म हो गया है जिसने परिग्रह का पूर्ण त्याग कर दिया उसका तो दूसरा जन्म है। जैसे कोई मनुष्य मर जाय और दूसरा जन्म ले ले तो अब पूर्वजन्म का न संस्कार, न वासना, न परिचय, न समता ये कुछ भी नहीं है, क्योंकि दूसरा जन्म हो गया है। पूर्वजन्म से अब उसका कुछ संबंध नहीं रहता, इस प्रकार जो गृहस्थ समस्त परिग्रहों का त्याग करके संन्यास धारण करता है उसका अब दूसरा जन्म हो गया है। पुरानी बातों का अब उसके संस्कार नहीं रहता। उसका आचरण है 28 मूल गुणरूप अर्थात् 5 इंद्रिय और छठा मन, इन दो के विषयों में नहीं लगता। देखिये यह कितना ऊँचा आचरण है? इसमें परदया यह है कि किसी दूसरे जीव के सुख में रंच भी बाधा नहीं डाला और स्वदया कितनी है कि विषयों में अपना उपयोग लगेगा तो स्वयं आत्मध्यान से दूर हो जायेंगे। और, वहाँ खोटे कर्मों का ही बंध होगा। तो इन विषयों से अपने को दूर रखना यह उनका सदाचार है। 5 महाव्रतों का पालन पूर्णरूप से अहिंसा है। कोई चोर, बदमाश, डाकू, शत्रु अगर हमला भी करे तो उस पर भी उसे शत्रु समझकर उससे बदला लेने का भाव मन में न आने देना, यह है उनका उत्कृष्ट सदाचार। इससे पहले गृहस्थावस्था में इतनी अहिंसा न बनती थी। कोर्इ विरोधी लड़ने के लिए आये तो उसका मुकाबला करते थे और हिंसा भी हो जाय दूसरे की तो उसे विरोधी हिंसा मानी जाती थी, संकल्पी नहीं, लेकिन अब संन्यास धारण करने पर इतना उच्च सदाचार हो गया। सर्वप्रकार हितकारी सत्य वचन बोलते, अत्यंत निर्जन वन में रहते, अचौर्यमहाव्रत के उच्च आदर्श हो जाते, संसार की स्त्रीमात्र के प्रति पूर्ण ब्रह्मचर्य है। परिग्रह का पूर्ण त्याग है। देखकर चलना, जमीन में पड़े हुए जीवों को बाधा न हो, बोलें तो हित मित प्रिय वचन बोलें, कुछ भी चीज धरें उठायें तो देखभालकर धरते उठाते हैं। मलमूत्र, पसीना, नाक, थूक वगैरह का क्षेपण करते हैं तो ऐसी जगह देखभालकर करते हैं कि जहाँ कोई जीवजंतु न हो। यों उनका सदाचार रहता है और उससे भी ऊँचा आचरण साधु संतों का यह है कि ऐसा मन बनता कि जिसमें किसी परपदार्थ का उपयोग ही न जाय, और वचनों का परित्याग करना, पूर्ण मौन से रहना, शरीर हिले डुले नहीं, बैठे हैं तो ऐसे ही स्तब्ध और लेटे है तो बिल्कुल काठ की तरह ऐसा निश्चल शरीर बना, ये सब उच्च आचरण होते हैं। तो इस श्लोक में कहा यह जा रहा है कि जो मनुष्य अपनी पदवी के अनुसार अपने आचरण में जवानी की अवस्था में भी नहीं गिरता है वह मनुष्य धन्य है। बुढ़ापा आने पर इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और उनमें भोग उपभोग नहीं बन पाते हैं, विवश होकर उन्होंने त्याग किया तो उसमें मानसिक विशेषता नहीं आयी, किंतु जवानी अवस्था में भी जो काम के वेग से दूर रहते हैं और दुराचारों से दूर होते हैं वे पुरुष धन्य हैं और महात्माजनों ने उन पुरुषों की महिमा गायी है। वे ही वृद्ध है। ऐसे पुरुषों की सेवा करना उनकी सत्संगति में रहना ये सब लाभदायक बातें हैं। हम आप सबको सत्संग की बहुत खोज रखना चाहिए। हमारा संग व्यसनी पापीजनों का न बन जाय और हमारा भाव पतन की ओर न मुड़ जाय ऐसा सत्संग बनाने का यत्न करना यह अपना परम कर्तव्य है।