वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 777
From जैनकोष
कदाचिद्दैववैमुख्यान्माताऽपि विकृतिं भजेत्।
न देशकालयो: क्कापि वृद्धसेवा कृता सती।।
दुर्लभतम वृद्धसेवा का लाभ लेने की प्रेरणा- अनादिकाल से विषयविकारों से मलिन यह आत्मा अनेक दुर्गतियों में जन्म लेता है और मरण करता है। यों जन्म मरण के चक्र लगे हुए इस जीव ने जो सुयोग से मनुष्य देह प्राप्त किया वह मनुष्यदेह मिलना अतीव दुर्लभ है। मनुष्यजन्म की दुर्लभता की बात प्राय: सभी जानते है। इस जीव का आदि निवास जो कि अनादिनिवास है, निगोद रहा, जहाँ ज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो शून्य सा कह सकते हैं। केवल एक इंद्रिय, वह भी नहीं दिखती है, न उनका शरीर विशाल है, किंतु नाममात्र का एक इंद्रिय से ज्ञान हो रहा है, ऐसे निगोद भव से निकलकर यह जीव अन्य स्थावरों में जन्म लेता है और फिर कठिनाई से दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय में, यों विकलत्रय में जन्म लेता है। उत्तरोत्तर कितने दुर्लभ है ये स्थान? इससे अंदाज कर लें कि यह ज्ञानमय जीव कहाँ तो केवल एक स्पर्शमात्र से कुछ जानता रहता था अब यह रसना इंद्रिय से भी ज्ञान करने लगा। दो इंद्रिय जीवों में रसना इंद्रिय भी उत्पन्न हुई, रस का ज्ञान करने लगा तो केवल एक इंद्रिय के भव में जिस प्रकार का ज्ञान था उस ज्ञान से कितना विशाल ज्ञान बन गया कि इस रस का भी ज्ञान होने लगा। फिर घ्राण इंद्रिय भी मिली तो सुगंध दुर्गंध का भी ज्ञान करने लगा। चक्षुइंद्रिय मिली तो सब कुछ दिखने लगा। मक्खी, मच्छर, भंवरा, ततैया इनको आँखों से दिखता है। तो कीड़ा-मकौड़ा की अपेक्षा कितनी श्रेष्ठता इनमें रहती है। इसके बाद बड़ी दुर्लभता से यह जीव पंचेंद्रिय बना। पंचेंद्रिय में भी असैनी बना तो वहाँ भी कौनसा हित प्राप्त किया? सैनी पंचेंद्रिय में भी मनुष्य जो उत्कृष्ट मन वाला है। जिसमें विवेक की अधिकता रहती है, जहाँ से संयम धारण करके मुक्ति प्राप्त की जा सकती है ऐसे मनुष्यभव में हम आपने जन्म लिया और मनुष्यभव पाकर भी हितकारी शासन न मिले, विषयकषायों से दूर हटने के लिए बुद्धि प्राप्त न हो तो ऐसे मनुष्यभव से भी लाभ क्या होता है? तो ऐसा दुर्लभ जैन शासन भी पाया, अब जो उन्नति के लिए हम कदम बढायें। उन सब कर्तव्यों में प्रधान और प्रथम कर्तव्य है वृद्धसेवा। जो ज्ञान, तपश्चरण, संयम में बढ़े हुए हैं ऐसे संत पुरुषों की संगति करना, उनकी सेवा उपासना करना वृद्धसेवा है। जो पाप बड़े-बड़े तपश्चरण से दूर किए जा सकते हैं वृद्ध संत पुरुषों के समागम में उनके दर्शन मात्र से ऐसा अद्भुत आत्मा में प्रभाव बढ़ता है कि भव-भव के संचित विकार भी नष्ट हो जाते हैं।
वृद्धसेवा में अलाभ के संदेश का अभाव- यह वृद्धसेवा अर्थात् संत पुरुषों की संगति ज्ञानी विरक्त संतपुरुषों की उपासना यह माता के समान हितकारिणी है। कदाचित् भाग्य विमुख हो, उदय प्रतिकूल हो तो माता भी पुत्र का अहित चाहने वाली बन जाय, पर वृद्धसेवा संतपुरुषों की संगति यह कभी अहित में ले जाने वाली नहीं होती है। इस जीव का सर्वोत्कृष्ट शरण है आत्मा का ध्यान। ध्यान तो सबके लगा है। अब यह ध्यान कहाँ ले जायें, किस ओर लगायें कि आत्मा को शांति प्राप्त हो? खूब अनुभव भी किया हो, परिजनों में, वैभव में, प्रतिष्ठावों में किन्हीं भी परतत्त्वों की ओर ध्यान लगाया जाय तो वहाँ धोखा ही धोखा मिलता है, आत्मा को लाभ की बात कुछ नहीं मिलती। लाभ तो वह है जहाँ संतोष हो, तृप्ति हो, निर्विकल्पता हो और आत्मीय विशुद्ध आनंद का अनुभवन हो। किंतु, यह बात किसी भी परपदार्थ का ध्यान करने से प्राप्त नहीं होती है। एक आत्मा का ध्यान ही इस जीव को उत्कृष्ट शरण है। उस आत्मध्यान की पात्रता कब जगेगी जब योग्यता बने कि मैं निज अंतस्तत्त्व में ध्यान में मग्न हो सकूँ, उस पात्रता के लिए कहा जा रहा है कि ध्यान के मुख्य अंग तीन हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। ध्यान के बाह्य अंग यद्यपि प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदिक अनेक हैं, नियम लेना, व्रत करना, श्वास रोकना किसी एक लक्ष्यभूत पिंड पर, बिंदु पर दृष्टि जमाना, यों अनेक साधन किए जाते हैं पर शुद्ध साधन जिस बिना आत्मध्यान नहीं बन सकता है वह है सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। तो सम्यक्चारित्र के प्रकरण में ब्रह्मचर्य महाव्रत की बात चल रही थी कि इस जीव को हितकारी एक परमब्रह्मचर्य तपश्चरण है। मान लो सब कुछ संयम तप नियम भी किए जायें एक ब्रह्मचर्य न सधे, न बने तो उनकी क्या कीमत होती है? इसको अस्थिरता से जान सकते हैं। जिनके ब्रह्मचर्य न हो, चित्त की शिथिलता होती है और उसमें चारित्र का पालन नहीं बनता तो ब्रह्मचर्य व्रत की इस जीव के उद्धार के लिए बहुत बड़ी प्रमुखता है। ब्रह्मचर्य व्रत उनके भली प्रकार निभता है जिनमें वृद्धसेवा की रुचि है। जैसे आयुर्वेद में कहते हैं कि आंवला माता के समान अनुग्रह करने वाली चीज है। रोग में खाये, बिना रोग में खाये सदैव स्वास्थ्य में सहायता देने वाला है। कदाचित् ये औषधियां स्वास्थ्य के प्रतिकूल बन जायें पर यह आंवला स्वास्थ्य के प्रतिकूल नहीं बनता, यों ही लोक में माता और पुत्र के विषय में कहते हैं कि कदाचित् माता भी पुत्र से विमुख हो जाय, पुत्र का हित माता न चाहे, माता भी पुत्र की अहितकारिणी बन जाय किंतु सत्संगति, वृद्धसेवा ये कभी अहितकारिणी नहीं बन सकते हैं। तिर्यंचों में देखा जाता है कि सर्पिणी अपने बच्चे का भक्षण कर लेती है, कुत्ती भी विशेष क्षुधा होने पर अपने बच्चे का भक्षण कर लेती है, मनुष्यों में भी सब स्वार्थ के नाते हैं, स्वार्थ के विपरीत जब डोर अधिक खिंच जाती है तो कहाँ माता और पुत्र का भी नाता टूट जाता है, लेकिन सत्संगति कभी भी धोखा नहीं दे सकती है।
वृद्धसेवा के धाम- सत्संगति का सबसे बड़ा रूप है समवशरण। जहाँ भूमि पर पग रहते ही मनुष्य के विषय कषाय दूर हो जाते हैं। कोई कितना ही अभिमान में हो लेकिन उस भूमि पर पग धरते ही मानस्तंभ के निरखते ही अभिमान चूर हो जाता है। जहाँ अनेक देव देवियाँ मनुष्य बड़े बलवान जीव अपनी पूर्ण कला से संगीत गायन आदि से भक्ति प्रदर्शित करते हैं, वहाँ जो कलावान मनुष्य पहुँचते हैं उन सबकी यह इच्छा रहती है कि मैं उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन करके अपनी भक्तिभाव बढ़ाऊँ। उससे अधिक कला दिखाने का कहाँ चाव होता होगा। ऐसे स्थान पर समवशरण में जहाँ प्रभु साक्षात् विराजमान् होते हैं, उनकी संगति होती है, उनकी उपासना होती है, यह तत्काल ही इस जीव पर बड़ा प्रभाव डालती है और फिर उसके बाद मध्यम संग मुनिजनों का है, फिर अपने ही गाँव में जो भी ज्ञानी पुरुष हैं जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हैं जिनमें आत्मकल्याण की रुचि जगी है ऐसे मनुष्यों की संगति में बैठें तो वहाँ भी औसतन बहुत प्रकार के विकार दूर हो जाते हैं। तो यह वृद्धसेवा किसी देश में, किसी काल में भी की जाय तो वह अहित नहीं कर सकती है। मनुष्य का जब से भी उद्धार प्रारंभ होता है तब उसका आरंभ सत्संग से होता है। जिनका भी आज तक उद्धार हुआ है, जो अपनी समाज और देश के नायक बने हैं, जिन्होंने सत्पथ दिखाया है उनका उद्धार किसी न किसी महापुरुष के सत्संग से प्रारंभ होता है और फिर सत्संग के प्रताप से उद्धार बढ़ता जाता है और पूर्ण योग्यता आ जाती है। प्रयोजन यह है कि हम सबको यह निर्णय रखना चाहिए कि हमारे उत्थान में सहायक प्रधानतया सत्संग है। हम कभी मोही, मलिन, निंदक, अवगुणी पुरुषों की संगति में न रहें। यह सत्संग किसी जीव को अहित के लिए तो प्रेरणा करता ही नहीं। और प्रेरणा मिलती है आत्महित की। अतएव वृद्ध पुरुषों की सेवा अर्थात् ज्ञानी पुरुषों का सत्संग हम लोगों को अवश्य करना चाहिए।