वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 780
From जैनकोष
वृद्धोपदेशघर्मांशुं प्राप्य चित्तकुशेशयम्।
न प्राबोधि कथं तत्र संयमश्री: स्थितिं दधे।।
वृद्धोपदेशकिरणसेवित हृदय में संयमश्री का निवास- मनुष्यों का चित्तरूपी कमल यदि वृद्ध पुरुषों के उपदेशरूपी सूर्य के निकट हो जाये, उसे प्राप्त कर ले तो उसमें सयंमरूपी लक्ष्मी क्यों न निवास करेगी? जैसे कमल दिन में प्रफुल्लित हो जाते हैं, सूर्य की किरणों का संसर्ग पाकर कमल शोभा को प्राप्त होता है इसी प्रकार मनुष्यों का चित्त भी यदि वृद्धजनों का उपदेश प्राप्त कर ले तो उनका चित्त भी विकसित हो जाता है। ज्ञान का विकास है संयम। तो संयमरूपी लक्ष्मी का वहाँ निवास हो जाता है। जब चित्त में संतजनों के वचन रहते हैं तब ही संयम दृढ़ रह सकता है अन्यथा यह जीव स्वभावत: कुछ विषयकषायों की ओर झुका ही रहता है, पतन की ओर ही इसका चित्त चलता है। सत्पुरुषों का संग रहे, उनकी वाणी सुनने को मिलती रहे तो यह चित्तरूपी हस्ती स्वच्छंदता से निवृत्त हो जाता है, फिर श्रोता ध्याता इस चित्त को वश कर ले और उसमें विवेक का साम्राज्य बन जाता है, सत्संगति की महिमा का कौन वर्णन कर सकता है। यह बहुत ही सौभाग्य की बात होती है, जब संसार, शरीर, भोगों से विरक्त ज्ञानब्रह्म में मग्न होने के उत्सुक जो संसार से निकट काल में मुक्त हो जायेंगे, कुछ भी भव पाकर मुक्त हो जायेंगे ऐसे ज्ञानपुंज महान आत्मावों का संसर्ग कितना महत्त्व रखता है, उस महत्त्व का वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। जो भी तिरे हैं वे किसी न किसी संत पुरुष का उपदेश पाकर तिरे हैं। किसी को चाहे पूर्वभव में उपदेश मिला हो उसका ही संस्कार पाकर इस भव में बिना उपदेश पाये भी तिर जाय। लेकिन देशनालब्धि तो सबको हुई है। तो उपदेश, संतपुरुषों की वाणी समागम ये भव-भव के पाप कलंकों को भी दूर कर देते हैं। इसकी एक धुनि होनी चाहिए।
आत्मरक्षा के पौरुष की महनीयता- भैया ! आत्मरक्षा से बढ़कर और पुरुषार्थ क्या हो सकता है? हम अन्य पदार्थों की रक्षा की तो धुन बनायें और आप पर करुणा करें तो क्या यह कोई विवेक की बात है? जिस प्रकार जिस कल्याणवांछा की दृष्टि से कल्याण प्राप्त करने की भावना से सत्पुरुषों के उपदेश सुने जाना चाहिए। ग्रंथों में निबद्ध सत्पुरुषों की वाणी हमें अपने हित की भावना से सुनना तथा पढ़ना चाहिए। हम अपने अंदर के रास्ते को खोल तो दें उस वाणी को अपने अंदर प्रवेश करने के लिए। ये क्रोध, मान, माया, लोभ, तृष्णा आदि के पत्थर जो अटक रखते हैं उन पत्थरों को हटाकर रास्ता साफ तो कर लें। लोक में तो जो किसी को विषयकषायों में लगा दे उसे मित्र कहते हैं, पर मित्र वास्तव में वह है जो विषयकषायों से दूर करे। जैसे माता अपने बच्चे का मुँह फाड़कर रोगनाशक औषधि देती है ऐसे ही कदाचित् कुछ बात कष्टकर भी मालूम पड़े पर विषयकषायों से हटाने वाले उपदेश ज्ञानी संतपुरुषों के होते हैं। वे संतजन ही हैं अपने सही मित्र। जो विपदा से बचाये उसे मित्र कहते हैं। ये सांसारिक समागम तो सभी विपदारूप है, सबके पास सब कुछ है अपने खाने पीने के लायक, आराम के साधन भी हैं, लेकिन कौन ऐसा मानता है कि जो कुछ भी मुझे मिला है वह जरूरत से कई गुना अधिक है? इतने की जरूरत न थी लेकिन मिल गया है ऐसा कौन अपने को मानता है? सबके पास जरूरत से ज्यादा वैभव मिला है इसका निर्णय करना हो तो बड़े शांत हृदय से निरख लीजिए। जिनके पास आपसे 8 वाँ हिस्सा वैभव कम है उनका भी गुजारा होता है कि नहीं? और कहो वे आपसे भी अधिक स्वस्थ हों, कहो आपसे भी अधिक निद्रा उन्हें आती हो। तो उनका कैसे गुजारा चल रहा है, और, और तरह से भी इसका निर्णय कर लो। तो जिसे जो कुछ मिला है समझ लो जरूरत से ज्यादा है। ऐसा क्यों समझ लें? इसलिए कि इस तृष्णा डाइन से अपना पिंड छुड़ा सकें, और अपना जो मुख्य लक्ष्य धर्मपालन का है, कर्मबंधन से छुटकारा पाने का है उसमें लग सकें। मेरा केवल मेरे आत्मा से ही प्रयोजन है। जो भी पदार्थ है उनका स्वभाव है कि वे सदैव परिणमते रहते हैं। हमारा तो परिणमन करना काम है सो कर रहे हैं। हमारे परिणमन के लिए किसी अन्य पदार्थ की जरूरत नहीं है, बल्कि अन्य पदार्थों की अपेक्षा न रहे, उनका संबंध न रहे तो हमारी परिणति ऐसी बनेगी कि जिस परिणति को ही लक्ष्य करके सभी मनुष्य पूजते हैं।
सकल जीवों में अंत:प्रकाशमान सहज परमात्मतत्त्व की उपलब्धि के निमित्तभूत वृद्धसेवा की उपास्यता- जिसमें देव माना है जिस किसी भी मजहब वालों ने उन सबकी मूल में आदि में सर्वप्रथम वह बात थी कि जो निरपेक्ष है, अपने स्वरूपमात्र है, जिसका विलास अत्यंत विकसित हुआ है ऐसा कोर्इ भगवान, लेकिन जब भगवान के स्वरूप का परिचय नहीं रहा तो किसी ने कुछ बताया, किसी ने कुछ। तो जब बहुत दिन गुजर जाते हैं एक परिचय बिना तो बात होती है कुछ और फैल जाती है कुछ। यही बात प्रभुस्वरूप के बारे में हो गयी है, अपरिचय का बहुत सा काल व्यतीत हो गया तो धीरे-धीरे कुछ से कुछ होते होते आज बड़ी विभिन्नरूपता आ गयी और जो ज्ञान भगवान में संभव भी न हो सके ऐसी तक भी बात लोगों के चित्त में समा गई है, पर भगवान का जो शुद्ध रूप है वह सब रूप हम आपमें समाया हुआ है, देखने की विधि चाहिए। जैसे कोई एक सेर दूध रखा है तो बतावो उसमें घी है कि नहीं है, पर उसका पारखी ही समझ सकता है कि इसमें इतना घी है। घी आँखों तो नहीं दिखता, पर पारखी लोगों को तो पता रहता है कि इस इतने दूध के अंदर इतना घी मौजूद है। ऐसे ही हम आप सबमें परमात्मतत्त्व बसा है किंतु परखने वाले ही उसे जान सकते हैं। ये सब बोध हमें सत्पुरुषों के संग से प्राप्त होते हैं, इस कारण सत्संग के लिए, वृद्धसेवा के लिये हमारा बहुत-बहुत यत्न होना चाहिए।