वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 784
From जैनकोष
वृद्धानुजीविनामेव स्युश्चारित्रादिसंपद:।
भवत्यपि च निर्लेपं मन: क्रोधादिकश्मलम्।।
सत्संग में चारित्रसंपदा की वृद्धि- सत्पुरुषों की सेवा करने वाले पुरुषों के चारित्र आदिक संपदा बढ़ती है और क्रोधादिक कषायों का मैल दूर हो जाता है। जैसे प्रभु की मूर्ति के भक्तिपूर्वक दर्शन करने जो जाता है उसके क्रोध कहाँ उत्पन्न होता है? वह तो सर्व कषायरहित प्रभु के दर्शन करने जाता है, ऐसे ही गुरुवों के सत्संग में जो रहता है उसके क्रोधादिक कषायें नहीं होती है। प्रयोगरूप से भी देख लो, जब कभी हम आप किसी बड़े साधु के निकट रहते है तो वहाँ कषायें दूर होती हैं, मन स्वच्छ होने लगता है, विषयों की आशा नहीं रहती, तो मन स्वच्छ हो जाता है, फिर मायाचार क्या करे? ये चारों कषायें सबसे अधिक मैली चीजें हैं। व्यवहार में लोग इन नालियों को गंदी मानते हैं जिनमें सारा मैल बहा करता है। जैसे कोई छू ले तो वह अछूत माना जाता है, यह लोक में रूढ़ि है पर यह तो बतलावो कि मूल में सबसे गंदी चीज क्या है? तो दुनिया में सबसे गंदी चीज है मोह। इस मोह के ही कारण यह जीव सारी चीजों का भोग उपभोग करता है, जो चीजें देखने में सुंदर हैं उन्हें भी यह जीव घृणास्पद बना देता है। यदि इस जीव में मोह न होता तो ये सारी चीजें कहाँ गंदी थीं? वे सारी चीजें तो साफ स्वच्छ जैसी की तैसी थी। जीव ने उन चीजों को ग्रहण किया, वे परमाणु फिर मांस पिंड में बन गए, और आज इस स्थिति को प्राप्त हो गए। तो जिन्होंने इस शरीर के परमाणुवों में प्रवेश किया और जिनके प्रवेश से यह शरीर गंदा बन गया वे स्कंध गंदे हैं, शरीर गंदा नहीं होता। जो अशुद्ध जीव है वह जीव गंदा है और उस अशुद्ध जीव में भी गंदा मोह है। दुनिया में सबसे गंदी चीज है मोह। मोह के ही संसर्ग से ये शरीर बने, शरीर के संसर्ग से ये मल आदिक निकले जिन्हें लोग गंदा कहते। तो इन सब गंदगियों का मूल कारण मोह रहा। अब जगत में अनंत जीव हैं, किसी का कुछ है नहीं, सब न्यारे न्यारे हैं, किंतु मानते हैं कि ये मेरे हैं, इस मोह परिणाम के कारण ही इस जीव को अशांति हुई, परेशानी हुई, अन्यथा इसे कुछ परेशानी का काम न था। विषयों से रहित रहे यह जीव, किसी प्रकार के संकल्प-विकल्प न बनें, किसी में मोह न जगे तो वहाँ दु:ख क्यों होगा? दु:ख का कारण भी मोह है। मोह के सिवाय और किसी को किसी प्रकार का दु:ख हो तो बतावो। किसी का वैभव में मोह है, किसी को परिजन में मोह है, किसी को इज्जत का मोह है, यों मोह होने से ही इस जीव को अशांति है। जिसे शांति चाहिए उसे मोह दूर करना होगा। मोही पुरुषों की संगति में रहो तो मोह ममता जगेगी और सज्जन पुरुषों की संगति में रहो तो मन में प्रसन्नता, अपने अंदर उज्ज्वलता बढ़ेगी। तो सत्संगति की बड़ी ऊँची महिमा है। जो पुरुष ऐसे सत्पुरुषों की सेवा करते हैं उनके चारित्र आदिक प्राप्त होती हैं।
चारित्र की परसंपदारूपता- सबसे बड़ी संपदा है चारित्र। अपनी करतूत सही रहे, परिणाम निर्मल रहे, करनी अच्छी रहे, यही है सबसे बड़ी विभूति। धन वैभव मानो नष्ट हो गया, कम हो गया तो कुछ नहीं गया, कुछ कम नहीं हुआ, ये तो सब पुण्य के सेवक हैं, पुण्य के अनुसार प्राप्त होते ही हैं, जितना भाग्य में हो उतना प्राप्त हो ही जाता है तो वह कुछ नहीं गया किंतु जब अपने भाव खोटे बना लिया, अपना पुण्य समाप्त कर दिया तो समझो सब कुछ गया। जो वैभव प्राप्त हुआ है वह भी तो कुछ दिनों में मिट जायगा। तो जो चारित्र है अपना शुद्ध आचरण बने यह बड़ी भारी संपत्ति है। और, यह संपत्ति प्राप्त होती है ज्ञानी पुरुषों के सद्व्यवहार से। जब भक्त पूजा करता है प्रभु की और प्रभु पूजा करके जब अंत में अपनी भावना प्रकट करता है तो वह 7 बातें प्रभु से मांगता है- प्रथम तो उसकी भावना है कि मेरे शास्त्र का अभ्यास बढ़े अर्थात् ज्ञान बढ़े क्योंकि सुख शांति ज्ञान में ही है। अपना ज्ञान सही रहे, बुद्धि न बिगड़े तो सर्व सुख मिलते हैं और बुद्धि बिगड़ गई, ज्ञान बिगड़ गया, दिमाग बिगड़ गया, अपने आपके वश में न रहा तो लोग कहते हैं कि उसका जीवन रहना एक समान है। जैसे जो पागल है वह जगह-जगह जो चाहे बकता फिरता है, उसे कुछ भी विवेक नहीं है तो उसे देखकर लोग कहते हैं कि हाय इसका जीवन बेकार हो गया। घर में अगर किसी का दिमाग खराब हो गया, पागल हो गया तो लोग उसे पागल समझकर पागलखाने में भेज देते हैं। तो है क्या वहाँ? बुद्धि खराब हो गयी। वहाँ अधिक बुद्धि खराब हो गयी तो लोग पागल कहने लगे, यहाँ रहते हुए कभी कभी बुद्धि खराब हो तो यह क्या पागल नहीं है। बुद्धि खराब हो जाना यही क्लेश का कारण है।
सत्संग में बुद्धि की व्यवस्थितता- बुद्धि व्यवस्थित रहती है सत्पुरुषों की भक्ति से, जहाँ वृद्ध पुरुषों के प्रति भक्तिभाव रहता है वहाँ बुद्धि व्यवस्थित रहती है। लोग शिक्षा देते हैं ना बच्चों को कि देखो माता पिता की सेवा करो। माता पिता भी तो बच्चों की अपेक्षा वृद्ध पुरुष हैं, ज्ञानी हैं, अनुभवी हैं, दूसरे उनका लौकिक संबंध भी गुरुता का है। तो माता पिता की जो सेवा करते रहते हैं उन बच्चों की बुद्धि सही रहती है। उनके हर जगह बुद्धि की प्रगति रहती है, और जो समर्थ होकर भी माता पिता को क्लेश पहुँचाते रहते हैं उनकी बुद्धि मलिन रहती है, तो उस बुद्धि की मलिनता के कारण उनकी बुद्धि ऐसी अटपट हो जाती है कि जिससे उन्हें क्लेश, आकुलता, फँसाव बढ़ने लगता है। तो वृद्ध पुरुषों की, माता पिता की, गुरुजनों की सेवा करना और परमार्थतया जो ज्ञानी विरक्त संत पुरुष हैं उनकी सेवा में रहना, यह सत्संगति अनेक अवगुणों को दूर कर देती है।
पूजक की भावना में सत्संग का उपयोग- पूजा कर चुकने के बाद भक्त भावना करता है। उस भावना में दूसरी भावना है जिनेंद्र भगवान के चरणों की सेवा। जिनेंद्र का अर्थ है जो रागद्वेष मोह को जीत ले। सो जिन वे ही इंद्र याने श्रेष्ठ। जैन शब्द किसी एक खास जाति का नाम नहीं है, किंतु जो रागद्वेष मोह को जीत लेने वाले प्रभु को मानते हैं, उनकी वाणी पर श्रद्धान करते हैं उनका नाम जैन है। ऐसे जैनों के जो इंद्र हैं, मुख्य हैं, तीर्थंकर देव हैं अथवा समस्त अरहंत देव हैं उनके चरणों में हमारी नुति बनी रहे, मेरा हृदय उनके गुणों में बना रहे वह दूसरी भावना वह पूजक करता है, तीसरी भावना है सत्संगति। संत जनों के साथ हमारा समागम बना रहे, वे आदि पुरुष हैं जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हैं। विषयों में लगना महान अनर्थ है। जो विषयों में लग रहे हैं उनकी संगति से आत्मा को कोई लाभ नहीं प्राप्त होता। यह संसार ऐसे ऐसे शरीर धारण करते रहना, जन्म मरण होते रहना यह सब विषयों में प्रीति करने का फल है। यह आत्माराम तो केवल ज्ञानस्वरूप है, इसमें ज्ञान और आनंद का स्वरूप पड़ा हुआ है। लेकिन आज इसकी यह विडंबना बन रही है, जिस पर्याय में जाता है उस ही पर्याय को आपा मान लेता है, ऐसी इसकी विडंबना जो बन रही है इसके कारण यह नाना शरीरों में भ्रमण करने लग गया है। जो पुरुष विषयों से विरक्त हैं, ज्ञान में अनुरक्त हैं ऐसे नि:स्वार्थ निष्काम पुरुषों के संग में रहना चाहिए। तो तीसरी भावना यह पूजक सत्संगति की करता है।
गुणिगुणगान और दोषवादमौन की भावना में सत्संग का प्रभाव- चौथी भावना यह करता है ज्ञानी कि मेरे मुख से सज्जन पुरुषों का गुणगान ही होता रहे। सत्पुरुषों के गुणों का गान वही कर सकता है जिसे गुणों का प्रेम हो। जिसके स्वयं के गुणों का विकास होने को होता है वही गुणियों के गुणों का ज्ञान कर सकता है। गुणगान करने से गुणों पर दृष्टि रहती है। पूजक पुरुष यही तो चाहता है कि मेरा जो सहज गुण है ज्ञानानंदस्वरूप वह प्रकट हो। तो इस भावना को पुष्ट करने के लिए गुणवान पुरुषों के गुण गाये जाते हैं। जिसके गुण गाये जाते हैं उसे गुण गाये जाने से कोई लाभ नहीं मिलता, किंतु जो गुणगान करता है, उसको गुण गाने से लाभ पहुँच जाता है। तो अपने ही भले के लिए हमें संत पुरुषों के गुणों का ज्ञान करना चाहिए। पूजक इन चार भावनाओं से संत पुरुषों के गुणगान करने की इच्छा करता है। 5 वीं भावना में भा रहा है ज्ञानी कि मेरे पर के दोषों के कहने में मौन रहे। दूसरे पुरुषों के दोष तभी कहे जा सकते हैं जब खुद को दोषों में प्रेम हो। जो स्वयं अपने दोष बढ़ाते रहते हैं वही दूसरों के दोष देखेंगे। दूसरे के दोषों को देखने की क्यों दृष्टि हो? उससे लाभ क्या मिलेगा? दोष देखें तो दोषों में उपयोग रहेगा, जो अज्ञानी हों, जिनके कषाय भरी हो ऐसे पुरुष ही दोषग्राही होते हैं। जैसे जोक गाय के थन में लग जाय तो भी वह दूध नहीं पीती किंतु गंदा खून ही पीती है। ऐसे ही जिनके दोष ग्रहण करने की दृष्टि हैं, स्वयं दोषी हैं, स्वयं कायर हैं तो वे दूसरे के दोषों को ही निरखते हैं और दोषों के कहने में सुख समझते हैं, लेकिन दूसरों के दोष देखने में अनेक अनर्थ हो जाते हैं।
खुद को दोष प्रेम जगा, खुद का उपयोग बिगड़ा और जिसके दोष कहे गए उसके द्वारा विपदा भी प्राप्त हो सकती है। लाभ कुछ भी नहीं है बल्कि सब नुकसान ही नुकसान है। यह पूजक भावना करता है कि हे प्रभो ! दूसरों के दोषों के कथन में मेरा मौन भाव बने। छठवीं भावना में भक्त कहता है कि सब जीवों के लिए मेरे प्रिय और हितकारी वचन निकलें। मुझमें ऐसी क्षमता हो। मनुष्य का धन वचन है, वचनों से ही वह सुखी हो सकता है और वचनों से ही यह दु:खी हो सकता है। दु:खकारी वचन बोल देने से खुद को कुछ लाभ नहीं होता, किंतु जब कोई स्वयं अपने चित्त को दु:खी कर लेता है तब दूसरों को दु:ख पहुँचाने वाले वचन बोल सकता है। उसमें लाभ कुछ नहीं है, अशांति है, पर जब कषाय जगती है तो इन पुरुषों को यह विवेक नहीं रहता और जिसमें इन्होंने अपनी शांति समझी है उस ही कार्य को करने लग जाते हैं। कुबुद्धि से यह अप्रिय अहितकारी वचन बोलता है। किसी को यदि बड़े सम्मान से कह दिया, आइये साहब बैठिये तो ये कितने अच्छे वचन हैं और किसी ने कहा जाओ वहाँ बैठो, आ जावो, बैठ जावो, भग जावो इन शब्दों में कहाँ सम्मान की बात बसी है? इसमें तो दूसरे को तुच्छ निगाह से देखा। तो जो स्वयं तुच्छ हो वही दूसरे को तुच्छ समझेगा। तो हे भगवन् ! सब प्राणियों के प्रति मेरे हित, मित, प्रिय वचन निकलें।
अंत: सत्संग की भावना- पुजारी की अंतिम भावना यह है कि हे भगवन् ! इस निज आत्मतत्त्व में मेरी भावना बनी रहे। आत्मतत्त्व है ज्ञानस्वरूप। जहाँ मात्र ज्ञान ज्ञान का ही प्रकाश है ऐसे आंतरिक विलक्षण प्रकाशपुंज को आत्मा कहते हैं। उस आत्मा का तत्त्व है ज्ञानस्वरूप। तो यह भावना मेरी रहे कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, सबसे न्यारा केवलज्ञानस्वभाव मात्र हूँ, ऐसी भावना जगे इसे कहते हैं आत्मतत्त्व की भावना। यों पुजारी इन 7 बातों की भावना करता है। जैसे एक सत्संगति की निगाह से देखा जाय तो ये सबके सब काम सत्संगति के हैं। जहाँ भगवान के प्रति भक्ति जग रही है, ज्ञानी संतपुरुषों के प्रति भक्ति जग रही है, ज्ञानी पुरुषों के सद्उपदेशों में भक्ति जग रही है वहाँ समझो सत्संगति की जा रही है। दूसरों का चारित्र का जो गुणगान करें वह भी सत्संगति है। गुण सत् है और जिनका गुणगान किया जा रहा है वे संत पुरुष हैं। दोषों के कहने में मौन रखे तो इसमें भी सत्संगति पैदा होती है, इस उत्कृष्ट सत्संगति के प्रताप से दोषों में प्रवृत्ति नहीं बनती। सबसे हित, मित, प्रिय वचन बोलें तो इसमें भी सत्संगति पैदा होती है। जिससे बोलेगा वह भला मानकर बोलेगा और जिस प्रिय शुद्ध वाणी से बोलेगा वह वाणी स्वयं सत् है। उनका संग किया जा रहा है। तो ये सब सत्संग हुए। और जब अपने आत्मस्वरूप की भावना की जाती है तो आत्मस्वरूप एक महान सत् है, उसका संग किया जा रहा है। उसकी उपासना है। तो जितने भी हमारे धार्मिक कर्तव्य हैं, उनमें परोक्ष और प्रत्यक्ष सत्संग हुआ करता है। सत्संग करने वाले पुरुषों के चारित्र आदिकी संपदा प्राप्त होती है, कामादिक कषायें दूर होती हैं और सुलभ भी भोगों में तृष्णा नहीं रहती। तब इस ज्ञानबल से यह जीव अपने आपको शुद्ध आनंदरूप अनुभव करता है।