वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 786
From जैनकोष
कातरत्वं परित्यज्य धैर्यमेवावलंबते।
सत्संगजपरिज्ञानरंजितात्मा जन: स्वयम्।।
सत्संग में धैर्यलाभ- सज्जन पुरुषों का संग करते रहने से जिनका आत्मा ज्ञान से रजायमान हो गया है ऐसे पुरुष अपने आप ही कायरता को छोड़ देते हैं और धैर्य का आलंबन करते हैं। आत्मा विषय और कषायों में लग जाय, पापों में बुद्धि चले, यही है आत्मा की कायरता और विषयकषायों से हटकर अपने ज्ञानस्वरूप की भक्ति करें, भगवान की उपासना करें तो यही है आत्मा की शूरता। जगत के जीव प्रत्यक्ष विषयकषायों में रत हो रहे हैं। इन विषयकषायों का रुच जाना यही कायरता है जिसमें न मनोबल लगाना पड़ता, न आत्मबल की जरूरत है। कुछ पुण्य सामग्री पाकर विषयकषायों में लगे तो यह कायरता ही तो है। सज्जन पुरुषों के संग से यह सब कायरता दूर हो जाती है। जब यह विषयभोगों की कायरता दूर हो जाती है तो धैर्य प्रकट होता है। धीरता में बुद्धि स्वच्छ होती है। जहाँ रागद्वेष नहीं जगता, समतापरिणाम रहता है वहाँ धैर्य प्रकट होता है, यह बात सत्संगति से प्राप्त होती है और सत्संगतिमात्र से नहीं, किंतु सत्संगति से जब आत्मा ज्ञान से रंजित हो जाता है तब धैर्य प्रकट होता है, तो सत्पुरुषों की संगति से ज्ञान प्रकट होता है, कायरता नष्ट होती है। सत्संग बहुत आवश्यक तत्त्व है। कल्याणार्थी के लिए सत्संगति एक बहुत आवश्यक कदम है।