वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 807
From जैनकोष
विरम विरम संगान्मुंच मुंच प्रपंचंविसृज विसृज मोहं विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम्।
कलय कलय वृत्तं पश्य पश्य स्वरूपं
कुरु कुरु पुरुषार्थं निवृतानंदहेतो:।।
ज्ञान की प्रियतमता- हे आत्मन् ! निर्णय तो कर कि तुझे क्या चाहिए। एक बात पर रहना, बदलना मत। जो भी तुम्हारी निगाह में जचे कि हमें यह करना है, फिर वही वही करते रहना, बदलना नहीं। निर्णय करो आपको कौनसी बात प्रिय है? अच्छा देख लो, जब छोटा बच्चा होता है साल 6 माह का तो उसे सबसे प्रिय होती है अपनी माँ की गोद। जब कभी उसे कोई सताये तो झट अपनी माँ की गोद में पहुँच जाता है। अपनी रक्षा का एक उसे वही उपाय सूझता है। लेकिन वही बच्चा जब 5-6 साल का हो जाता है तो फिर उसे माँ की गोद प्रिय नहीं रहती, उसे तो खेल-खिलौने प्रिय हो जाते हैं, कुछ और बड़ा हुआ तो उन खेल-खिलौनों से भी उसे प्रीति नहीं रहती, उसे तो खेल-कूद प्रिय हो जाता है, कुछ और बड़ा हो जाने पर उसे विद्या से प्रीति हो जाती है। बिरले ही लड़के ऐसे होंगे जो विद्या से डरें। उन्हें तो अब पुस्तकें प्रिय हो गयीं, नई-नई विद्यायें प्रिय हो गयी। कुछ और पढ़ लिख जाने पर, बड़ा हो जाने पर उन विद्यावों से भी प्रीति नहीं रहती है, उसे तो केवल परीक्षा में पास होने की चाह रहती है, कुछ और बड़ा होने पर उसे डिग्री मिलने की चाह हो जाती है। अब तो कुछ आये जाये नहीं, पर किसी न किसी प्रकार से डिग्री मिले, इस बात की चाह हो जाती है। जैसे अभी कुछ पहिले चला था कि चाहे कुछ भी पढ़े लिखे न हों लेकिन वैद्यभूषण की डिग्री तो मिल ही जायगी, ऐसे ही डिग्री प्राप्त करने की ऐसी चाह हो जाती है कि चाहे कुछ भी न पढ़े लिखें, कुछ भी न आये जाये, पर डिग्री मिलनी चाहिए। उस डिग्री के मिल जाने पर फिर उससे भी प्रीति हट जाती है। अब चाह हो गयी शादी करने की, अर्थात् अब स्त्री प्रिय हो गयी, वह डिग्री भी प्रिय नहीं रही। अब स्त्री हो गई, पुत्र हो गए तो उस पर भी वह प्रेम न डटा रहा। स्त्री पुत्र की भी प्रीति छूट गई, अब धन प्रिय हो गया। किसी आफिस में वह कोई काम कर रहा है। एकाएक फोन आ गया, फोन क्या आया, यह तो फिर बतावेंगे। पहले उसकी चर्या सुनो। और और दिन तो वह सबसे दो दो मिनट बैठकर बातें भी कर लेता था, लेकिन उस दिन फोन के मिलते ही तुरंत अपने घर की ओर रवाना हुआ। जब बड़ी जल्दी से वह अपने घर पहुँचता है तो देखता है कि घर में आग लगी हुई है, सारी संपत्ति जली जा रही है, लोगबाग कुछ सामान निकाल रहे हैं। फोन भी इसी बात का पहुँचा था। उस घर की जलती हुई स्थिति को देखकर उसे क्या सूझता है कि सारा धन जाय, पर मेरे परिजन निकल आयें, वह लोगों से कहता है कि मुझसे जो चाहे धन ले लो पर मेरे परिजनों को किसी तरह निकाल लो। अब उसे धन प्रिय नहीं रहा। वे परिजन उसे प्रिय हो गये। आग बहुत बढ़ गई, सभी लोग निकल आये पर एक बच्चा अभी रह गया। अब वह सिपाहियों से कहता है कि मेरे बच्चे को आग से निकाल दो हम तुम्हें 50 हजार रुपये देंगे। अरे भाई तुम क्यों नही निकालते? अरे अब तो उसे अपने बच्चे से भी प्रिय अपनी जान हो गई। वह बच्चे को नहीं निकाल सकता, क्योंकि उसे तो अपनी जान प्रिय है। तो अब उस बच्चे से भी अधिक प्रिय हो गयी अपनी जान। थोड़ी देर बाद उस पुरुष को ज्ञान जगे, सारे परिग्रह त्यागकर संन्यासी बन जाय, वन में तपश्चरण करने चला जाय। तपश्चरण करते हुए में कोई शत्रु अथवा सिंहादिक क्रूर जानवर उसे मारें, काटें, छेदें, त्रास दें तब भी उसे अपने प्राणों की परवाह नहीं। अब उसे सबसे अधिक प्रिय हो गया ज्ञानध्यान। कोई शत्रु चाकू से छील भी रहा हो, लेकिन वह यही यत्न करता है कि इस शरीर का भी मुझे रंच विकल्प न जगे। यदि रंच भी इसके प्रति विकल्प जगा तो फिर जन्म मरण धारण करने पड़ेंगे, बस संसार में रुलना पड़ेगा। मैं अपने आपके स्वरूप में ही रत रहूँ, मग्न रहूँ, ऐसे ज्ञान और ध्यान का वह यत्न करता है। तो जीव को अधिकाधिक प्यारा रहा ज्ञान। तो अपेक्षाकृत अभी बहुत सी बातें बताया, उन सबसे क्रम क्रम से प्रीति छोड़कर एक ज्ञान से प्रीति की। सर्वोत्कृष्ट प्रिय है जीव को ज्ञान।
अंत: ज्ञान व निर्वृत्तानंद के लाभ के लिये परिग्रह एवं मोह के परिहार का उपदेश- अंत: ज्ञान का प्रारंभ होता है सत्संग से। अतएव सत्संग एक बहुत बड़ी हितकारी बात है। इससे ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है, परम ब्रह्मचर्य का पालन होता है, लोक में शरण एक यही स्थिति है कि मैं ज्ञानस्वरूप ज्ञानोपयोग वाला यह मैं अपने ही ज्ञानस्वरूप में मग्न हो जाऊँ, निस्तरंगरूप से ठहर जाऊँ, ऐसी स्थिति ही लोकोत्तम है, शरणभूत है, परम ब्रह्मचर्य है। उस स्थिति में जो आनंद होता है वह आनंद अन्य किसी भी स्थिति में नहीं है और उस आनंद से निर्वाण के आनंद का पता चलता है कि मोक्ष में किस प्रकार का आनंद है, जिसमें यह शंका है कि आखिर मोक्ष में होता क्या है, आनंद कहाँ है तो वह अपने इस अनुभव को करे, उससे उसे विदित होगा कि शांति अपने आत्मा में स्थित होने से होती है। इसके लिए हे भव्य जीव ! इन परिग्रह को छोड़ो छोड़ो। इस निर्वाण के आनंद की प्राप्ति के लिए हे भव्य जीव ! तू इन मायामय प्रपंचों को छोड़ छोड़। इस आत्मीय आनंद की प्राप्ति के लिए हे भव्य प्राणी ! तू मोह को दूर कर दूर कर। इस विशुद्ध स्वानुभव से उत्पन्न हुए आनंद का निरंतर अनुभव करते रहने के लिए हे भव्य जीव ! तू आत्मतत्त्व को जान जान, अन्य कार्य मत कर। आत्मा के आचरण से ही उत्पन्न होने वाले इस आनंद की प्राप्ति के लिए हे जीव ! तू शुद्ध आचरणों का ही संग्रह कर। शुद्ध चारित्र बना और अपने ही स्वरूप को देख, ऐसे पुरुषार्थ को हे भव्य जीव कर कर। यहाँ प्रत्येक क्रिया दो दो बार कही है। जैसे जब किसी से कहते हैं कि चल चल, तो इसका अर्थ क्या हुआ कि उसे बहुत प्रेरणा दी गई है कि तू यहाँ एक मिनट भी मत ठहर, चल चल। और, कोई कहे कि चल तो इसका अर्थ यह हैं कि चलना जरूरी है, थोड़ी देर ठहरा भी रहे तो कोई आपत्ति नहीं है। दो दो बार क्रियावों के बोलने से उसकी विशेषता होती है। एक विशुद्ध स्थिति पाने का उपाय है, इन परिग्रहों का त्यागना। मेरे पास और वैभव जुड़ जाय ऐसी भावनाओं को त्यागे। किसी दूसरी वस्तु को मानना कि यह मेरी है, यह मैं हूँ, इसमें मेरा हित है, इससे मेरा बड़प्पन है, इस प्रकार के मोह को त्यागने से और इस आत्मतत्त्व के निर्णायक ऐसे पुरुषार्थ को करने से भव्य जीव मुक्ति को प्राप्त करेंगे।