वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 809
From जैनकोष
धन्यास्ते मुनिमंडलस्य गुरुतां प्राप्ता: स्वयं योगिन:
शुद्धयत्येव जगत्त्रयी शमवतां श्रीपादरागांकिता।
तेषां संयमसिद्धय: सुकृतिनां स्वप्नेऽपि येषां मनोनालीढं विषयैर्न कामविशिखैर्नैवांगनालोचनै:।।
निर्मलचित्त मुनिगण को धन्यवाद- ब्रह्मचर्य महाव्रत के प्रकरण में अब ये अंतिम प्रसंग आ रहे हैं। अंत में कहते हैं कि जिन मुनियों का मन विषयकषायों में स्वप्न में भी आरूढ़ नहीं होता वे मुनि धन्य हैं। यह जीव विषयों की आशा से कायर बन जाता है। आत्मा केवल ज्ञाता रहे, जाननहार रहे, किसी भी इंद्रियविषय में अपनी रागवृत्ति न बने तो यह अमर ही है, वीर ही है। वे मुनि धन्य हैं, वे सुमति धन्य हैं, जिनका मन विषयों में नहीं विद्ध होता है, जो काम के बाण और स्त्री के कटाक्षों से जिनका मन स्खलित नहीं होता, जो विषयकषायों से अत्यंत दूर रहते हैं ऐसे सुमति धन्य हैं। प्रवृत्तियों में बहुत कुछ निराकरण करने से आखिर एक सबसे बड़ी कठिन व्यथा यह विषयव्यथा रहती है। ब्रह्म में लीन होने में बाधक यह मनोज वांछा है, जिस अंतर्वेदना के कारण यह पुरुष अपने ब्रह्मस्वरूप में मग्न नहीं हो पाता। जिन्होंने समस्त इंद्रियविषयों से निवृत्ति पा ली है वे मुनीश्वर धन्य हैं। और, देखो यह मूल गुण में शामिल किया है। पंचेंद्रिय और मन का निरोध यह साधुवों का मूल गुण है, यदि अंत में इनका निरोध न हो सका तो वहाँ साधुता नहीं है। पंचम गुणस्थान तक तो रौद्रध्यान बताया है। इससे ऊपर रौद्रध्यान नहीं है। आर्तध्यान तो संभव हो सकता छठे गुणस्थान में, इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज और वेदनाप्रभव ये संभव हो जाते हैं किंतु रौद्रध्यान संभव नहीं हो सकता। यद्यपि उन्हीं स्वाभाविक पंचम गुणस्थानवर्ती के लिए ऐसा विकट रौद्रध्यान नहीं है जो मोह में संभव होता है, लेकिन जब तक परिग्रह का संबंध है तो उसके कारण से हिंसानंद, चौर्यानंद, मृषानंद और विषयसंरक्षणानंद ये चार प्रकार के किसी न किसी रूप में चाहे उनका छोटा ही रूप हो, ये निहारे नहीं जा पाते हैं। जब तक घर में रह रहा है कोर्इ तो कुछ धनार्जन का भी कार्य है, कुछ रसोई आदिक परिग्रहों का भी कार्य है, कुछ अपनी स्वरक्षा बनाये रखने का भी कार्य है। कोई घर में रहे और बड़ी विरक्ति दिखाये, बाबा बन जाय, ले जावो, सब कुछ खुला है, तो ऐसा बाबापने का काम तो घर में नहीं निभ पाता, स्वरक्षा भी करना है, तो कुछ रौद्रध्यान संभव है पर छठे गुणस्थान में रौद्रध्यान रहता ही नहीं है, वहाँ विषयसंरक्षणा की चिंता नहीं है।
निसंगता में स्वातंत्र्यविकास- नि:संग साधुवों के विहारस्वातंत्र्य को पक्षियों की तरह बताया है। जैसे देखा होगा कि पक्षी कहीं बैठे हैं, मन चाहा लो फुर्र से उड़ गये। गृहस्थों को तो यदि कोई आफत आ जाय तो वे कहाँ भागकर जाये, उनके पीछे तो बड़ा झमेला है, कहाँ क्या लादकर ले जायें? साधुजन ऐसे होते हैं कि वे निष्परिग्रह हैं, नि:संग हैं, उनकी जब मर्जी आयी जब जहाँ चाहे विहार कर जाते हैं। इन परिग्रहों के कारण कोई विकट परिस्थिति अनुभवी जा रही हो यह बात साधुवों में नहीं पायी जाती है। हाँ कोई साधु यदि गृहस्थों की भाँति बड़ा आडंबर मुड़ियाये, उसकी चिंता रखे तो वह उसकी साधुता नहीं है। साधुता नि:संग अवस्था में ही बनती है, और ऐसा नि:संग होने के लिए मूल में ब्रह्मचर्य की परम साधना होनी चाहिए। अच्छा यह विचार कर लो कि जो इतना परिग्रह लगा है, गृहस्थी बंधी है, महल मकान है, दुकान है, वैभव है, जमीन है, तिजोरी है, ये सारी बातें जो गृहस्थी में लगी हैं उनका मूल कारण क्या है? विचार करते जावो। इतना महान संग बनाने का कारण यह है कि ब्रह्मचर्य की साधना न रख सके और उसकी प्रतिक्रिया में विवाह करना पड़ा, उसके कारण फिर इतने आडंबर रखना जरूरी हो ही जाता है। इन परिग्रहों में आसक्ति होने का कारण मूल में ब्रह्मचर्य महाव्रत की सिद्धि न रख सकना है, एतदर्थ सबसे अधिक जोर ब्रह्मचर्य महाव्रत पर दिया जा रहा है। जो परमब्रह्मचर्य की उपासना करता है, कामबाधावों से, नेत्रकटाक्षों से जिनका मन कभी विद्ध नहीं होता ऐसे महासंत पुरुषों के ही संयम की साधना होती है; और ऐसे योगीश्वर ही योगीश्वरों के समूह में आचार्यपद को, प्रधानता को प्राप्त होते हैं। मुद्रा भी शांत हो ऐसे परमयोगीश्वरों के चरण कमलों के अनुराग से ये साधु निश्चय करके पवित्र हो जाते हैं। एक तो मोहीजनों के प्रति अनुराग जगना, मेरा तन, मन, धन, वचन सब कुछ हे स्त्रीदेवते ! हे पुत्र महाराजो ! तुम्हारे लिए न्योछावर है, उसका परिणाम निरख लो, क्या मिलता हैं। लाभ उससे कुछ भी नहीं प्राप्त होता है और एक ऐसे संत योगीश्वरों के चरणों में यह चित्त अनुराग से अंकित हो जाय तो देख लीजिए उस पुरुष का हृदय कितना प्रसन्न और पवित्र हो जाता है? आखिर ये दुनिया के झंझट जिन्हें मान रक्खा है ये झंझट छूटते नहीं हैं। अभी इस भव में इस तरह के झंझट हैं, अगले भव में अन्य तरह के झंझट लग जायेंगे। यों इन झंझटों के मोल लेते रहने का ही तो नाम संसार है। तो वे योगीश्वर धन्य हैं जिनका मन विषयों से विद्ध न होता और परमब्रह्मचर्य की साधना रखते हैं, और वे भक्तजन भी धन्य हैं जो ऐसे योगी संतों में गुणों के अनुरागी बने रहा करते हैं।