वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 822
From जैनकोष
त्याज्य एवाखिल: संगो मुनिभिर्मोक्तुमिच्छुभि:।
स चेत्त्यक्तुं न शक्नोति कार्यस्तर्ह्यात्मदर्शिभि:।।
कषायविजय में सत्संग की साधनता- मुक्ति की इच्छा होने वाले साधु संतों को सभी प्रकार का परिग्रह छोड़ देना चाहिए और बाह्यपरिग्रह तो छोड़ ही देना चाहिए। कदाचित् अंतरंगपरिग्रह में से कोई परिग्रह विद्यमान रहे, किसी प्रकार की कषाय रहे तो उनका कर्तव्य है कि जो बड़े साधु हों, आत्मदर्शी हों उनकी संगति में रहें क्योंकि मुनि को समस्त संग का त्यागकर ध्यान में रहने के लिए कहा गया है। यदि ध्यानस्थ न रहा जाय तो आचार्यों के साथ संग में रहें, मुख्य चीज तो साधु का ज्ञान है, उसके बाद ध्यान है, फिर तपश्चरण है और फिर सत्संग है। ज्ञान से मतलब शास्त्रज्ञान से यहाँ नहीं है क्योंकि शास्त्रज्ञान ध्यान से उत्कृष्ट चीज नहीं है। ज्ञान का अर्थ है कि वह ज्ञान ज्ञानस्वरूप को जानता रहे, ऐसा निर्विकल्प आत्मदर्शन बना रहे, इस तरह का जो ज्ञान है स्वसम्वेद्य आत्मज्ञान यह सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य है, जब ऐसे ज्ञान में स्थित न रह सके तो साधु का कर्तव्य है कि ध्यान की स्थिति बनाये। देखिये ज्ञान और ध्यान में ज्ञान उत्कृष्ट है, ध्यान द्वितीय श्रेणी का है। यहाँ ज्ञान से मतलब ज्ञाता रहने से है। केवलज्ञान रहे, जाननहार रहे, रागद्वेष से निवृत्ति रहे, इस प्रकार की स्थिति में ज्ञान जो ज्ञान का ज्ञान कर रहा है वह ज्ञान सर्वोत्कृष्ट काम है। इसके पश्चात् फिर ध्यान है। आत्मतत्त्व में एकाग्रचित्त होकर उपयोगी रहे, ध्यानस्थ रहे तो यह ध्यान ज्ञान से द्वितीय श्रेणी का है। जब ध्यान में भी मन न रहे तो तपश्चरण करे, अनशन, ऊनोदर आदि जितने भी तपश्चरण हैं यथाशक्ति उनको करें, और ये भी न बने तो सत्संग तो छोड़े नहीं, क्योंकि सत्संग से अपने परिणामों में विशुद्धि बढ़ती है, ऐसा इन साधुजनों को उपदेश किया जा रहा है, क्या कि बाह्यपरिग्रहों का तो सर्वथा त्याग करें, वह तो एक बाह्य चीज है, किया जा सकता है, पर अंतरंगपरिग्रह तो मन का, आत्मा का परिणाम है, विकारभाव है, वह उठाया तो वह तो उस काल आत्मा की वस्तु है। उसका जान-बूझकर परिणाम कैसे किया जाय? तो उस समय वह अन्य उपाय करें, सत्संग में रहें। जैसे लोग कहते हैं कि इसको देवदर्शन का नियम करा दो कि रोज रोज यह देवदर्शन करे, रात्रि के खाने के त्याग का नियम करा दो, न खाये, या अमुक चीज छुड़ा दो। और कोई कहे कि इसका मानकषाय छुड़ा दो तो मानकषाय कैसे छुड़ा दे, क्रोधकषाय कैसे छुड़ा दे? रखी चीज पर वश तो होता कि लो इसे छुड़ा दिया, पर इन कषायों का नियम कोई कैसे दिला दे? यह बात तो ज्ञान से संभव है। ऐसा ज्ञान उत्पन्न करें जिसके होने पर ये कषायें अपने आप दूर होती हैं, वह तो यत्न है, पर तैसे भाई कोट का त्याग कर दिया तो वह बाहर की चीज है, पर इस क्रोधकषाय के त्याग का नियम कौन दिला दे, वह तो नियम न बनेगा। वह ज्ञानसाध्य बात है। ऐसा तो नियम दिलाया जा सकता है कि जब क्रोध आये तो मौन रह जाय, बोले नहीं। ओंठ से ओंठ मिला ले। यह बात तो नियम में दिलाई जा सकती है। कोई क्रोध के त्याग का नियम जबरदस्ती कैसे दे सकता है? वह तो ज्ञानसाध्य बात है। विचार इस तरह का बनायें, तर्क इस तरह का करें कि जिससे कषाय दूर हों। तो ये अंतरंगपरिग्रह कषाय आदिक ही तो हैं। यदि अंतरंगपरिग्रह जग गया साधु के तब क्या करना चाहिए? उसके लिए यह उपदेश किया गया है कि वह सत्संग करे।
कषाय परिग्रह की भयंकरता- एक मास्टर मास्टरनी थे, दोनों भिन्न-भिन्न स्कूलों में पढ़ाते थे। रविवार का दिन था तो सोचा कि आज बाजार से कोई बढ़िया चीज लाकर बनाकर खाना चाहिए। तय हुआ कि आज मूंग की दाल की पकौड़ी बनना चाहिए। तो सामान जोड़ा, परिश्रम से बनाया और वे पकौड़ी कुल 21 बन गयी। जब मास्टर साहब खाने बैठे तो मास्टरनी ने उनको 10 पकौड़ी परोस दीं, अपने लिए 11 पकौड़ी रख ली। तो मास्टर कहने लगा कि हमने तो बाजार से तमाम सामान लाकर जुटाया, कितना श्रम किया और मुझे 10 ही पकौड़ी क्यों दिया? हम तो 11 खावेंगे। मास्टरनी बोली कि हमने तो बनाने में बहुत श्रम किया, हम 11 खावेंगी, दोनों में यह हठ पड़ गयी। आखिर यह तय हुआ कि अपन दोनों चुप रहें और जो पहिले बोल दे वही 10 पकौड़ी खायेगा, दोनों हठ पकड़कर घर की सांकल लगाकर चुप बैठ गए। यों दो तीन दिन बीत गए, मारे भूख प्यास के दोनों मुर्दा से पड़े रहे। आखिर स्कूल के विद्यार्थी मास्टर के घर आये, किसी तरह दरवाजे के किवाड़ फाड़कर घर के अंदर घुसे। देखकर सोचा कि मास्टर मास्टरनी दोनों मर गए। लोगों को पता पड़ा तो आये। लोगों ने सोचा कि इन दोनों को एक अर्थी में बाँधकर ले चलो। सो दोनों को एक अर्थी में बाँधकर मरघट ले गए। वहाँ लकड़ियों की चिता बनाकर जब फूँकने का विचार था तब वह मास्टर सोचता हे कि मैं भी मरा, यह भी मरी, तो वह झठ बोल उठा- अच्छा मैं 10 खा लूँगा, तू 11 खा लेना। समय की बात कि उस समय कुल आदमी भी 21 थे। तो लोगों ने सोचा कि यह भूत तो हममें से 10 को खा जायेगा और यह चुडैल 11 को खायेगी, यह सोचकर सब वहाँ से भाग गये। वे दोनों भी बाद में जिंदा चले आये। तो अब भला बतावो इन कषायों का कैसे त्याग हो? इन कषायों का त्याग एक बहुत कठिन बात है। जरा जरासी बात में हठ हो जाती है, अनेक व्यर्थ की हठ हो जाती हैं जिनमें कुछ तत्त्व नहीं। उन कषायों का परिहार ज्ञानबल से ही संभव है। जब कभी कषाय जग जाय तो उस समय अपना कर्तव्य है कि सत्संग की उपासना करें और ऐसा ज्ञान बनायें कि जिससे वे अंतरंग परिग्रह दूर हो जायें। देखिये अंतरंग परिग्रह है कषाय, वह यदि अधिक जग जाय तो मुनि का गुणस्थान नहीं रहता। लेकिन लोक और पूजक उपासक तो उनकी मान्यता पूजा बराबर करेंगे। और, बाह्य परिग्रह में गड़बड़ी कर दे, रख ले कुछ तो फिर मान्यता पूज्यता के योग्य नहीं रहते हैं। अंतरंग कषाय को कौन जाने? क्षण क्षण में एकदम ऊँच नीच गुणस्थान हो जाते हैं, परिग्रह एक औपाधिक भाव है, कर्म की प्रेरणा होती है, विकार भाव आते हैं, किंतु उन्हें इस ज्ञानबल से जीतना चाहिए।