वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 855
From जैनकोष
एन: किं न धनप्रसक्तमनसां नासादि हिंसादिनाकस्तस्यार्जनरक्षणक्षयकृतैर्नादाहि दु:खानलै:।
तत्प्रागेव विचार्य वर्जय वरं व्यामूढ वित्तस्पृहांयेनैकास्पदतां न यासि विषयै: पापस्य तापस्य च।।
परिग्रहसंपर्क में क्लेशों का अधिकारित्व- हे मोही आत्मन् ! विचार तो करो, जिनका मन धन में लंपटी है उन्होंने क्या हिंसा आदिक कार्यों से पापों का अर्जन नहीं किया? और, उस धन के उपार्जन में, रक्षण में, व्यय करने में दु:खरूपी अग्नि से कौन नहीं जला? धन के प्रसंग में किसे क्लेश नहीं होता? उसका विचार करने के समय भी क्लेश, उसके अर्जन में भी क्लेश, उसकी रक्षा में भी क्लेश, और रक्षा करते करते नष्ट हो जाता है उसमें भी क्लेश। यह संसार क्लेशों का घर है, और जैसे शरीर के जितने रोग होते हैं उन रोगों में कोई भी रोग आ जाय वही इस जीव को बड़ा मालूम पड़ता है। जैसे बड़े तीव्र बुखार के सामने हाथ में अथवा पैर में कोई फुंसी हो जाय तो वह कोई बड़ा रोग तो नहीं है लेकिन किसी को फुंसी भी हो तो वह उसमें बड़ा कष्ट मानता है। तो जो भी रोग आये उसी को महान समझता है, ऐसे ही जिसको जितना घाटा हो, नुकसान हो उसे ही वह महान समझता है। जैसे मान लो किसी को आज हजार रुपये का नुकसान हुआ तो जरा उन पर भी तो दृष्टि दो जिन पर जोरावरी और सताकर जबरदस्ती 10-20 हजार रुपये लूट ले जाते हैं, तो उनके दिल से पूछो कि उन्हें क्या दु:ख है और उनसे भी बड़े-बड़े अनर्थ हो जाते उनके दिल से पूछो। तो संसार में सर्वत्र क्लेश ही क्लेश भरे पड़े हैं। उस क्लेश का क्या बुरा मानना? उसके तो ज्ञातादृष्टा रहें, हो गया यह, ऐसा ही होना था। क्या है यहाँ मेरा? मेरा हित तो मेरे स्वरूप की चिंतना ही है। शेष तो सर्वत्र अशांति ही अशांति है।
महान् आत्माओं के परिग्रह परित्याग का विवेक- धन के विचार में, अर्जन में, रक्षण में, विनाश में यह जीव दु:ख अग्नि से जलता ही रहता है। इस ही कारण साधु संतजन उसको पहिले ही छोड़ देते हैं। जो नहीं छोड़ सकने के योग्य है, गृहस्थ हैं भी यदि वे भी अपने ज्ञानबल को सम्हाले हैं तो वे किसी ऐसी परिस्थिति में घबड़ाते नहीं हैं। बड़े-बड़े राजपुरुष कौरव पांडवों को देखें, धन संपदा की आशा रखकर ही उनका भी विनाश हुआ। पांडवों ने अंत में कुछ अपना विवेक बनाया और सर्व लालसावों को त्यागकर अपने आपके आत्मचिंतन में लग गए। तो पांडवों ने भी संपत्ति को छोड़ा, कौरवों ने भी संपत्ति को छोड़ा। कौरव तो आशा में मरकर कुगति में गए और पांडवों ने अपने आप ही विवेक करके त्यागकर आत्मध्यान से तीन ने निर्वाण पाया और दो सवार्थसिद्धि गये। तो ये सब समागम अनित्य हैं, इनका नियम से वियोग होगा ऐसा मानते रहने से जीवन में क्लेश नहीं आता। ठीक है उदयानुसार होता है जो भी होना है, ऐसा ज्ञानी पुरुष जब धन आ रहा हो तो भी हर्षमग्न नहीं होता और जब वियोग होता हो तब भी दु:खमग्न नहीं होता। हे मुनि ! समस्त संग का, परिग्रह का परित्याग करके तू नि:संग निष्परिग्रह ज्ञानानंदस्वरूप निज अंतस्तत्त्व का ध्यान कर। विषय और पाप का संग मत कर। यह सब कल्याणार्थी पुरुषों के लिए आचार्यदेव का शिक्षण है। न्यायवृत्ति न छोड़े। न्याय छोड़ने से चित्त अस्थिर हो जाता है। अन्याय के परिणाम से चित्त में संतोष नहीं रहता। जब चित्त में संतोष न रहा तो इन जड़ पौद्गलिक के ढेर से इसे लाभ क्या होगा? धर्म में रुचि होनी चाहिए। समय पर प्रभु का ध्यान आना चाहिए। अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूप का स्मरण होना चाहिए। ये बातें भी यदि चलती रहें तो गृहस्थावस्था में सब कुछ किया जाने पर भी उसे शांति और संतोष प्राप्त होता रहेगा।