वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 861
From जैनकोष
यमप्रशमराज्यस्य सद्बोधार्कोदयस्य च।
विवेकस्यापि लोकानामाशैव प्रतिषेधिका।।
आशा की महाविघ्नरूपता- जितने भी हित करने वाले सम्यग्ज्ञान हैं उनमें बाधा डालने वाली आशा है। किसी से कहा जाय कि तुम अमुक व्रत लो, आजीवन पालो अथवा कुछ दिन नियम करके पालन करे तो उसका भाव नहीं होता, क्यों नहीं होता कि आशा लगी हुई है। आशा का जहाँ भाव होता है वहाँ व्रत नियम का पालन नहीं किया जा सकता है। शांति वहाँ नहीं है, जहाँ आशा लगी है, जो सामने चीज न हो उसकी आशा की जाती है। अनिश्चित चीज की आशा है तो उस ही ओर धुन है, उसके प्रति अनेक चिंताएँ हुआ करती। यों आशा जिन्हें रहती है उन्हें शांति का साम्राज्य कैसे हो सकता है? जहाँ आशा है वहाँ सम्यग्ज्ञान भी नहीं होता। यद्यपि मेरा स्वरूप सिद्ध समान है, अनंत शक्ति, अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद का निधान है, लेकिन एक आशा के वश होकर सारा सम्यग्ज्ञान खो दिया। जब सम्यग्ज्ञान नहीं रहा और आशा की भीख रही आयी तो यह अज्ञान ही तो रहा। जहाँ आशा होती है वहाँ सम्यग्ज्ञान नहीं बनता। विवेक का विनाश करने वाला भी आशा का भाव है। जहाँ आशा है वहाँ विवेक नहीं रहता। क्या करना चाहिए, क्या न करना चाहिए इस ओर चाहे बहुत कुछ भी सोच लिया जाय, अनेक बातें चित्त में आयें, अमुक काम से मेरा हित है, अमुक काम मुझे करना चाहिए, लेकिन जब आशा का भाव उदित होता है तो वह सब विवेक भूल जाता है। तो आशा विवेक का भी विनाश करने वाली है। आशा नष्ट हो जाय तो सर्व सिद्धियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। अपने आपमें निरखो, अपने स्वरूप में कहाँ क्लेश है? यह आत्मा समस्त वस्तुवों से न्यारा है या नहीं, खूब निरख कर लो, क्या यह जीव घर से मिलाजुला है अथवा ईंट मकान से तन्मय है, अथवा जो परिजन हैं उनमें क्या यह आत्मा तन्मय है? कोई संबंध तो नहीं है। सब अपना-अपना परिणमन करते हैं, सबका अपना-अपना भवितव्य है, निमित्तनैमित्तिक योग है। सब अपने उपादान से ही अपना कार्य करते चले आ रहे हैं। संबंध तो कुछ नहीं है फिर यह आशा का भाव क्यों आता? मेरा अमुक यों बन जाय, अमुक यों बन जाय, ऐसी आशा क्यों जगती है? जब किसी परपदार्थ से इस जीव का कुछ संबंध नहीं तब आशा क्यों होती है? उस आशा के होने का कारण है अज्ञान। नहीं पहिचाना अपना स्वरूप, नहीं जान पाया सर्व पदार्थों को न्यारा-न्यारा, इसलिए आशा जगती है।
आशा के रहते हुए सुख की नितांत असंभूति- कोई कितना भी धनी हो, जो वर्तमान में धन है उसका उसे सुख है नहीं, क्योंकि उससे अधिक के लिए आशा चल रही है? जहाँ आशा जगती हो वहाँ आनंद कहाँ से आ सकता है, संतोष कैसे हो सकता है? और आशा फैली अवश्य है समस्त लोकभर में, अर्थात् सारे लोक की इसको आकांक्षा उत्पन्न होती है, किंतु जीव तो है अनंत चाहने वाले। यह लोक किस किस के बटवारे में जाय? अथवा ऐसा होता ही नहीं है कि लौकिक वैभव किसी एक के पास आ जाय, पर चाह रहती है इसे समस्त लौकिक वैभव की। अतएव यह दु:खी होता है। तो आशा ही समस्त सुखों का विनाश करने वाली है। यह जीव आशा करने के लिए नहीं पाया, पदार्थों का संग्रह करने के लिए नहीं पाया। यह जीवन विश्वर है, इस जीवन से कोई अविनाशी कार्य का प्रोग्राम बनायें तब तो वह भली बात है। वह प्रोग्राम हो सकता है आत्मशांति का, सम्यग्ज्ञान का। मेरे वह ज्ञान प्रकट हो जिसके प्रकट होने पर फिर शीघ्र ही समस्त कल्याण हो जाते हैं। लोग बड़े-बड़े व्यापार करते हैं, पर यह एक आत्मव्यापार नहीं करते। जैसे पहिले कोई फैक्टरी खोलता है तो पहिले उसमें 10-5 लाख रुपये खर्च करता है। काम चल जाने पर 10-5 वर्ष बाद में उसे बहुत अधिक आय होने लगती है, तो बड़ा लाभ पाने के लिए पहिले बड़ा त्याग करना होता है। यदि अनंतकाल तक के लिए हम शांति का लाभ चाहें तो पहिले बड़े-बड़े त्याग करने होंगे। उस ही उपाय में यह बताया है कि आशा का विनाश करें।