वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 889
From जैनकोष
भूतहिंसाकरी चेति दुर्भाषां दशधा त्यजेत्।
हितं मितमसंदिग्धं स्याद्भाषासमितिर्मुने:।।
त्याज्य दशविध वचन- कर्कश वचन जो बड़े कठोर हैं, सुनने में भी बड़े बुरे लगते हैं और जो मर्म को भी छेद दें, अपने प्राणों को भी दु:खा दें ऐसे कर्कश वचन साधुसंत मुनिजनों के नहीं होते। कुछ लोगों की एक प्रकृति बन जाती, बोलचाल में एक कठोर व्यवहार रखते हैं तो कभी कोई उन्हीं कठोर वचनों के माध्यम से कलह और विवाद बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, बिना विचारे हुए वचन, अविवेकपूर्ण वाणी और ऐसे कि कुछ प्रयोजन नहीं, बिना ही प्रयोजन दूसरे को सताने की वाणी बोलना ये सब त्याज्य भाषा है।
एक ने कथा सुनाया था कि एक पुरुष किसी तीर्थयात्रा में गया, मान लो हरिद्वार गया। वहाँ उसे लगने लगे दस्त, बीमार हो गया, बड़ी तकलीफ पायी तो एक बुढ़िया ने उसे कहा बेटा तुम दु:खी मत हो, तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तुम इसी झौंपड़ी में रहो, हम तुम्हें खिचड़ी बनाकर खिला दिया करेंगे, यही खावो और रहो। उसने कहा अच्छा माँ। रहने लगा, पर वह बोलने वाला बहुत अधिक था और बोले भी अटपट। बैठा बैठा क्या बात करे बुढ़िया से? बात किये बिना चैन न पड़े, ऐसे भी लोग होते हैं। तो वह कहता है- बुढ़िया माँ ! तुम यहाँ अकेली रहती हो, तुम्हारा पेट कौन भरता है? वह बुढ़िया बोली हमारा एक बेटा अमुक शहर में रहता है वह रुपये भेज देता है। उससे अपना काम चलाती हूँ। तो फिर वह पुरुष बोला- अगर वह बेटा मर गया तो फिर कौन देगा? भला बतलावो यह भी कहने की कोई बात है? खैर उसने सुन कर गम खा लिया, फिर वह पुरुष बोला- तुम यहाँ अकेली रहती हो, तुम्हारा मन भी न लगता होगा, हमारे साथ चलो तुम्हारी शादी करा देंगे। इतनी बात सुनकर उसे क्रोध आया और कल्छुली उठाकर कहा- जा तेरा यहाँ गुजारा नहीं है, जहाँ जाना हो जा। तो बिना ही प्रयोजन ऐसे कर्कश वचन कहना यह तो अशोभनीय और अहितमयी भाषण है। दूसरे के चित्त को क्लेश पहुँचे, ऐसे कठोर वचन हों, दूसरे को भी क्रोध उत्पन्न करा देने वाले वचन हों वे सब त्यागने योग्य हैं। कोई लोग ऐसे मायावी होते हैं कि बोलेंगे बड़ी शांति के ढंग से और ऐसी बात बोलेंगे कि जिसमें दूसरे को क्रोध उत्पन्न हो जाय, ये सब विवेकरहित भाषायें हैं। जो अपना अभिमान उत्पन्न करायें, दूसरे को भय उत्पन्न कर दें, अनेक जीवों की हिंसा करायें वे सब दुर्भाषायें हैं, इन दुर्भाषावों को त्यागकर ऐसे वचन बोलना चाहिए जो दूसरों का और अपना हित करें। इसके लिए पहिले तो यह अभ्यास बनाना होगा कि कोई आवश्यक काम हो, बोलने की जहाँ आवश्यकता ही हो, जब बोलना आवश्यक हो तभी बोले, वह तो स्व पर हितकारी वचन बोल सकेगा। जो भाषा बोले वह परिमित हो। दूसरे असंदिग्ध हो अर्थात् ऐसे वचन बोले जिनमें कुछ संदेह न हो। जिसे बोलते हैं दुहरे अर्थ वाली भाषा जिसका कोई कुछ अर्थ लगा सकता, कोई कुछ अर्थ लगा सकता। जैसे ज्योतिषियों से कोई पूछे, क्यों जी लड़का होगा या लड़की? तो वह लिख देता है किसी पर्चे में और कह देता है कि इसे अभी खोलकर न देखना, बिल्कुल सत्य निकलेगा। लिख दिया लड़का होगा नहीं लड़की, इसमें विराम कहीं नहीं लगाया। जब लड़का हो गया तो कहते हैं- देखो लिखा था ना कि लड़का होगा, नहीं लड़की। और, जो लड़की हो गयी तो कहते हैं देखो ना लिख दिया था लड़का होगा नहीं, लड़की। ऐसे ही ज्योतिषी से पूछे कि आज दिन कैसा रहेगा? तो वह कह देता खूब घमाघम। अगर तेज धूप रही तो लोग कहते- देखो कहा था ना कि खूब घमाघम रहेगा और यदि खूब पानी बरस गया तो लोग कहते- देखो वह कहता था ना कि खूब घमाघम आज रहेगा। तो कुछ ऐसे वचन होते हैं जो संदेहपूर्ण होते हैं, ऐसी संदिग्धभाषा भी न बोलना चाहिए। वचन ऐसे हो जो हितकारी हों, परिमित हों, जिनमें संदेह न हो, स्पष्ट अर्थ आये। जो साहित्य, संस्कृत, दर्शनशास्त्र आदिक जानते हैं वे यह देखेंगे कि दि. जैन वीतराग ऋषियों ने कितना स्पष्ट सरल भाषा में दर्शन जैसे कठिन तत्त्वों का वर्णन किया है। भले ही जिन्होंने कुछ अध्ययन नहीं किया उन्हें तो इन सरल ग्रंथों का भी समझना बड़ा कठिन है, लेकिन उस विषय के अन्य अन्य ग्रंथों को तो देखिये, कभी देखा होगा किसी के ऐसे भी लेख छपते हैं पत्रिकावों में कि उन्हें पढ़ते जाइये, बहुत पढ़ गए, पर अर्थ वहाँ कुछ न निकलेगा। शब्दों का आडंबर बहुत है और सुनने वालों को भी सौम्य और श्रृंगार की बात अधिक मिलेगी, पर अर्थ उसका क्या निकला इसका कुछ पता नहीं रहता? और किसी के लेख इतने स्पष्ट होते हैं कि जितने वाक्य पढ़ते जाइये, पढ़ते ही सब अर्थ स्पष्ट विदित हो जाता है। तो जैन ऋषियों ने दर्शन जैसे कठिन ग्रंथों को लिखा तो एकदम सीधी बात तुरंत चित्त में समाती जाय, स्पष्ट हो जाय, ऐसे वचनों से उनका विवरण किया है। तो जो संदेहसहित भाषा हो, सीधी और स्पष्ट भाषा हो ऐसी वाणी बोलना चाहिए। तो जो हितकारी, परिमित, संदेहरहित प्रिय वचन बोले जाते हैं उसका नाम है भाषासमिति। ऐसी प्रवृत्ति करने वाले योगीश्वर आत्मध्यान के पात्र होते हैं।