वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 891
From जैनकोष
शुद्धं काले परैर्दत्ततनुद्दिष्टमयाचितम्।
अदतोऽन्नं मुनेर्ज्ञेया एषणासमिति: परा।।
साधु की एषणासमिति में उदि्दष्टनाम का दोष- मुनि के एषणासमिति का इसमें वर्णन किया है। एषणा का अर्थ है खोजना। अपना शुद्ध आहार विधिपूर्वक खोजना इसका नाम है एषणासमिति। जो 16 प्रकार के उद्गम दोष, 16 प्रकार के उत्पादन दोष, 10 प्रकार के एषणा दोष और 4 प्रकार के मोहविकार के दोष, ऐसे 46 दोष रहित ठीक समय पर दूसरे के द्वारा दिया गया याचनारहित आहार करना सो एषणासमिति है। उद्गम दोष श्रावक के अधीन हैं। जैसे उद्दिष्ट दोष एक साधु के लिए बनाया गया आहार उद्दिष्ट दोष वाला कहलाता है। ऐसा आहार साधु नहीं करते और न साधु को ऐसा आहार देना चाहिए। जो आहार केवल साधु के लिए बने जैसे कि और तो सब लोग अशुद्ध खायें और एक पावभर के आटे का साधु को बना दिया भोजन तो वह भोजन साधु के लिए योग्य नहीं है। भले ही कोई गृहस्थ रोज-रोज अशुद्ध खा रहा था लेकिन एक दिन भी सब घर के लिए शुद्ध भोजन बना ले और उसमें साधु का भी ख्याल रखे कि मैं साधु को भी भोजन कराऊँगा तो वहाँ यह दोष न लगेगा। केवल साधु के लिए अथवा किसी भेष वाले गृहस्थ के लिए या ऐसा सोचकर कि जो कोई साधु पाखंडी आयेंगे उनके लिए बनाया है तो ऐसे साधुवों का जो भोजन बनता है उसे उद्दिष्ट दोष कहते हैं। इस उद्दिष्ट दोष से मुनि के आरंभ में अनुमोदना का दोष लगता है। जो श्रावक सब घर के लिए या अपने कुछ लोगों के लिए भोजन बनाये उसमें से साधु को आहार देना चाहिए। जैसे कुछ लोग यों करें कि यह तो साधु के लिए है और साधु न आयें तो वह भोजन घर वाले न खायें, सोचें कि यह तो निर्माल्य हो गया है, इसे हम लोग न खायें, औरों को दे दें, इस तरह का जो भोजन हो तो उसमें उद्दिष्ट का दोष है।
एषणासमिति में परिहार्य साधिक, पूति, मिश्र व प्राभृतक दोष- दूसरा दोष है साधिक दोष। दातार अपने लिए भोजन बना रहे थे। इतने में सुन लिया कि कोई साधु आ रहे हैं या बीच में ध्यान आया कि मैं साधु को भी खिलाऊँ तो कुछ ज्यादा आटा चावल डाल दें यह है साधिक दोष। बना रहे थे आधा सेर आटा की रोटी और उसमें एक पाव आटा और मिला दिया या आधासेर चावल पका रहे थे उसमें एक पाव चावल और डाल दिया तो यह दोषी भोजन हो गया। इसमें भी साधु के निमित्त का दोष आता है। एक दोष है पूति दोष। प्रासुक वस्तु में गैर प्रासुक चीज मिला देना अथवा ऐसा संकल्प करना कि इस बर्तन के द्वारा जब हम साधु को भोजन दे लें या इस बर्तन में बचे हुए भोजन को पहिले साधु को दे दें तब फिर हम इस बर्तन में खायेंगे, ऐसा ख्याल करके बनाये तो उसमें भी दोष है। एक मिश्र दोष है। प्रासुक भी आहार है तो भी अन्य लोग खायेंगे, हम सब भी खायेंगे और उनके साथ-साथ साधुवों को भी भोजन देंगे ऐसा विचार करके जो भोजन दिया जाय वह है मिश्र दोष का भोजन। एक प्रभृत दोष है। कोई ऐसा संकल्प कर ले कि मैं अमुक दिन अमुक तिथि को नियम से मुनियों को दान करूँगा और फिर उस दिन न करके अन्य दिन करे तो इसमें भी दोष है। जैसे लोग पूजा की बारी बाँध लेते हैं कि हम इतवार को पूजा करेंगे तुम सोमवार को करोगे तो वह भगवत्पूजा है, यों ही कोई श्रावक नियम कर ले कि हम तो सोमवार के दिन साधु को आहार देंगे और फिर उसमें कभी ऐसा सोच ले कि क्या है, और किसी दिन कर लेंगे तो उसमें दोष है क्योंकि अपने लिए हुए नियम से डिगा।
एषणासमिति में परिहार्य बलि, न्यस्त, प्रादुष्कृत, क्रीत व परिवर्तित दोष- एक बलिदोष है, जैसे किन्हीं देवतावों के लिए, यक्ष आदिक के लिए आहार बनाया जाय और उसमें बचा हुआ आहार उन साधुवों को दे तो वह भी दोषी है। एक न्यस्त दोष है, जिस बर्तन में भोजन बनाया है उसमें से निकालकर किसी कटोरी में सजाकर भोजन दे तो वह आहार दोषीक है। जिस बर्तन में बना है उसी में भोजन देना चाहिए। एक प्रादुष्कृत दोष है। साधु के घर आ जाने पर फिर भोजन के बर्तन चौकी वगैरह को एक जगह से दूसरी जगह धरना, उठाना, ले जाना सो प्रादुष्कृत दोष है। जैसे कुछ मंडप वगैरह सजा हुआ था या राख वगैरह रखी हुई थी, बर्तन साफ करने लगे, दिया जलाने लगे, विशेष बात करने लगे साधु के घर पर आ जाने पर तो वह प्रादुष्कृत दोष है। एक क्रीत दोष है। जब साधु भिक्षा के लिए घर पर आये तब कोई बाजार से कोई चीज खरीदकर साधु को खिलाने के लिए मंगवाये तो वह चीज साधु के ग्रहण करने योग्य नहीं है। हाँ पहिले से ही जो हो सो ठीक है। एक प्राभित दोष होता है, उधार लाकर तैयार किया गया आहार साधु को देना इसमें प्राभित दोष है। जब साधु भिक्षा के लिए घर पर आये तो कहीं पास पड़ोस के किसी से कोई चीज बदलकर फिर उसे साधु को दे तो यह परिवर्तित दोष है। जैसे भाई तुम सेब ले लो संतरा हमें दे दो- इस तरह से बदलकर लाई हुई चीज साधु को देना यह परिवर्तित दोष है। यह सब इसलिए दोष हैं कि ऐसा करने में श्रावकों को संक्लेश है। कुछ उसने कष्ट तो उठाया, कोई नई बात की, अतएव ये सब दोष माने गए हैं।
एषणासमिति में निषिद्ध, अपहृत, उद्भिन्न, अच्छेद्य, मालारोहण दोष- एक है निषिद्ध दोष, जैसे रसोईघर में दो चार लोग बैठे ही रहते हैं तो कोई चीज दे रहा हो, दूसरा मना कर दे यह न दो, इससे जुखाम होता है, यह न दो इससे नुकसान होता है, चाहे दुर्भाव से कहा हो, पर एक बार निषेध किया जाने पर साधु को आहार दिया जाय तो वह निषिद्ध दोष हुआ। ऐसा निषिद्ध भोजन अगर साधु ग्रहण करे तो उसमें दीनता का दोष आता है। एक आदमी मना कर रहा है और फिर भी साधु उसे ले तो न लेना चाहिए। एक दोष अपहृत है। दूसरे मोहल्ले से, दूसरे गाँव से लाया हुआ भोजन साधु को दे तो वह अपहृत दोष है। अपहृत दोष में ईर्यापथ सिद्ध नहीं होता। बहुत दूर से कोई भोजन लाये, दूसरे मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में ले जाय तो वह आहार न लेना चाहिए। एक उद्भिन्न दोष है। घी, मुनक्का, किसमिस आदिक कोई वस्तु डिब्बे में भरी धरी हो, शील बंद हो और साधु के घर आने पर उसे खोलकर दिया जाय तो यह उद्भिन्न दोष है। एक आच्छेद्य दोष है। राजा मंत्री आदिक बड़े पुरुष के भय से कोर्इ श्रावक साधु को आहार दे तो वह आहार दोषीक है। क्योंकि वह जबरदस्ती का आहार है। श्रावक ने अनुराग से नहीं दिया, बड़े आदमियों के डर से दिया। एक मालारोहण दोष है। असैनी पर चढ़कर ऊपर से कोई चीज लाकर साधु को दी जाय तो वह मालारोहण दोष है। क्योंकि ऐसा करने में एक तो शुद्धि नहीं रहती, उसमें जल्दबाजी है, उस जल्दबाजी में कहीं कोई सीढ़ी से गिर जाय तो फिर क्या हो? तो ये 16 प्रकार के उद्गम दोष हैं, जो कि श्रावक के अधीन हैं। वास्तविक विधि से इन दोषों को टालें तो टाल सकते हैं।
उत्पादन दोषों में धातृदोष, दूतदोष, निमित्त व पनीपक दोष- 16 उत्पादन दोष हैं जो कि साधु के अधीन हैं, जैसे एक धातृदोष है। गृहस्थ के बालक के प्रति कोई ऐसा उपदेश दे कि बालकों को यों सजावो, यों खिलावो, यों रखो, फिर उस गृहस्थ के घर भोजन करे तो इसमें धातृदोष है, क्योंकि इसमें लिप्सा का दोष लग गया। पहिले गृहस्थ को प्रसन्न कर दिया, गृहस्थ समझ गया कि साधु महाराज हमारे बच्चे से बड़ा प्यार करते हैं तो इस तरह गृहस्थ को प्रसन्न करे फिर उसके यहाँ बने हुए आहार को ग्रहण करे तो इसमें धातृदोष है। यह दोष यों लगा कि पहले तो रूखा सूखा भोजन मिलता था, अब सरस भोजन प्राप्त करने का यह उपाय किया है। एक दूतदोष है। किसी गाँव से चलकर किसी दूसरे गाँव में साधु पहुँचा तो वहाँ जाकर किसी का किसी से संदेशा कहे और फिर उसके यहाँ आहार ले तो यह है दूतदोष। तुम्हारे मौसा ने यों कहा है, तुम्हारे फलाने ने यों कहा है ऐसा संदेशा सुना दिया ताकि श्रावक खुश होकर आहार दे, तो ऐसा आहार करने में साधु को दूतदोष लगता है। एक दोष का नाम है निमित्तदोष। कोई साधु किसी का हाथ देखे, कुछ बातें बताते या गड़े हुए धन को बताये, और ये बातें बताकर फिर उसके यहाँ आहार ग्रहण करे तो उसमें निमित्तदोष लगता है। एक पनीपक दोष है। गृहस्थ जैसी बात सुनना चाहते हैं, वैसी ही बातें सुनाकर उन्हें संतुष्ट कर दे, जैसे कोई गृहस्थ पूछे कि कौवा, कुत्तों को आहार दान देने में पुण्य है या नहीं? तो उनका मतलब पुण्य सुनने का था तो साधु ने कह दिया- हाँ उसमें खूब पुण्य है, इस तरह से वचन बोलकर फिर उनके यहाँ आहार लेना सो यह पनीपक दोष है।
एषणासमिति में परिहार्य आजीव, क्रोध, मान, माया, लोभ नाम के दोष- एक आजीव दोष है, अपनी जाति कुल की प्रशंसा करना, मैं बड़े वंश का हूँ, बड़े घराने का हूँ, इस प्रकार से अपनी बड़ाई प्रकट करना, अपनी चतुराई प्रकट करना फिर लोगों के यहाँ आहार ग्रहण करना यह आजीव दोष है। जैसे गृहस्थ लोग तो रोजिगार करके करते हैं इसी तरह उस साधु ने अपनी आजीविका बना ली तो उसमें दीनता है, लिप्सा है, इस कारण यह दोष है। एक क्रोध दोष है। क्रुद्ध होकर आहार का प्रबंध करवा लेना। इस गांव में कोई श्रावक नहीं है, सब तुच्छ हैं, यों क्रोध करना और फिर उनके यहाँ आहार का प्रबंध करवाकर आहार ग्रहण करना यह क्रोधदोष है। इसमें संयम की हानि है। एक मान दोष है। अभिमान के वश होकर आहार ग्रहण करना सो मान दोष है। या आहार ग्रहण करने में अभिमान उत्पन्न कर लेना यह अभिमान दोष है, मान दोष है। छलकपट करके मायाचार करके भोजनादिक ग्रहण करे सो माया दोष है। एक लोभ दोष है। लुब्धपरिणाम रखकर आसक्ति के परिणाम रखकर फिर आहार ग्रहण करना इसका नाम लोभ दोष है।
एषणासमिति में परिहार्य पूर्वस्तुति, चिकित्सा, विद्यादोष, मंत्रदोष चूर्ण एवं वश्य दोष- एक है पूर्वस्तुति दोष। किसी दातार की बड़ाई करना, फिर उसके यहाँ ग्रहण करना यह पूर्वस्तुति दोष है। एक है पश्चात् दोष। आहार ग्रहण करने के बाद फिर उस दातार की प्रशंसा करना सो पश्चात् दोष है। एक चिकित्सा दोष है। किसी को कोई चिकित्सा बतलाकर फिर उसके यहाँ आहार ग्रहण करे तो वह चिकित्सा दोष है। एक है विद्या दोष। किसी को कोई विद्या बताकर या कोई अपना विद्या का चमत्कार दिखाकर, फिर उन श्रावकों के यहाँ आहार ग्रहण करें तो इसमें विद्या दोष है। कोई मंत्र की बात बताकर, किसी देव को मंत्र के द्वारा बुलाकर लोगों को मंत्र की बात बताये, फिर उसके यहाँ आहार ग्रहण करे तो यह मंत्र दोष है। एक होता है चूर्ण दोष। कोई चूरण या अंजन या शृंगार साज के चूर्ण तैयार करके बता करके फिर लोगों के यहाँ आहार ग्रहण करे सो चूर्ण दोष है। एक होता है वश दोष। जो जिसके वश न हो उसे वश करने का उपाय बताकर वशीकरण मंत्र देकर या उसे वश में कराकर, पुरुष स्त्री को मिलाकर ऐसा उपाय बताकर भोजन ग्रहण करे सो वश दोष है। ये सब दोष साधु खुद उत्पन्न करता है अतएव इनका नाम उत्पादन दोष है।
एषणासमिति परिहार्य शंकित, पिहित, म्रक्षित, निक्षिप्त, छोटित, अपरिणत व व्यवहरण दोष- उत्पादन दोष जिस भोजन में आयें वह भोजन न ग्रहण करना चाहिए। जैसे किसी भोजन में शंका हो गई कि यह भोजन करने योग्य है या नहीं करने योग्य है और फिर उसे करे तो यह शंकित दोष है। अप्रासुक वस्तु या वजनदार प्रासुक वस्तु से ढके हुए भोजन को उघाड़कर दिया जाय तो वह पिहितदोष है। घी, तेल आदि से चिकने हाथ या बर्तनों से भोजन दिया जाय तो वह म्रक्षित दोष है। सचित्त या त्रस जीव पर रखे हुए भोजन को लेना सो निक्षिप्त दोष है। कुछ भोजन को गिराकर या छोड़कर इष्ट आहार के ग्रहण करने को छोटित दोष कहते हैं। जिसका रूप, रस, गंध न पलटा हो ऐसे परिणत जल के ग्रहण करने को अपरिणतदोष कहते हैं। दातार अपने लटके हुए वस्त्र को खींचकर या बर्तन चौकी आदि घसीटकर आहार दे उस आहार के लेने में व्यवहरण दोष आता है।
एषणासमिति में परिहार्य दायक, लिप्त व मिश्रदोष- अयोग्य दातार से आहार ग्रहण करने में दायकदोष लगता है। अयोग्य दायक कुछ इस प्रकार हैं- मद्यपायी, रोगपीड़ित, मूर्छित, रजस्वला स्त्री, 40 दिन तक प्रसूता स्त्री, वमन करके आया हुआ व्यक्ति, आड़ में खड़ा व्यक्ति, पात्र के स्थान से नीचे या ऊँचा खड़ा व्यक्ति, जातिच्युत, नपुंसक, अतिबाला, वृद्धा, 5 माह से ऊपर की गर्भवती स्त्री, अग्नि जलाने वाला, अग्नि बुझाने वाला, अग्नि को भस्म से ढाकने वाला, अग्नि घिट्टने वाला व्यक्ति इत्यादि दायक आहार देने के लिए निषिद्ध है। भीगे हुए हाथों से या बर्तनों से आहार ग्रहण करने को लिप्त दोष कहते हैं। सचित्त या जीवित त्रस से मिले हुए भोजन को मिश्रदोष से दूषित कहते हैं। साधु संतजन उक्त उद्गम, उत्पादन व भोजन दोषों को टालकर आहार ग्रहण करते हैं।
एषणासमिति में परिहार्य चार महाविकृति दोष- उद्गम, उत्पादन दोष के अतिरिक्त चार अन्य महादोष है जिन्हें महाविकृति दोष कहते हैं, इन्हें भी टालकर साधु आहार ग्रहण करते हैं। एषणासमिति के वर्णन में निर्दोष आहार का विवरण चल रहा है। आहार के चार महादोषों को भी टालकर साधु आहार लेते हैं। एक तो अंगार अर्थात् यह वस्तु अच्छी है, स्वादिष्ट है, कुछ और मिले, इस तरह आसक्तिपूर्वक भोजन करने का नाम अंगार दोष है। दोष तो परिणामों से है ना? शुद्ध आहार भी होना चाहिए। और, अशुद्ध परिणाम से भोजन करे तो एषणासमिति नहीं रहती। भले ही आहार बहुत प्रासुक है, मर्यादित है लेकिन खाने वाला यदि अशुद्ध भाव रखकर खाये तो उसे एषणासमिति न कहेंगे। दूसरा है धन दोष। यह वस्तु अच्छी नहीं, अनिष्ट है ऐसी ग्लानि करते हुए भोजन करना सो धन दोष है। तीसरा है संयोजन दोष। गर्म ठंडा मिलाकर, चिकना रूखा मिलाकर, परस्पर विरुद्ध बात मिलाकर खाये सो संयोजन दोष है। और चौथा दोष है अतिमात्र। भोजन का जो प्रमाण बताया है उस प्रमाण से अधिक आहार करना अतिमात्र दोष है। आहार का प्रमाण बताया गया है कि आधा पेट तो भोजन करे और चौथाई पेट जल से भरे, चौथाई पेट खाली रखे, यह है आहार का प्रमाण। उस प्रमाण को भंग करके अधिक भोजन कर लेना सो आहार का अतिमात्र दोष है। यों समस्त दोषों को टालकर और अंतरायों को भी टालकर भोजन करना सो एषणासमिति है।
एषणासमिति में परिहार्य अंतराय- अंतरायों में संक्षेप से ऐसा समझिये कि आहार चर्या में या आहार के समय साधु के शरीर पर कोई कौवा आदिक बीट कर दे तो वह अंतराय है। आहार को जाते हुए या खड़े हुए साधु के किसी पैर घुटने आदि में विष्टा आदिक अशुचि पदार्थ का स्पर्श हो जाय तो अमेद्ध दोष है। चलते हुए में कोई विष्टा से पैर भिड़ गया तो फिर अंतराय हो जाता है। एक है छर्दी अंतराय। किसी कारण साधु को भोजन करने के बीच वमन हो जाय तो वह छर्दी नामक अंतराय है। एक है रोधन अंतराय। कोई यदि रोक दे कि आज भोजन न करना, चाहे कोई वैद्य ही कह दे तो भी अंतराय हो जाता है। अच्छे परिणाम से कहे या बुरे परिणाम से। शोक से अपना अश्रु बह जायें या किसी का ऐसा रोना सुने कि जिसमें खुद के अश्रु बह जायें तो वह अश्रुपात अंतराय है। यदि खुद नीचे के भाग का स्पर्श हो जाय तो वह भी अंतराय है। जैसे साधु स्वयं अपने पैर छू लेवे तो वह अंतराय हो जाता है। घुटने से ऊपर कोई रास्ते में लाठी लगी हो या ऊँचा पत्थर हो उसे लाँघ कर जाय तो अंतराय है, साधु फिर आहार को न जायगा। कोई जगह ऐसी हो कि नाभि से नीचे अपने शरीर को करके द्वार वगैरह से निकलना पड़े तो भी अंतराय है। त्यागी हुई चीज खाने में आ जाय तो वह भी अंतराय है। यदि अपने सम्मुख कोई चूहा, बिल्ली, कुत्ता आदिक का घात करे तो अंतराय है। आहार कर रहे हैं, कोई कौवा, चील आदिक जानवर हाथ पर से ग्रास ले जाये उड़ते हुए में तो अंतराय है। यदि साधु के हाथ से कोई ग्रास गिर जाय तो अंतराय है। भोजन करते हुए में साधु के हाथ पर कोई जीव स्वयं आकर मर जाय तो अंतराय है। भोजन करते हुए साधु को माँस, मद्य आदिक दिख जाय तो वह भी अंतराय है। भोजन करते हुए यदि किसी के द्वारा उत्पात हो जाय तो भी उपसर्ग अंतराय है। भोजन करने के लिए जा रहे हों, आहार के समय खड़े हुए पैरों के बीच से कोई पंचेंद्रिय जीव निकल जाय तो वह अंतराय है। साधु को आहार देने वाले के हाथ से याने दातार के हाथ से कटोरा आदिक बर्तन नीचे गिर जाय तो अंतराय है। भोजन को जाते हुए या आहार करते हुए साधु को कुछ साधारण सी दस्त बाधा हो जाय तो अंतराय है। साधु को आहार करते हुए के बीच में या आहार को जाते हुए के बीच में लघुशंका की बाधा हो तो अंतराय है। साधु तो चर्या करता है ना और वह आँगन तक जा भी सकता है, यदि किसी चांडाल आदिक के घर में उनका प्रवेश हो जाय तो फिर आहार न लेंगे। साधु को स्वयं कोई मूर्छा हो जाय, भूमि पर गिर जाय तो अंतराय है। यदि किसी कारणवश साधु भूमि पर गिर जाय तो अंतराय है। उनका तो चर्या के लिए चलना और खड़े आहार लेना बताया है। भिक्षा के लिए जा रहे हों या आहार कर रहे हों कोई कुत्ता, बिल्ली आदिक जानवर साधु को काट ले तो भी अंतराय है। आहार करते समय साधु को कफ, थूक, नाक आदिक निकल आये तो अंतराय है। यदि किसी द्वार से पेट का कीड़ा निकल आये तो भी अंतराय है। दातार के दिये बिना ही कोई भोजन औषधि ग्रहण कर ले या संकेत करके भोजन ले तो वह भी अंतराय है। अपने निकट में ही कहीं किसी का प्रहार हो जाय, शस्त्रघात या विकट लड़ाई हो जाय तो अंतराय है। यदि किसी पास वाले घर में आग लगी हो तो अंतराय है। यदि किसी वस्तु को पैरों से उठाकर ग्रहण कर लें तो अंतराय है। किसी वस्तु को भूमि पर से हाथ से उठाकर ग्रहण कर ले तो अंतराय है। इस तरह अनेक अंतराय है। उन्हें पालकर निर्दोष विधि से भोजन करना सो साधु की एषणासमिति है।