वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 894
From जैनकोष
विजंतुकधरापृष्ठे मूत्रश्लेष्ममलादिकम्।
क्षिपतोऽतिप्रयत्नेन व्युत्सर्गसमितिर्भवेत्।।
साधुत्वसाधना में प्रतिष्ठापनासमिति का स्थान- 5 वीं समिति है प्रतिष्ठापनासमिति। मल, मूत्र, कफ, थूक आदिक का क्षेपण निर्दोष जीव-जंतु रहित जमीन पर करे तो उसके उत्सर्गसमिति होती है। यदि कदाचित् देख लो कि कोई दूसरी मंजिल पर साधु बैठा है और वहीं से ऐसा थूके कि जमीन पर नीचे गिरे तो समझ लो कि यत्नाचार नहीं है। एक मोटी-सी बात है। साधु के तो प्रतिष्ठापना समिति में यह बताया है कि पहिले जीव-जंतु रहित जमीन देखें, यदि उस स्थान पर जीव-जंतु हों तो वहाँ मल, मूत्र, थूक आदिक का क्षेपण न करें, रात्रि के समय कहीं लघुशंका को जाना है तो पहिले दिन को तीन जगह देख आते हैं कि यदि रात्रि को लघुशंका की बाधा हुई तो हम इस जगह बाधा मिटायेंगे। तीन जगह निर्दोष जीवरहित देख लेते हैं। फिर रात्रि को यदि बाधा हुई, अँधेरा होता ही है तो उस जगह वे औंध-औंध करके उस जमीन को धीरे से निरखेंगे कि जीव जंतु तो नहीं है। यदि उन्हें जंतु मालूम पड़े तो फिर दूसरे स्थान पर उसी तरह निरखेंगे। कदाचित् वहाँ भी जंतु मालूम पड़ें तो फिर विवशता है, तीसरी जगह अपनी बाधा मिटायेंगे और बाधानिवृत्ति में प्रायश्चित्त तो हमेशा करते ही हैं। चाहे शोध करके बाधानिवृत्ति की हो, 9 बार कार्योत्सर्ग मंत्र पढ़ते हैं, यह सब प्रायश्चित्तरूप ही तो है। विशेष दोष लगे तो उसका वे प्रायश्चित्त लेते हैं। तो निर्दोष जंतुरहित पृथ्वी पर मल का बड़ी सावधानी से क्षेपण करने वाले मुनि के कायोत्सर्गसमिति होती है।