वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 896
From जैनकोष
सिद्धांतसूत्रविंयासे शश्वत्प्रेरयतोऽथवा।
भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिण:।।
साधुत्वसाधना में मनोगुप्ति का स्थान- यह साधुवों का सम्यक्चारित्र कहा जा रहा है। उसमें 5 महाव्रत और 5 समिति का वर्णन हुआ, अब गुप्तियों में मनोगुप्तियों का वर्णन किया जा रहा है। मनोगुप्ति उस साधु के होती है जो रागद्वेष से अवलंबित समस्त संकल्पों को छोड़ दे, जिन संकल्पों में रागद्वेष का संबंध भरा पड़ा है उन संकल्पों को छोड़कर जो अपने मन को स्वाधीन करता है, समताभाव में स्थिर करता है और सिद्धांतसूत्र की रचना में निरंतर मन प्रेरित रहता है उस मुनि के मनोगुप्ति होती है। इसमें इतनी बातें कही है कि प्रथम तो रागद्वेष भरा संकल्प छोड़ दें और फिर अपने मन को रागद्वेष से रहित करके स्थिर बनायें। जैसे कोई बड़ा भक्त सेवक हो तो जब उसे जिस काम में लगा दो वह तुरंत काम में लग सकता है। इसी तरह इस मन को जब जिस जगह लगाना चाहिए तुरंत लगा सके ऐसा जिसका मन स्वाधीन बन गया है और जो रागद्वेषरहित समतापरिणाम में स्थिर रहा करता है और जो ग्रंथों की सिद्धांतों की रचना करने में अपना मन लगाये रहता है ऐसे मुनि के मनोगुप्ति पूर्णतया सिद्ध हो जाती है। जब तीन गुप्तियां सिद्ध हो जाती हैं तो उस मुनि को अवधिज्ञान नियम से हो जाता है और मन:पर्ययज्ञान भी हो जाता है। तभी तो जब श्रेणिक ने जैन साधुवों की परीक्षा के लिए एक जगह हड्डियां नीचे गड़वाकर वहाँ एक कमरा खड़ा कराकर चेलना से वहाँ रसोई के लिए कहा गया तो चेलना ने रसोई उसी जगह बनाया, पर पड़गाहते समय यों कहा कि हे तीनों गुप्तियों के धारी महाराज तिष्ठ तिष्ठ तो वहाँ से जो भी साधु निकले वह सोचे कि इसने तो तीन गुप्तियों के धारी के लिए कहा है, हम अभी त्रिगुप्तिधारी हैं नहीं, किसी को मनोगुप्ति न थी, किसी को वचनगुप्ति न थी और किसी को कायगुप्ति न थी, तो सभी मुनि यों ही चले जायें। और, उनमें से कोई तीन गुप्तियों के धारी मुनि थे। तो उन्होंने अपने अवधिज्ञान के बल से जान लिया कि इस स्थान पर हड्डियां गड़ी हैं और इस इस प्रकार से यह प्रसंग छिड़ा है, तो वह मुनि भी वहाँ न रुके। अंत में श्रेणिक राजा पूछता है कि मुनिवर तो तुम्हारे यहाँ नहीं आये, पर यहाँ कोई रुका भी नहीं तो इसमें बात क्या है? तो चेलना ने बताया कि हमने त्रिगुप्तिधारक कहकर पुकारा था, इससे नहीं आये। फिर सारी कथा सुनने के लिए उन मुनियों के पास गये तो मुनियों के द्वारा पता चला कि किसी मुनि के मनोगुप्ति न थी, किसी के पास वचनगुप्ति न थी और किसी के पास कायगुप्ति न थी। इन गुप्तियों का बहुत बड़ा प्रभाव है। आत्मा आत्मा में मग्न हो जाय, अपने शांत सुधा रस का निरंतर पान करते रहें, यह बात तब संभव है जब मन पूर्ण वश हो, वचन भी पूर्ण वश हों। भीतर भी जो वचन उठते रहते हैं विचाररूप में वे अंतर्जल्प न उठें और शरीर स्थिरता से रहे तो इन गुप्तियों के प्रभाव से आत्मा आत्मस्वरूप में निस्तरंग मग्न हो जाता है। यहाँ मनोगुप्ति का स्वरूप कहा गया है कि जिन्होंने अपने मन को स्वाधीन कर लिया, समस्त संकल्पों को छोड़ दिया, समतापरिणाम में ही रहने का जो यत्न रखते हैं, सिद्धांत सूत्र ग्रंथों में जिनका मन लगा रहता है उन मुनियों के मनोगुप्ति होती है।