वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 919
From जैनकोष
दृश्यंते भुवि किं न तेऽल्पमतय: संख्याव्यतीताश्चिरम्ये लीलां परमेष्ठिनो निजनिजैस्तंवंति वाग्भि: परम्।
तं साक्षादनुभूय नित्यपरमानंदांबुराशिं पुन-र्ये जंमभ्रममुत्सृजंति सहसा धन्यास्तु ते दुर्लभा:।।
परम हितमय तत्त्व के अनुभवी की विरलता- वे पुरुष धन्य हैं और इस पृथ्वी पर वे पुरुष बिरले हैं, कठिनाई से उनका संग मिलता है जो पुरुष अपने वचनों से परमेष्ठियों के बहुत काल पर्यंत गुणानुवाद करते रहते हैं। प्रभु भजन एक बहुत धन्य और पवित्र काम है। प्रभु का स्वरूप अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतआनंद, अनंतशक्ति संपन्न है। अरहंत अवस्था में उनके शरीर तो है पर वह निर्दोष है, परमौदारिक शरीर है। ऐसे पवित्र शरीर में वे यद्यपि ठहरे हुए हैं तो भी वे असंसारी ही कहलाते, निकटसंसारी नहीं कहलाते, जीवनमुक्त कहलाने लगते हैं। ऐसा परमेष्ठी के स्वरूप का जो ध्यान करता है वह भक्त भी बड़ा पवित्र हृदय है। प्रभुभक्ति का बहुत बड़ा महत्त्व है। प्रभुभक्ति निश्छल हो, गुणों की रुचि सहित हो तो उस भक्त के चित्त में विषयकषायों के मलिन परिणाम, दु:खकारी, अहितकारी भाव फिर नहीं ठहरते हैं, और विषयकषायों के भाव न रहें, आत्मा में तो यही एक सर्वसुख मिल गया समझिये। विषयकषायों के परिणाम आत्मा को क्लेश ही उत्पन्न करते हैं। आकुलतावों से ही विषयकषाय के भाव बनते हैं, उनकी पूर्ति की आरंभ में भी आवश्यकता रहती है। और, जब उनमें प्रवृत्ति है तब भी आकुलता है, और की तो बात क्या, विषयकषाय अनुभवन के पश्चात् भी इसे महान क्लेश रहता है, जिसे मानो हमने अपना कुछ खोया पाया कुछ नहीं। कषायें करते हैं, उन कषायों के कर गुजरने के बाद फिर बुद्धि चूँकि स्वच्छ होती है तब पछतावा होता है। अहो ! मैंने क्या किया? अपना खोया है सब कुछ, लाभ कुछ नहीं पाया। तो ये विषयकषाय के परिणाम आत्मा को क्लेश के ही कारण हैं। इन विषयकषायों ने अत्यंतरहित केवल ज्ञान की मूर्ति परमात्मस्वरूप का जो विकासपूर्वक आदर करते हैं वे पुरुष धन्य हैं। ऐसे पुरुष यद्यपि हैं बिरले, मगर उन महापुरुषों की संख्या के सामने बहुत अधिक संख्या वाले हैं। किंतु महापुरुषों के सामने जो नित्य परम आनंद के स्वरूप का अनुभव करते हैं और संसार के क्लेशों को दूर कर देते हैं ऐसे महापुरुष इस पृथ्वी पर अत्यंत दुर्लभ हैं। प्रथम तो प्रभु भजन भी करने वाले इस लोक में अत्यंत बिरले हैं। मनुष्यों की संख्या देख लीजिये और उनके कितने मनुष्य प्रभु को मानने वाले हैं उनकी संख्या देखिए और फिर स्वच्छ हृदय से छलरहित प्रभु के गुणों में रुचि करने वाले कितने लोग हैं उनकी संख्या देख लीजिए। ये फिर भी असंख्यात मिलेंगे, किंतु जो एक तत्त्वज्ञान से ही रुचि रखते हैं और जो ज्ञानस्वरूप में ही अपना उपयोग बनाये रहते हैं ऐसे ज्ञानपुंज साधु संतजन जो संसार के परिभ्रमण को शीघ्र दूर कर देते हैं वे महाभाग इस पृथ्वी पर बहुत दुर्लभ हैं।
ध्यान की प्रधान सामग्री का अवलंबन लेकर नित्यानंदमय मोक्ष का लाभ लेने का अनुरोध- इस स्थल में एक रत्नत्रय का वर्णन किया है। रत्नत्रय का स्वरूप कहा, रत्नत्रय के धारियों की महिमा कही गयी। उससे हमें यह शिक्षा लेना है कि ध्यान के अंगों में प्रधान अंग ये तीन हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। ये तीन निश्चय रूप और व्यवहाररूप हैं। अथवा यों समझिये कि ये तीन निश्चय की शैली से और व्यवहार की शैली से प्रकाशमान होते हैं, जो निश्चयरूप और व्यवहाररूप रत्नत्रय को जानकर भली प्रकार स्वीकार करता है उसके ही मोक्ष के कारण जो आत्मस्वरूप का ध्यान है उसकी सिद्धि होती है। आत्मध्यान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है और आत्मध्यान उनके ही बनता है, जो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को अंगीकार करते हैं। अन्य लोग तो इनका अनेक प्रकार से ध्यान करते हैं और ध्यान की सामग्री का स्वरूप बताते हैं, उनके कदाचित् विनिश्चय लौकिक चमत्कार की सिद्धि भी हो जाय पर अष्टकर्मों से रहित होकर पवित्र केवल अंतस्तत्त्व ही रह जाय, जिनके ज्ञान और आनंद का अनंत विकास है ऐसी स्थिति की सिद्धि उनके कभी नहीं हो सकती जो रत्नत्रय से तो दूर हैं और ध्यान की साधना में बहुत बहुत अपने शारीरिक उपाय बनाये रहते हैं- जैसे प्राणायाम करके अपने शरीर के भीतर के अंगों की शुद्धि कर लेना, और यहाँ तक निपुण हो जाते हैं कि नासिका के द्वार से कपड़े की पतली चिट मुँह से निकाल लेते हैं और फिर नासिका को साफ कर लेते हैं, यहाँ तक अंगशुद्धि कर लेते हैं, और-और भी जितनी आसनसिद्धियाँ हैं उन्हें भी कर लेते हैं और कुछ लौकिक चमत्कार भी बन जाते हैं, कदाचित् आश्चर्यजनक काम भी कर डालते हैं लेकिन एक लौकिक सिद्धि तक ही रह जाते हैं, मोक्ष की सिद्धि नहीं रहती है क्योंकि मुक्त स्वरूप सहज ज्ञानभावमात्र अंतस्तत्त्व का उनके परिचय ही नहीं है, उस परमसिद्धि का कारण तो सत्य आत्मध्यान है और उस आत्मध्यान की प्राप्ति होती है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप होने से। उसके सिलसिले में इस स्थल में रत्नत्रय का वर्णन किया है। जो रत्नत्रय संपन्न है वह ध्यान का पात्र होता है। यहाँ तक ध्यान ध्याता ज्ञान के उपाय इन सबका वर्णन किया है। इसके पश्चात् फिर कषाय और विषयों के जीतने का उपाय कहा जायेगा और फिर उस स्थल के बाद फिर ध्यान का सीधा वर्णन चलेगा कि ध्यान किस तरह किया जाता है? लोग कैसे ध्यान करते हैं, कैसे करना चाहिए? ध्यान की विधि का सीधा वर्णन चलेगा।
।।ज्ञानार्णव प्रवचन एकादश भाग समाप्त।।