वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 920
From जैनकोष
सत्संयममहारत्नं यमप्रशमजीवितम्।
देहिनां निर्दहत्येव क्रोधवह नि:समुत्थित:।।920।।
क्रोधाग्नि द्वारा सत्संयमोपवन का निर्दहन― आत्मध्यान में साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं इनका तो वर्णन किया जा चुका, अब आत्मध्यान के घातक क्या-क्या परिणाम हैं उनका वर्णन कुछ परिच्छेदों में होगा। ये क्रोधादिक कषायें ध्यान के घातक हैं, उनमें से क्रोधकषाय का वर्णन किया जा रहा है। क्रोधरूपी अग्नि संयमरूपी बाग को भस्म कर देती है और उपवास, यम, नियम शांति आदिक कलापों से जिसको बढ़ाया गया था उस संयमरूपी उपवन को प्रज्ज्वलित होती हुई क्रोधरूपी अग्नि भस्म कर देती है। संयम नाम है चारित्र का। जहाँ क्रोधकषाय उत्पन्न हो वहाँ चारित्र कहाँ रहा, चारित्र का अर्थ है अपने स्वरूप में अविचलित रहना। जब क्रोध का दाह उत्पन्न होता है तो यह जीव अपने स्वरूप में नहीं ठहर सकता। इसकी किसी न किसी परवस्तु में दृष्टि बनती है, अपना बाधक उसे मानता है, शत्रु समझता है, और उस क्रोध में ऐसी वांछा होती है कि मैं इसका समूल विनाश कर दूँ। बहुत बड़ा दृष्टांत है द्वीपायन मुनि का। वह सम्यग्दृष्टि थे, तैजसऋद्धि उनके प्रकट हुई थी लेकिन कुछ उन्मत्त बालकों के उपसर्ग को न सह सके तो उसमें इतना क्रोध उनके बढ़ा कि अशुभ तेजस निकला और नगरी को भी भस्म कर दिया अपने आपको भी भस्म कर लिया और नरकगति में गया। जिस समय तैजस का पुतला उत्पन्न होता है उस समय सम्यक्त्व का घात होता है। तो बड़े यम नियम व्रत साधना शांति का अभ्यास इन सब उपायों से जिस संयमरूपी उपवन को बढ़ाया गया उसे क्रोध भाव क्षण भर में भस्म कर देता है। और, यह तो उत्कृष्ट संयम का घात करने की बात कही, पर साधारण पुरुषों में भी जब क्रोधभाव उत्पन्न होता है तो अक्ल ठिकाने नहीं रहती है। इतना तो हम अनुभव करते हैं। जहाँ बुद्धि ही अव्यवस्थित हो जाय वहाँ व्रत नियम साधना आदि कैसे बनें? कोई-कोर्इ धर्म के सिलसिले में भी क्रोध करते हैं। जैसे कर तो रहे हैं पूजन विधान भगवद्भक्ति और उन्हीं प्रसंगों में अपने मन के अनुकूल कोई बात न बनें या हम और कुछ चाहते हों दूसरा और कुछ चाहता हो, शैली में भेद हो, अनेक बातें ऐसी होती है वहाँ भी क्रोधकषाय जग जाता है। तो जहाँ क्रोध कषाय जगा वहाँ संयम और चारित्र नहीं ठहरता।