वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 932
From जैनकोष
जयंति यमिन: क्रोधं लोकद्वयविरोधकम्।
तन्निमित्तेपि संप्राप्ते भजंतो भावनामिमां।।932।।
यमी सत्पुरुषों के क्रोधविजय का वर्णन― इस लोक और परलोक बिगाड़ने वाले क्रोध को मुनिजन जीतते हैं। वे क्रोध के कारण प्राप्त होने पर इस प्रकार भावना करते हैं जिन भावनाओं को आगे के श्लोक में कहेंगे। भावना का अर्थ है बारबार उसकी निगरानी करना, बारबार उसका चिंतन बनाये रहना। जैसे वैद्य लोग औषधियों में भावना देते हैं। आंवला के रस में आंवला के चूर्ण को भिगोना, फिर यों करना, यों 20-50 भावनायें देते हैं, तो जितनी भावनायें बढ़ती जाती हैं उतना ही औषधि में गुणविशेष बढ़ता जाता है। ऐसे ही विचारों से आत्मा का क्रोध दूर हो ऐसी भावना मुनिजन भाते हैं। वे भावनाएँ कैसी हैं इसको इस अगले श्लोक में कह रहे हैं।