वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 939
From जैनकोष
मदीयमपि चेच्चेत: क्रोधाद्यैर्विप्रलुप्यते।
अज्ञातज्ञाततत्त्वानां को विशेषस्तदा भवेत्।।939।।
क्रोधविजय में ही ज्ञाततत्त्वों की विशेषता का पोषण― ज्ञानी पुरुष विचार करते हैं कि मैं मुनि हूँ, तत्त्वज्ञानी हूँ, यदि कोई क्रोधादिक करके मेरा भी चित्त बिगड़ जायगा तो फिर अज्ञानी में और तत्त्वज्ञानी में भेद ही क्या रहा? मैं भी अज्ञानी के समान हुआ, मैं भी मूढ़ बन गया। जो बुद्धिमान पुरुष होते हैं वे हठी धूर्त पुरुषों के मुँह नहीं लगते, उनको जवाब ही दिया जाय ऐसी परिणति बुद्धिमान के नहीं होती। जान गए शठ है यह, हठी है यह, यह अपनी बुद्धि तो रखता नहीं, इसमें कुछ विवेक ही नहीं है। तो जो कह रहा है उसका क्या मुकाबला करना। यों उपेक्षा कर देता है। यदि मैं भी उनके ही समान उनको दुर्वचन बोलने लगा, क्रोध करने लगा तो मैं भी अज्ञानी ही हुआ, ऐसा विचारकर ज्ञानी संतपुरुष क्रोधादिक रूप से नहीं परिणमते। और, फिर एक विशेष बात यह है कि यह जगत दु:खमयी है। यहाँ राग आग की बड़ी दाह हो रही है जन्ममरण करके जीव बड़ी विपत्ति में पड़ रहा है। ऐसी विपत्ति की स्थिति में तो विपदा से बच निकल जाने का उपाय करना चाहिये या अन्य-अन्य बात करना चाहिए। जो पुरुष किसी विपदा में होता है वह दूसरे का कुछ बुरा करने की बात तो भूल जाता है और खुद को विपदा से बचा लेने के प्रयत्न में लगता है। तो मैं यहाँ किसी दूसरे के प्रति क्या क्रोध करूँ, क्या परिणाम बिगाडूँ। मैं स्वयं मोह राग द्वेष आदिक विकारों से दु:खी हूँ, जन्म मरण के चक्र लगाने से विपन्न हूँ, उसे अपनी विपदा मिटाना है तो विपदा मिटाने का उसका परिणाम रहता है, दूसरे जीवों को बैरी नहीं मानता, न उन पर क्रोध करता है।