वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 941
From जैनकोष
सहस्व प्राक्तनासातफलं स्वस्थेन चेतसा।
निष्प्रतीकारमालोक्य भविष्यद्दु:खशंकित:।।941।।
समता से दु:खसहन की भावना― ज्ञानी पुरुष किसी विपत्ति के आने पर उसमें धीरता नहीं नष्ट करते हैं। जब धीरता नहीं रहती है तब चित्त में क्रोध सा बना रहता है। उनके ऐसे प्रसंग में यह विचार रहता है कि पहिले जो कर्म किया है उनका फल यह आ ही रहा है यह तो आयगा ही। दु:ख पूर्वक यदि इसे सहेंगे तो भविष्यकाल में फिर और दु:ख मिलेंगे। तो इस दु:ख को समतापूर्वक सहें। मन में क्रोधभाव न लायें। दु:ख भोगने से दु:ख की परंपरा मिलती है। दु:ख मानने से आगे भी दु:ख मिलता है। मूढ़ पुरुष खुद दु:खी होते, दूसरों को भी दु:खी करते, खुद रोते दूसरों को भी रुलाते। चेष्टायें करने से किस ही प्रकार के सूक्ष्म कार्माणस्कंध बनते हैं जिससे फिर दु:खी होगा। जैसे यहाँ भी लगता है कि किसी भी बात का यदि शोक करने लगे तो वह शोक फिर गहरा होता चला जाता है, और प्रारंभ में ही उसकी उपेक्षा कर दे, प्रसन्नता पाने का यत्न करे तो वह प्रसन्नता रूप में बदल जाता है। तो जो क्रोध करता है उसके ऐसे ही कर्म बंधते हैं कि जिसके उदय में फिर भविष्यकाल में भी शोक होगा। ज्ञानी पुरुष सदा प्रसन्न रहते हैं। उनकी प्रसन्नता का कारण यह है कि उनकी प्रतीति स्पष्ट है। संसार मायारूप है। यहाँ किसी से मेरा हित नहीं हो सकता है, मेरा हित मेरे स्वरूप में बसा हुआ है ऐसी उनके प्रतीति है इस कारण वे सदा प्रसन्न रहते हैं। रंज तो वह माने जिसके अज्ञान है। जो बाह्य पदार्थों में अपने हित का हिसाब लगाता है। ज्ञानी पुरुष तो ऐसा विचार करते हैं कि जो पहिले कर्मबंध किया उनका तो फल भोगना ही पड़ेगा। अब स्वच्छचित्त होकर दु:ख भोगें तो भविष्य में दु:ख न मिलेगा। यहाँ किस बात का क्लेश करना। जगत में कोई भी चीज जब तक अपने पास है तब तक भी वह अपनी नहीं है। वहाँ केवल ऐसा सोचा जाता है कि मेरा अमुक है, मेरा अमुक है, परंतु है किसी का कुछ नहीं। आज जो घर में पुत्ररूप में आया है, स्त्रीरूप में आया है, यदि वह जीव न आता दूसरा आता तो उससे मोह करते। इस जीव की तो मोह करने की आदत है तो जो भी जीव अपने घर में आ गया उसी से मोह करने लगता है। इस जगत में अपना कहीं कुछ नहीं है। जब यह शरीर तक भी अपना नहीं है तो फिर ये माँ-बाप, स्त्री-पुत्र कहाँ अपने हो सकेंगे। जब तक इनका साथ लगा है तब तक ये क्लेश के ही कारण होते हैं। तब फिर कौन होगा जगत में। ऐसी मूल विद्या उनके स्फुरित होती है अतएव ज्ञानी पुरुष सदैव प्रसन्न रहते हैं। यदि किसी पुरुष ने खोटे वचन बोले तो उन वचनों को सुनकर ज्ञानी पुरुष खेद नहीं मानता है। प्रथम तो यों समझता है कि अमुक मनुष्य भी सुख चाहता है और सुख इस ही में मिल रहा है कि इस प्रकार की कषाय जगायें और गाली गलौज बकें, दुर्वचन कहें तो यह इसकी खुद की शांति के लिए चेष्टा है। ये दुर्वचन इसकी शांति करने के लिए नहीं है, पर इसने अपनी शांति के लिए ये दुर्वचन कहे हैं। इसने मुझे कुछ नहीं कहा है। खुद के मन में कोई बाधा जगी है जिससे यह बक रहा है। अरे कुछ संबंध भी है तो उससे इतना ही संबंध है कि असाता कर्म का उदय आया है जो इस प्रकार का निमित्त जुटा है। यदि उसमें उपयोग लगाया, खेद माना तो आगामी काल में भी दु:ख ही मिलेगा इसको तो समतापूर्वक भोगने से ही छुटकारा है, साधु संतजन ऐसा विचार कर रहे हैं। इस विपदा का अन्य कोई इलाज नहीं है। तब चित्त को क्रोधमय बनाये रहने से भविष्य में भी दु:ख होगा। मनुष्य में एक यह विशेष गुण होना चाहिए कि बाहरी बातों को बाह्य जानकर अपने आपमें उनसे कुछ सुधार बिगाड़ का हिसाब न लगाया करें और चित्त में प्रसन्न रहा करें। छोटे-छोटे मजदूर भी इस प्रसन्नता की प्रकृति के कारण ग्रस्त रहते हैं और वैभव भी हो, अनेक कलायें और ज्ञान भी हो, किंतु एक प्रसन्नता की प्रकृति नहीं है, बाह्य पदार्थों का लोभ लगा है, उनमें किसी प्रकार यश आदिक की वांछा है तो उससे क्षोभ होगा और दु:खी होना पड़ेगा। बस दो ही बातें जीवों को कष्ट देने वाली हो रही हैं। एक तो धन वैभव की चाह, दूसरे मान सम्मान की चाह। खूब जगत में दृष्टि पसार कर देख लो। और-और बातें तो सही जा सकती हैं पर ये दो बातें नहीं सही जा पाती हैं। शारीरिक वेदना भी सही जा सकती है, पर यह जो यश की चाह है, सम्मान की चाह लगी है उसकी वेदना नहीं सह पाते। धन वैभव की चाह भी यश की चाह के लिए है। लोग समझें कि यह तो धनी पुरुष है ऐसी यश की वांछा लगी है जिसके कारण धन वैभव की चाह लगी है। तो जिसे अपने सम्मान की इच्छा लगी है उसके चित्त में क्रोधादिक कषायें बसी रहा करती हैं। जैसी चाह है वैसा सम्मान न मिले तो क्रोध आना स्वाभाविक ही है। अपने चित्त को क्रोधयुक्त करने से कुछ लाभ ही नहीं है, बल्कि भविष्य में दु:ख की और परंपरा बनेगी इस कारण विपत्ति को समता भाव से सहन करना उचित है।