वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 956
From जैनकोष
स एव प्रशम: श्लाध्य: स च श्रेयोनिबंधनम्।
अदयैर्हंतुकामैर्यो न पुंस: कश्मलीकृत:।।956।।
प्रशमभाव की श्लाध्यता― वही प्रशमभाव प्रशंसनीय है और वही कल्याण का कारण है जिसे हनन की इच्छा करने वाले निर्दय पुरुष ने मलिन नहीं किया, अर्थात् बड़े-बड़े उपसर्ग आये तिस पर भी क्रोध रूप मल से मलिनता न आये वह शांतभाव सराहने योग्य है। उत्तम क्षमा तो उन संत पुरुषों के होती है जिन्होंने अपने आत्मा का अंतस्तत्त्व पहिचाना है और आत्मा सहज ज्ञायकस्वरूप सबसे न्यारा है ऐसी जिनकी प्रतीति हुई है उनके क्षमा सहज बनती है। बाह्य में कोई कुछ करता हो, किसी की कोई परिणति हो वह उनकी उनमें है। उससे मेरा क्या बिगाड़ है। मैं अपने आपमें अपनी कल्पनाओं से अपनी परिणति से परिणमता रहता हूँ ऐसा जिनके निर्णय है उन पुरुषों के क्रोधभाव उत्पन्न नहीं होता और वे ही प्रशंसा के योग्य हैं।