वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 958
From जैनकोष
प्रत्यनीके समुत्पन्ने यद्धैर्यं तद्धि शस्यते।
स्यात्सर्वोपि जन: स्वस्थ: सत्यशौचक्षमास्पद:।।958।।
विघ्न होने पर भी होने वाले धैर्य की प्रशंसनीयता― जिनका चित्त अपने आत्मा में रहता है और जो उपसर्ग आने पर धैर्य धारण करते हैं वे प्रशंसा के योग्य हैं। आपत्ति में धैर्य आये तो वह धैर्य प्रशंसा करने के योग्य है। जैसे कोई पुरुष मांगे तो छाछ, और मिल जाय दूध, तो वह तो बड़ा शांत ही रहेगा और मन के अनुकूल चीज न मिले और फिर शांत रहे तो उसे कहा जायगा कि हाँ इसका अभ्यास सही है। एक बार गुरुजी सुनाते थे जबकि बाई जी के यहाँ पले-पुसे और शास्त्राभ्यास किया था तो बाई जी ने एक बार उनकी परीक्षा करना चाही कि कैसे शांत हैं, क्योंकि वे ऐसे कहते रहते थे कि बाई जी हम बड़े शांत हैं। तो बाई जी ने एक दिन क्या किया कि दूध की खीर पकायी और छाछ की महेरी पकायी। देखने में दोनों एक तरह के लगते हैं। रंग उनका एक सा ही होता है। कोई देखकर बता नहीं सकता कि यह खीर है या महेरी है। खैर खीर तो बनाकर रख ली जो ठंडी हो गई और महेरी पका रही थी। तब गुरुजी चौके में पहुँचे तो बाई जी से कहने लगे कि बड़ी भूख लगी है कुछ खाने को दो। तो बाई जी बोली कि थोड़ा बैठो अभी खीर देती हूँ। अब थोड़ीसी मेहरी गरम-गरम परोस दिया। गुरुजी ने उसे ठंडा किया और खाने लगे तो उनसे खाई न गयी। झठ थाली उठाकर फेंक दी। तो बाई जी बोली कि तुम तो कहा करते थे कि हम बड़े शांत हैं और अब क्यों गुस्से में आकर थाली फेंक दी? तो कोई छाछ चाहे और दूध मिले तो शांति तो बनेगी ही। और, मनचाही बात न मिले फिर शांति आये तो उसे शांति कहते हैं। यों तो थोड़ी-थोड़ी प्रशंसा किसी से मिलती रहे तब तो वह बड़ा राज़ी रहता है, बड़ी सुख शांति से वह अपना समय व्यतीत करता है, पर प्रतिकूल समय मिले, दुर्वचन मिले, गाली मिले, कैसा भी खोटा समय आये तो उसमें जो धैर्य धारण करे उसका धैर्य प्रशंसा के योग्य है।