वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 975
From जैनकोष
गुणरिक्तेन किं तेन मानेनार्थ: प्रसिद्ध्यति।
तन्मन्ये मानिना मानं यल्लोकद्वयशुद्धिदम्।।975।।
गुणरिक्त मान से अर्थसिद्धि का अभाव―गुणरहित भाव से कौनसे अर्थ की सिद्धि होती है? जिस पुरुष में गुण नहीं है वह किसी काम का ही नहीं है। अपने मन से कोर्इ भी शेखचिल्ली बन जाता है। मैं ऐसा हो गया, मैं ऐसा हो गया ऐसा कुछ विचारकर सोचा जाय या लोग दूसरा निर्णय करें उसके अनुसार बात ध्यान में आयगी कि गुणरिक्त है यह। जिसमें गुण तो न हों और मान करे तो भला बताओ वह हास्यास्पद न होगा? उसे कहते हैं लंपा जैसा ऐंठना। लंपा क्या है? गाय बैलों द्वारा खाई जाने वाली सूखी एक लंपोरा घास में बहुत पतला नुकीला अंकुर सा होता है उसे लंपा बोलते हैं। जो गाय, भैंस आदिक को घास चराया जाता है उसमें यह लंपा होता है, तो सूखा लंपा हो वह तो ठीक रहता है और उस पर यदि जरा सा पानी गिर जाय तो बहुत देर तक ऐंठता रहता है। तो गुणरिक्त पुरुष इसी प्रकार ऐंठते हैं― गुण तो कुछ नहीं है, मान करते हैं बहुत। कहते हैं कि इस मान से लाभ क्याहै? मान भी करे कोर्इ तो ऐसा करे कि जिसमें अपना इह लोक और परलोक दोनों में निर्मलता बढ़े। यह एक अलंकार भाषा में समझ लीजिए। वह मान तो नहीं रहता अथवा उसे प्रशस्त मान कह लीजिए अपने आपकी गुणगरिमा का अनुभव करकेलोकद्वय को सिद्ध करना इसे किन्हीं शब्दों में कह लीजिए। यदि करें तो ऐसा करें, पर गुणरिक्त मान से लाभ क्या है? मानकषाय दुर्गति का कारण है, फिर भी थोड़ा बहुत अंतर डालें एक शब्दसाम्य से, तो जो एक खोटा मान है, जिस मान के वशीभूत होकर नीच कार्य किए जाते हैं वह तो दुर्गति का कारण हैं, लेकिन जो स्वाभिमान है वह सद्गति का कारण है। आज चतुर्गतियों में भटकते-भटकते मनुष्य की पर्याय में आया हूँ। मेरा कार्य तो सत्कार्य में लगना है, मेरे को निंदित कार्य नहीं करना चाहिए। इस तरह से कोई स्व का अभिमान रखे तो उसे मानकषाय में भले ही थोड़ा बहुत कह लो, लेकिन वह मान कषाय से अलग चीज है। अरे कोर्इ तो ऐसा स्वाभिमान करे कि जिससे यह लोक भी पवित्र बने और परलोक भी पवित्र बने।