वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 979
From जैनकोष
ऊर्गलेवापवर्गस्य पदवी श्वभ्रवेश्मन:।
शीलशालवने बहिृर्मायेयमवगम्यताम्।।979।।
अपवर्गार्गला, श्वभ्रवेश्मपदवी व शीलशालवनाग्नि मायाकषाय― मायाकषाय मोक्ष को रोकने के लिए अर्मला ही तरह है। जैसे दरवाजे के किवाड़ बंद करके उसके पीछे अर्गला कर दी जाती है। याने पीछे एक लाठी लगा दी जाती है जिससे किवाड़ खुल न सके। इसी प्रकार यह मायाचार मोक्षरूपी द्वार को बंद करने में अर्गला की तरह काम करता है। माया हो तो मोक्षमार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। मोक्षमार्ग क्याहै? उपयोग विशुद्ध होना, जहाँरागद्वेष न रहे और एक ज्ञानज्योति का अनुभव रहे ऐसी स्थिति है। वह है कर्मों से छूटने का उपाय, लेकिन जिस पुरुष के माया कषाय जग रही है उस पुरुष के उपयोग में विशुद्धि कैसे आ सकती है? तो यह मायाचार मोक्षद्वार को रोकने के लिए अर्गला की तरह है। यह माया नरक के महल का द्वार है। जैसे किसी महल में द्वार से प्रवेश किया जाता है इसी प्रकार मायाकषाय में रम करके माया कषाय के द्वार से नरक में प्रवेश होता है। याने नरक जाता हो तो उसके द्वार से होकर चले जाइये। कौनसा है द्वार नरक का? यह मायाकषाय जो छल कपट रखता है वह नरकगति का पात्र होता है, यह इसका भाव है। यह मायाकषाय शीलरूपी वृक्ष के लिए अग्नि की तरह है। जैसे आग उत्तम वृक्ष वाले वन को भस्म कर देती है इसी प्रकार यह मायाकषाय इस शील को भस्म कर देती है। इस माया कषाय को अनर्थ जानकर उसका परित्याग करना चाहिए। जो अज्ञान में अंधा है उसी पर ही माया का आक्रमण होता है। जिसके भीतर ज्ञानज्योति जागृत है, जिसके यह निर्णय बन चुका है कि जगत के किसी पदार्थ से, किसी विषय से, किसी साधन से मेरे आत्मा का क्या हित है? बाह्य समागमों से मेरे आत्मा का भला नहीं होता इसलिए बाह्य पदार्थ की तृष्णा करना व्यर्थ है। ऐसा जिसके निर्णय है वह माया कषाय पर विजय आसानी से कर सकता है। और, जिसे सांसारिक मायामय पदार्थों में इच्छा लगी हो, प्रतीति बनी हो इससे ही मेरा कल्याण है, इससे ही मुझे सुख है, वह उनके प्रति नाना प्रकार की माया करेगा ही। माया का कारण बाह्य पदार्थों का लोभ मात्र ही नहीं है, किंतु अपने आपकी पर्यायबुद्धि भी माया का कारण बनती है। यह मैं हूँ, पर्याय को निरखकर देख रहा कि यह मैं हूँ, में त्यागी हूँ, मैं बहुत कुशल हूँ, में बड़ा पुजारी हूँ, धर्मात्मा हूँ, बस ऐसी जो एक पर्याय में आत्मतत्त्व की प्रतीति की, यह मैं हूँ, उसके मायाचार बन जाता है।जैसे अभी जल्दी-जल्दी पूजन कर रहे थे, दो चार आदमी देखने लगे तो बड़ी विधि और संगति से खूब गान-तान करने लगे। अथवा पहिले तो जैसा चाहे बैठे सामायिक कर रहे थे न कोई एक दो आदमी सामने खड़े हो गए तो झट सावधान (Attention) हो गए। इस तरह मायाचार केवल एक बाह्य पदार्थ के लोभ में नहीं किंतु जब आपकी किसी भी पर्याय में आत्मबुद्धि हुई तो वह भी माया का रूप बन जाता है। तो यह माया जाल अनेक अनर्थों का मूल है अत: इसका परित्याग करना चाहिए।