वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 981
From जैनकोष
लोकद्वयहितं कोचित्तपोभि: कर्त्तु मुद्यता:।
निकृत्या वर्तमानास्ते हंत हीना न लज्जिता:।।981।।
तपश्चरणोद्यत बनकर भी मायाचारी हो जाने पर उनकी हीनता का कथन― कोई पुरुष तपश्चरण का संकल्प करके, महाव्रत को धारण करके हित की साधना के लिए उद्यमी तो हुए पर खेद इस बात का है कि वे मायाचार सहित रहते हैं तो वे हीन हैं, नीच हैं और निर्लज्ज हैं। निर्लज्ज याने मायाचारसहित प्रवृत्ति हो रही है सो हीन तो हो ही गया और साथ ही साथ लज्जाविहीन भी हो गया। यह लाज भी न रही कि मैंने क्या व्रत धारण किया, मैंने क्या तपश्चरण का संकल्प किया। और, में अब किस आचरण से चल रहा हूँ। तो मायाचारसहित पुरुषों को ये व्रत संयम, तपश्चरण आदिक सब निष्फल हैं, इतना ही नहीं, किंतु खोटा फल देने वाले हैं। याने तपस्वी होकर यदि हम मायाचार रखेंगे तो हमें लोग क्या कहेंगे। इतनी भी लाज जहाँनहीं रहती है ऐसेविशेष मायावी पुरुषों कातपश्चरण धार्मिक अनुष्ठान निष्फल ही गया, सो तो गया, साथ ही खोटा फल प्रदान करने वाला है। अब ज्ञान में कोई शुरू-शुरू में प्रवेश करता हे तब इतना विशुद्ध भाव रहता है कि मैं इस ज्ञान का संपादन करूँ, पर जब ज्ञान में वह कुछ बढ़ जाता है तो फिर उसको ज्ञान की रुचि नहीं रहतीहै। पा लिया ज्ञान, पर ज्ञान का उपयोग, ज्ञान का सदुपयोग करने की रुचि नहीं जगती है। तो देखो ज्ञान रुचि प्रवेश के समय तो थी, पर जब कुछ आगे बढने लगे तो फिर ज्ञान की रुचि नहीं रहती। प्राय: ऐसा ही देखा जाता है। अभी आप छोटे-छोटे बच्चों को ही देख लीजिए प्रारंभ में वे कितना ज्ञान सीखने के इच्छुक रहते हैं पर जब वे कुछ बड़ी कक्षाओं में पहुँच जाते हैं तो उनको ज्ञान बढ़ाने की रुचि नहीं रहती। बस किसी तरह से पास हो जावें, यही उनके मन में रहता है। व्रतों के प्रसंग में भी यही बात समझिये। पहिले शुरू-शुरू में तो व्रतों के पालन में खूब रुचि रही, खूब निरतिचार पालन करते रहे, पर कुछ समय बाद व्रती होने पर फिर उसकी ओर से प्रमाद हो जाता है। और इसके लिए अधिक क्या कहें, इसकी गवाही तो करणानुयोग तक भी दे रहा है। जब किसी व्रत का प्रारंभ होता हो वहाँतो बता दिया असंख्यातगुणी निर्जरा और जब व्रत धारण कर लिया उसके बाद फिर जो शेष जीवन चलता है संयम में वहाँनिर्जरा कुछ तो है, किंतु गुनी निर्जरा नहीं है जो सच्चाई के साथ प्रवेश करते हैं उनको हानि नहीं होती है, कैसा भी कुछ हो। लेकिन, जहाँमायाचार साथ में आ जाता है तो मायाचारी पुरुष का तो एकदम ही पतन हो जाता है।
अल्प भी मायाचार की प्रकृति न बनाने की शिक्षा― मायाचार हम घर में भी न करें, व्यापार में भी न करें। कहीं थोड़ा भी मायाचार न करें, क्योंकि कहीं थोड़ा मायाचार किया तो उसकी आदत बन जाती हैऔर आदत बनने से फिर धार्मिक कार्यों के प्रसंग में भी मायाचार चलने लगता है। इससे हमें इतना सावधान रहना चाहिए कि हम घर में बच्चों के साथ भी मायाचार न करें। क्या जरूरत है मायाचार की? इसलिए तो मायाचार किया जाता हे कि घर में अगर इसे बता देंगे कि इतना धन है और अमुक जगह धन है तो ये घर के लोग छुड़ा लेंगे, या ये लोग हैरान करेंगे। यों मायाचार करके कोई लोग धन छिपाते हैं, रक्षा से छिपाने की बात और है। मायाचार किसे कहते हैं? यह तो दिल गवाही दे देता है। डाकू, चोर आदिक से रक्षा के लिए धन को छिपाकर रखना यह तो मायाचारी नहीं है। दिल सब गवाही दे देता है कि यह मायाचार है अथवा नहीं। यहाँघर गृहस्थी व्यापार काम काज आदि के प्रसंगों में किसी भी काम में मायाचार न करें, क्योंकि वह मायाचार बढ़-बढ़कर जीवन भर के लिए कंटक बन जायगा।