वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 989
From जैनकोष
शाकेनापीच्छया जातु न भर्तुमुदरं क्षमा:।
लोभात्तथापि वांछंति नराश्चकेश्वरश्रियम्।।986।।
लोभियों के विकल्पों की हास्यास्पदता―अनेक मनुष्य ऐसे हैं कि जिनको इतने ही साधन नहीं मिले कि साग-भाजी खाने का भी ठीक-ठीक सजा हो इतनी भी सामर्थ्य नहीं है कि वे भर पेट भोजन ही कर सकें, पर वे लोभकषाय के वश होकर चक्रवर्ती की जैसी संपदा चाहते हैं। जिस वस्तु की प्राप्ति की स्वप्न में भी आशा न हो उसकी भी वांछा रखते हैं। लोभ कषाय की ऐसी पद्धति है कि जो चीज कहीं से मिल न सके, उसका मिलना एक असंभव सी बात है फिर भी उसको पाने की बात अपने चित्त में बसाये रहते हैं। एक कथानक है कि एक बार किसी भंगी को बादशाह की रानी को प्राप्त करने की वांछा जग गई। भला बतलाओ कहाँ तो भंगी और कहाँरानी, कैसे प्राप्त कर सकता था वह भंगी उस रानी को? पर उसके चित्त में सदा वही बात समाई रहती थी, उसके पीछे वह दु:खी रहा करता था। (कामी पुरुषों का ऐसा ही हाल होता है) एक दिन उसकी स्त्री ने उसके दु:खी होने का कारण पूछा तो उस भंगी ने कारण बता दिया। पहिले तो उस स्त्री ने कहा― अरे क्यों व्यर्थ में दु:खी होते? कहाँ तो तुम भंगी और कहाँ वह रानी। उसको प्राप्त करना तुम्हारे लिए असंभव है, अत: उसे चित्त से उतार दो। पर कैसे चित्त से उतार सके। आखिर दोनों में एक सलाह हुई, क्या, कि तुम साधु बन जाओ, बड़ा चमत्कार दिखाओ, तुम्हारा चमत्कार सुनकर रानी तुम्हारे सामने हाथ जोड़ेगी बस तुम्हारा काम बन जायगा। ठीक,...आखिर वह साधु बन गया। काफी दिनों तक अपना बड़ा चमत्कार दिखाया। कहीं धन गाड़ दिया, कहीं कुछ गाड़ दिया। जब कोई पास में आता तो उससे वह साधु पूछता कि बोलो तुम्हें क्या चाहिए?...धन चाहिए।...अच्छा जाओ अमुक स्थान पर खोद लो धन मिल जायगा।...लो खोदा तो धन मिल गया। फिर कोई पास में आया तो साधु ने पूछा तुम्हें क्या चाहिए?...अमुक चीज चाहिए।...लो वहाँखोद लो, चीज मिल जायगी, वहाँखोदा तो वह चीज मिल गई। अब क्या था। चारों ओरउस साधु का चमत्कार बड़ा प्रसिद्ध हो गया। अब लोगों का आना जाना खूब जारी हो गया। बादशाह के पास तक उस साधु के चमत्कार की खबर पहुँची। उसके कोर्इ संतान न थी तो वह बादशाह भी अपनी रानी सहित उस साधु के पास आया। रानी ने हाथ जोड़कर साधु महाराज से एक संतान का वरदान माँगा। और-और भी विनययुक्त वचनों से काफी वार्ता किया, पर उस समय वह साधु कामवासना से दूर हो चुका था। काफी समय व्यतीत हो जाने पर उसके चित्त से काम विकार निकल चुका था, जिससे उसने उस रानी को भी बड़े आदर की दृष्टि से देखा, उसके प्रति विकार भाव न रहे। खैर बात यहाँ यह कही जा रही थी कि पर वस्तु के लोभ में आकर यह जीव असंभव बातों को भी पाने की वांछा करता है। उसके पाने के लिए अपने प्राणों तक की बाजी लगा देता है।
लोभ विकल्प की व्यर्थता―भैया !लोभ में होता क्या है कि जब चीज पास में है तो उसकी चाह नहीं होती और जब चाह होती तो उस चीज की प्राप्ति नहीं होती। यह बात तो बहुत अच्छी है कि चाह न रहे पर यह बात रह कहाँ पाती है? दूसरी चीज की चाह बन जाती है। तो इस लोभ कषाय में यह जीव पाता तो कुछ नहीं, मगर तृष्णा के वश होकर बड़ा कठिन श्रम कर डालता है। जैसे कि कोर्इ हिरण अपनी प्यास बुझाने के लिए बड़ा श्रम कर डालता है पर प्यास नहीं बुझा पाता और दौड़-दौड़कर मरण को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार इस लोभकषाय के वश होकर यह संसारी प्राणी अपने जीवन को व्यर्थ ही खो देता है। जैसे स्वप्न में दिखने वाली विभूतियाँकहीं प्राप्त ही नहीं हो जाती। वे तो स्वप्न की चीजें हैं, उनका मिलना असंभव है, पर यदि कोर्इ उनके पाने की वांछा करे तो उसके सामने मूर्ख और किसे कहा जाय? ऐसे ही जो चीजें प्राप्त होनी असंभव हैं उनके पाने की वांछा भी यह लोभी प्राणी करता है तो फिर उसे मूर्ख नहीं तो और क्या कहा जाय? अरे यह आत्मा तो एक अमूर्त ज्ञानमात्र है। इस देह को छोड़कर वह कहीं अकेला ही चला जायगा। उसे मिला क्या? कोई कहे कि जब तक रहा तब तक तो मिला, पर तब तक भी न मिला क्योंकि उसे उससे संतोष नहीं होता। उससे आगे की वांछा बनी रहती है। जो पुरुष आत्मदृष्टि करता है और आत्मज्ञान के द्वारा अपने आपमें तृप्त रहा करता है, महत्ता तो उसकी है, सुखी तो वह है। लोभी पुरुष को तो कितनी भी संपदा मिल जावे, पर उससे उसे संतोष नहीं होता, वह कभी शांति नहीं प्राप्त कर पाता और अपने इस पाये हुए दुर्लभ मानवजीवन को वह व्यर्थ ही खो देता है।