वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 992
From जैनकोष
शमांबुभि: क्रोधाशिखी निवार्यताम्, नियम्यतां मानमुदारमार्दवै:।
इयं च मायाऽऽर्जवत: प्रतिक्षणं, निरीहतां चाश्रय लोभशांतये।।992।।
उपशमजल से क्रोधाग्नि के निवारण का आदेश―कषाय विजय के प्रकरण में लोभ कषाय का वर्णन करते ही चारों कषायों का वर्णन समाप्त हुआ। अब इस छंद में उपसंहार रूप से चारों कषायों के विजय प्राप्त करने का उपदेश बताया जा रहा है। हे आत्मन् ! देख, शांतस्वभावी जल से तो क्रोधरूपी अग्नि का निवारण करो। क्रोध अग्नि का निवारण काहे से होगा? अग्नि का निवारण पानी से होता है। तो पानी की उपमा में यहाँ बताया जा रहा है उपशमभाव, शांति, क्षमाभाव ऐसे उपशमभाव द्वारा इस क्रोधकषाय का निवारण करो। देखिये कषायों के दूर करने में मूल सहयोग सम्यग्ज्ञान का है। और, जो कुछ भी उपाय कर लो जैसे कि लोग बताते हैं कि जब क्रोध आये तो मौन से रहो। जब क्रोध आये तो मुख में पानी भर लो, कोर्इ पूछे कि भाई जब क्रोध आयगा तो मुख में पानी भरने की सुध कहाँरहेगी? वहाँतो मुख में से तीर बरसेगा। जब कोई पुरुष क्रोध करता है और जब गाली देता है तो उसके मुख की शक्ल धनुषाकार बन जाती है। जैसे चढ़ा हुआ धनुष टेढ़ा टाढ़ा होता है ऐसा तो बन जाता है मुख जैसे उस चढ़े हुए धनुष में से तीर निकलता हे वैसे ही इस चढ़े हुए मुख से गालियों के अपशब्दों के तीर निकलते हैं। और, जैसे तीर छूटने के बाद वह शिकारी यह सोचे कि ऐ बाण मैंने बहुत बड़ी भूल की, बड़ा बुरा किया, तू वापिस आ जा, यों कितनी ही मिन्नते करें, पर वापिस नहीं लौट सकता, वह तो जिसका लक्ष्य करके छोड दिया गया उसके हृदय को बेध ही देगा। ठीक इसी तरह इस खींचे हुए मुख से जो अपशब्द निकाल दिए गए वे कितनी ही मिन्नते की जा ने पर वापिस नहीं हो सकते। अपने शांत भावों के द्वारा इस क्रोधाग्नि का निवारण करें।
कोमल परिणामों द्वारा मान को नियंत्रित करने का आदेश― कोमल परिणामों के द्वारा मान को नियंत्रित करें, नम्रता रखें। मान को कठिनता का रूप बताया है। यहाँसिद्धांत शास्त्र में मानकषाय के भेद पर दृष्टांत दिया है। तो बताया गया हे कि वज्र की तरह कठोर, पत्थर की तरह कठोर, काठ की तरह कठोर, ये वज्र, पत्थर, काठ आदिक लता की तरह नम नहीं सकते।लकड़ी अगर नमे तो वह थोड़ी बहुत नम सकती है, पर लता की तरह नहीं नम सकती। तो इस पर अनंतानुबंधी मान आदिक के विषय में मान की उपमा बताई गई है कठोरता से जिसको मानकषाय जगी है वह दूसरे का कुछ हित नहीं समझता। वह तो अपना बड़प्पन ही चाहता है, उसमें दूसरों का चाहे संहार हो जाय। तो कोमल परिणाम उत्पन्न करें, सम्यग्ज्ञान का बल बढ़ायें और अपने में कोमलता लावें, मानकषाय को दूर करें इसमें ही हित है।
सरलता द्वारा मानकषाय को व निरीहता द्वारा लोभकषाय को दूर करने का आदेश― सरलता द्वारा मायाकषाय को दूर कीजिये, माया का रूप बताया है टेढ़ा-टाढ़ापन। जैसे बाँस की जड़ बहुत अधिक टेढ़ी होती है ऐसे ही यह मानकषाय भी बहुत टेढ़ी होती है। हिरण के सींग कितने ही टेढ़े होते हैं फिर भी बाँस की जड़ से कम टेढ़े होते हैं। और, चलता हुआबैल अगर मूतता जाय तो वह भी कितनी टेढ़ी रेखा होती है तो ऐसी ही टेढ़ीपन की मुद्रा इस मायाकषाय की बताई गई है। मायाकषाय रखने वाले का हृदय वक्र कहा गया है, तो इस मायाकषाय को सरलता के उपाय से जीतें। देखो माया की बात कह रहे हैं कि कहीं कोर्इ कठिन से कठिन प्रसंग आ जाय, जिसमें अपनी बड़ी धनहानि की हो या अपने कुटुंब की हानि होती हो और कदाचित् कुछ मायाचार बर्तले तो कहा जा सकता है कि बड़ी कठिन परिस्थिति थी इसलिए मायाचार करना पडा। लेकिन देखा तो यह जाता है कि कुछ काम भी नहीं अटका, कुछ काम भी नहीं हे और मायाचार की प्रकृति बनी हुई है तो यह प्रकृति निरंतर बिल्ली की भाँति पापबंध कराती रहती है। जैसे बिल्ली मायाचार में बड़ी कुशल होती हे, इस तरह की जो प्रकृति बना रखी है निरंतर जरा-जरासी बातों में, तो यह मायाचारी इस जीव को बहुत बड़ा दु:ख देने वाली है। तो भाई सरल बनो और सरलता से इस मायाचार को दूर करो। अब देखो―धर्म के प्रसंग में भी जो मायाचारी की जाती है उससे कठिन और क्या दृष्टांत दिया जाय। जैसे बड़े कठिन जान माल की हानि में मायाचारी बन जाय तो उसे कठिन मायाचारी न कहेंगे, हो गया तो वहाँ सम्हला हुआ है।जान रहा है कि मुझे ऐसा नहीं करना है, पर करना पड़ता है, लेकिन ठलुआ बैठे ही कोई मायाचार बनाये रहे तो यह मायाचार कठिन है। और धर्म के काम में जो मायाचार बर्तता है वह मायाचार तो बहुत कठिन है। पूजा करने में, स्वाध्याय करने में, जाप देने में या मंदिर की किसी प्रकार की सेवा करने में यदि मायाचार बर्ता जाय तो समझो कि धर्म में कार्यों में भी मायाचार चले तो फिर इसके पाप कहाँ से दूर हो? तो सरल परिणामों से मायाचार को दूर कीजिए और लोभ की शांति के लिए निरीहता का आश्रय कीजिए, निर्लोभता का इन इच्छाओं के अभाव का आश्रय कीजिए।
वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध होने पर कषायविजय की सुगमता― देखो― वास्तविकता तो यह है कि जब वस्तुस्वरूप का सही बोध हो और उसके स्वरूप की स्वतंत्रता की प्रतीति हो तब कषायों के विजय की कला आती है। फिर भी प्रयत्न तो यह करना ही चाहिए कि ये कषायें मंद रहें।बुंदेल खंड का एक राजा गुजर गया, राजमाता थी, कुछ समय तक उसने राज्य किया लेकिन जो सरकार के बड़े ओहदेदार थे, उन्होंने कुछ राज्य को कोर्ट कर लिया। उन्होंने कह दिया राजमाता से कि जब तुम्हारा बच्चा होशियार हो जायगा, राज्य चल सकने वाला हो जायगा तो राज्य उसे दे दिया जायगा। सो जब वह राजपुत्र 19 वर्ष का हो गया तो राजमाता ने सरकार को यह दरख्वास्त दे दिया कि मेरा बालक अब सयाना हो चुका है उसे उसका राज्य दे दिया जाय। उस राजमाता ने उस बेटे को बीसों बातें सिखा दी कि देखो तुमसे अगर साहब यों पूछे तो यह जवाब देना, यों पूछे तो यह जवाब देना। पर वह राजपुत्र बोला― माँ यदि इन सभी बातों में से एक भी बात साहब ने न पूछा तो?...बस समझ गए बेटे ! तुम जरूर जवाब दे लोगे। जब तुम इतनी तर्कणा बुद्धि रखते हो तो जरूर उत्तर सही-सही देकर आवोगे। आखिर हुआ भी ऐसा ही। साहब ने उस बालक की बुद्धि की परीक्षा करने के लिए बुलाया। वहाँ बालक गया तो साहब ने प्रश्न तो न किया, पर दोनों हाथों को तेजी से पकड़कर बोला― बताओ अब तुम क्या करोगे? तुम्हारे दोनों हाथ मेरे हाथों से बंध गए हैं, अब तुम्हारी रक्षा कैसे हो सकती है? तो वह राजपुत्र बोला― देखो मैं तो अब पूर्ण रक्षित हो चुका, अब मुझे किस बात का भय? अब मुझे क्या करना?...कैसे?...देखो जब किसी का विवाह होता है तो पति अपनी पत्नी का एक हाथ पकड़ लेता है तो उस पति को अपनी पत्नी की जीवन भर रक्षा करने के लिए वचनबद्ध होना पड़ता है, और आपने तो मेरे दोनों ही हाथ पकड़ लिए, अब मुझे किस चीज का भय? में तो अब पूर्ण रक्षित हो चुका। बस परीक्षा में वह राजपुत्र उत्तीर्ण हो गया और राज्य का अधिकारी बना। तो जैसे जिसमें ज्ञानकला है उसके लिए सारे कार्य सुगम हो जाते हैं। इसी तरह जिसमें भेदविज्ञान जगा, जिसको आत्मस्वरूप की दृष्टि हुई, जिसे आत्मीय आनंद का अनुभव हुआ उसके लिए कषायों पर विजय करना बड़ा सुगम हो जाता है।