वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 17
From जैनकोष
छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा ।
सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो ।। 17 ।।
(94) सम्यग्दृष्टि का सामान्य परिचय―जिनके जिनदर्शनसम्मत ऐसे बाह्य वेष होते हैं उनका अंतरंग कैसा होता है, इसका संकेत इस गाथा में दिया है याने वे सब सम्यग्दृष्टि होते हैं । सम्यग्दर्शन हुए बिना कोई मुनि आदिक का भेष रख ले तो यह उसकी ही बात है मगर सम्यक्त्व बिना छठा गुणस्थान नहीं होता । बाहरी भेष में क्या पता कि गुणस्थान कौनसा है? भेष जरूर है मुनि का, मगर गुणस्थान तो आत्मा के गुणों के दर्जे हैं । जहाँ सम्यक्त्व है और महाव्रत है वे ही मुनि कहलाते हैं । तो ऐसे जो तीन लिंग वंदनीय बताये गए हैं वे सभी के सभी वंदनीय हैं । तो सम्यग्दृष्टि कौन कहलाता है, वह एक लक्षण की तरह वर्णन किया गया है । जो 6 द्रव्य 9 पदार्थ, 5 अस्तिकाय, 7 तत्त्व ये बताये गए हैं, जैसा उनका स्वरूप है उस ही स्वरूप में श्रद्धान जो करता है वह सम्यग्दृष्टि पुरुष कहलाता है ।
(95) सम्यग्दृष्टि का द्रव्य के संबंध में श्रद्धान―द्रव्य तो अनंतानंत हैं मगर उनकी जातियां 6 हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जिसमें चेतना पायी जाये सो जीव । चेतना अन्य पदार्थों में न मिलेगी । लक्षण असाधारण गुण से होते हैं । निर्दोष लक्षण वह कहलाता है जिसमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोष नहीं होते । अव्याप्ति के मायने―अ मायने नहीं, व्याप्ति मायने रहे । जो समस्त लक्ष्य में न रहे ऐसे लक्षण को अव्याप्ति कहते हैं । जैसे किसी ने कह दिया कि पशु का लक्षण सींग है तो सींग क्या सब पशुओं में पाये जाते हैं? नहीं । तो यह लक्षण समस्त लक्ष्यों में नहीं पाया जाता इस कारण यह अव्याप्ति दोष से दूषित है, इसी तरह कोई जीव का लक्षण करे राग, जो प्रेम करे, राग करे सो जीव, तो राग, यह लक्षण क्या सब जीवों में मिलेगा? विरक्त में तो न मिलेगा, अरहंत प्रभु में नहीं है, सिद्ध में नहीं है, तो यह सब जीवों में न रहा इस कारण से यह जीव का लक्षण राग करना अव्याप्ति दोष से दूषित है । अतिव्याप्ति दोष । अति मायने अधिक, व्याप्ति मायने रहे, जो अति से भी अधिक रहे उसे अतिव्याप्ति कहते हैं याने लक्ष्य में मिलता रहता है वह तो ठीक है, पर लक्ष्य के अलावा अलक्ष्य में भी पहुंच गया, जिसका हम लक्षण नहीं कर रहे हैं उसमें भी लक्ष्य पहुंच गया तो इसे बोलेंगे अतिव्याप्ति । जैसे किसी ने कहा कि गाय का लक्षण सींग है, सो सींग गाय में मिलते हैं यह तो ठीक है, मगर गाय के अलावा भैंस, बकरी, बैल वगैरह में भी तो सींग मिलते हैं । तो यह कोई लक्षण की बात न बनी । लक्षण तो उसे कहते हैं जो लक्षित द्रव्य को सबको ग्रहण कर ले और अलक्षित को ग्रहण न करे । अतिव्याप्ति दोष जिस लक्षण में आये उससे लक्ष्य ही ग्रहण में नहीं आता अन्य भी ग्रहण में आते सो लक्षण नहीं बनता जैसे किसी ने कहा कि जीव का लक्षण अमूर्तपना है, अमूर्त कहते हैं रूप, रस, गंध, स्पर्श न होने को । तो बताओ―जीव अमूर्त है कि नहीं? है । तो यह बात तो सही है मगर जीव के अलावा धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य―ये भी तो अमूर्त हैं । तब यह लक्षण सही न बना ꠰ जैसे किसी सभा में बहुत से लोग बैठे है और कोई पुरुष मान लो किसी चपरासी से किसी बाबू जी को उस सभा में बुलवाता है, वह, चपरासी नया था, बाबू जी को पहचानता न था, पर लक्षण उस पुरुष ने यह बताया कि जो नेकटाई लगाये हुए हैं उन बाबू साहब को बुला दो । अब मान लो उसमें कई लोग नेकटाई लगाये हो तब तो वह उन बाबूजी की पहिचान नहीं कर सकता, तो ऐसे ही जो लक्षण बहुत में पाया जाये उस लक्षण से भी पहिचान नहीं बनती । और, एक दोष है असंभव दोष । याने जरा भी संभव नहीं है । जैसे कह दिया कि मनुष्य का लक्षण हैं सींग । अब मनुष्य में सींग जरा भी नहीं पाये जाते तो वह लक्षण दूषित है ।
(98) मनुष्य में सींग का अभाव होने से सींग लक्षण में असंभव दोष―देखो जितनी भी रचना है वह नामकर्म के उदय से आहार वर्गणाओं में स्वयं बनती है । सींग हड्डी का मैल है और नाखून भी हड्डी का मैल है । तो प्राय: करके ऐसा देखने में आता कि जिन जीवों के हड्डी का मैल नाखून के रूप में निकल रहा है उनके सींग नहीं हुआ करते । जब शरीर में हड्डी है तो उसका मैल भी तो निकलना आवश्यक है । जब किसी के मैल निकल गया नाखून के रूप में तो फिर उसे सींग की क्या जरूरत है? मनुष्य हैं, बंदर हैं, घोड़े हैं, पक्षीजन हैं, इनके नाखून हुआ करते हैं इसलिए इनके सींग नहीं दिखते, और जिनके नाखून किसी भी रूप में नहीं निकल पाते तो उनका हड्डी विकार फूटना तो चाहिए याने यह पंचेंद्रियों की बात कही जा रही है, जब कहीं से वह हड्डी न फूट सकी तो सिर में से दो सींग निकलकर फूट गए । (यह बात प्राय: करके देखने में आती । किसी-किसी के तो नाखून भी होते और सींग भी) यह सब नामकर्म की रचना है । कोई कहे कि मनुष्य का लक्षण सींग तो यह असंभव दोष है । जरा भी संभव नहीं । ऐसे ही कोई कहे कि जीव का लक्षण है भौतिकपना याने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का संयोग यह है जीव का लक्षण, तो यह असंभव दोष है कितना भी पृथ्वी, जल आदिक का संयोग बन जाये लेकिन उसमें जीव नहीं आ सकता । जीव की सत्ता उन चार के संयोग से नहीं बन सकती । यदि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के संयोग से जीव बनने लगे तब तो बड़ी आफत आ जायेगी । फिर तो महिलाओं को रसोई बनाना भी मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि रसोई में मानो मिट्टी की हांडी में कड़ी पकाना है तो देखो वहाँ अग्नि भी है, पानी भी है, मिट्टी भी है और हवा भी है । इन चारों का जब संयोग हो गया तब तो उस हांडी में से सांप, बिच्छू, नेवला, बंदर, शेर आदि अनेक जानवर बनकर निकल पड़ना चाहिए, पर ऐसा तो नहीं होता । सो भौतिक नहीं है यह जीव । भौतिक कहे कोई जीव को तो यह असंभव दोष है ।
जिसमें कोई दोष न आये ऐसा ही लक्षण सही होता है । तो छह द्रव्यों में जीव का लक्षण है चेतना । जो सबमें तो पाया जाये और अन्य में न पाया जाये वह सही लक्षण है । पुद्गल का लक्षण है रूप, रस, गंध, स्पर्श का होना । यह लक्षण सबमें पाया गया, पर जीव में नहीं पाया गया या अन्य में नहीं पाया गया सही लक्षण । धर्मद्रव्य का लक्षण है गतिहेतुत्व याने जीव और पुद्गल चले तो उनके चलने का निमित्त कारण बनना । जैसे मछली को पानी निमित्त है चलने के लिए, मगर पानी तो चलाता नहीं है ꠰ कहीं मछली को धक्का देकर पानी जबरदस्ती तो नहीं चलाता । हाँ यदि मछली स्वयं चलना चाहे तो चले और न चलना चाहे तो न चले । तो ऐसे ही धर्मद्रव्य के होने से ऐसा मौका मिलता है कि जीव पुद्गल चलें तो चल देते हैं । अधर्मद्रव्य में स्थितिहेतुत्व । स्थिति कहते हैं ठहरने को । उस ठहरने में मददगार होना । चलते हुए जीव पुद̖गल रुकते हैं तो जो कोई भी नवीन बात बनती है उसका निमित्त कारण हुआ करता है । तो उस रुकने को निमित्त है अधर्मद्रव्य । आकाश द्रव्य का लक्षण है अवगाहने हेतुत्व । जीव पुद्गल रह सके, उनका अवगाह रहे, यह आकाश में होता ही नहीं । और काल द्रव्य का लक्षण है परिणमनहेतुत्व । ये जगत के सभी पदार्थ परिणमते रहते हैं । नई-नई अवस्थायें बनाते रहते हैं तो इन अवस्थाओं के बनने में निमित्त क्या है? कालद्रव्य का परिणमन । कालद्रव्य कोई कल्पित बात नहीं, किंतु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य अवस्थित है और उसकी पर्याय समय-समय के रूप में चलती है, उनका जो समूह है वह व्यवहारकाल है । तो ये छह प्रकार द्रव्य जिस प्रकार का स्वरूप रखते हैं उस ही रूप में सम्यग्दृष्टि जीव श्रद्धा करता है ।
(99) सम्यग्दृष्टि का नव पदार्थों के संबंध में श्रद्धान―9 पदार्थ―जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पाप, पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये 9 पदार्थ कहलाते हैं, ऐसा उस पद का अर्थ है, पर वास्तविकता वहाँ यह है कि पर्याय कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है । आस्रव, बंध, सम्वर, निर्जरा और मोक्ष, ये पर्यायें हैं, जीव की पर्याय, अजीव की पर्याय । तो पर्याय कोई अलग वस्तु नहीं है, किंतु पर्याय जो समझ में आती है उसका अर्थ है कि पर्यायमुखेन द्रव्य की समझ बनी । जैसे पीला, नीला आदिक ये गाथा सब दिख रहे हैं तो बताओ पीला, नीला आदिक ये कोई वस्तु हैं क्या? अगर वस्तु हैं तो आप से कहें कि हमें सिर्फ पीला ला दो, अन्य कोई चीज न लावो, मैटर मत लावो, सिर्फ पीला पीला ला दो, तो पीला, पीला तो कुछ होता ही नहीं । भींत पीली, दवा पीली, रंग पीला याने कोई चीज है सो पीली है, पीला अलग से कुछ नहीं । तो जैसे पीली पर्याय के रूप में हमने उस वस्तु को जाना ऐसे ही इन सब पर्यायों के रूप से जीव और अजीव को भी जाना जाता है । मगर पर्याय है तो सही, याने उन सबकी दशायें तो हैं । तो ऐसे आस्रव आदिक मिलकर 9 पदार्थ होते हैं । उनका सही रूप में श्रद्धान करना । आगे बतायेंगे 7 तत्त्व उन सात तत्त्वों में दो पदार्थ बढ़ा दिए, पुण्य और पाप इस कारण 9 हो गए । पुण्य और पाप के मायने ऐसी कर्मप्रकृतियां कि जिनमें पाप का अनुराग पड़ा है वे पाप प्रकृतियाँ हैं और जीव में जो शुभभाव हैं वह पुण्यभाव है, जो अशुभ भाव है वह पापभाव है । तो 9 पदार्थ जैसे हैं उस ही रूप में उनका श्रद्धान सम्यग्दृष्टि जीव करता है ।
(100) सम्यग्दृष्टि का पंच अस्तिकायों के संबंध में अज्ञान―5 हैं अस्तिकाय । कालद्रव्य को छोड़कर शेष 5 द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं । जो बहुप्रदेशी हो सो अस्तिकाय है । काय मायने शरीर । शरीर जैसे बहुत से परमाणुओं का पिंड है ऐसे ही जो द्रव्य बहुत परमाणुओं का प्रचय हो उसे कहते है अस्तिकाय । बहुत प्रदेश कोई इससे अलग की चीज नहीं है, किंतु एक ही अखंड वस्तु बहुत विस्तार में चली गई है सो उसके प्रदेश भेद बताये गए हैं । तो जीव है असंख्यातप्रदेशी । पुद̖गल हैं असंख्यात, संख्यात और अनंत प्रदेशी । परमाणु हैं एकप्रदेशी । यहाँ भी यह जानना कि वास्तविक द्रव्य तो परमाणु है, और जो दिख रहा है यह तो अनेक परमाणुओं का पिंड है, मगर यह अनेक परमाणुओं का पिंड ऐसे बंधन में है कि जो एक की ही तरह व्यवहार में कहा जाता है । परमाणु एकप्रदेशी है, धर्मद्रव्य असंख्यात प्रदेशी है, सारे लोक में व्यापक है, अधर्मद्रव्य असंख्यात प्रदेशी है । सारे लोक में व्यापक एक है, आकाशद्रव्य अनंतप्रदेशी है । आकाश का कोई अंत नहीं पा सकता । ऐसी कल्पना करो कि कोई महान समर्थ इंद्र देव या कुछ भी या कोई भी पदार्थ बड़ी तेजी से गमन करे, मानो एक मिनट में करोड़ों अरबों कोश चल दे और वह कल्पकाल तक भी चलता रहे तो ऐसे क्या आकाश का अंत आ जायेगा कि यहाँ तक है आकाश, इससे आगे नहीं है? अगर आकाश का अंत है तो उसके बाद क्या है सो तो बताओ? बताओ वहाँ ठोस है कि पोल? बात तो वहाँ ये दो ही रहेगी । अगर ठोस है तो वह आकाश बिना तो नहीं रह सकता ꠰ वहाँ भी आकाश है और पोल है तो वहाँ भी आकाश है । आकाश का अंत नहीं है वह है अनंतप्रदेशी । और कालद्रव्य को अस्तिकाय में नहीं किया, क्योंकि वह एक प्रदेशी है तो प्रदेश की दृष्टि से, क्षेत्र की दृष्टि से इन द्रव्यों को अस्तिकाय कहते हैं ꠰
(101) सम्यग्दृष्टि का सप्ततत्त्वविषयक श्रद्धान―7 तत्त्व तो मोक्षमार्ग के खास प्रयोजनभूत हैं ही, क्योंकि जब यह जीव जानता है कि जीव और कर्म इनके संबंध से यह दुःख पा रहा है तो ये मूल दो चीजें हुए जीव और अजीव । जीव में अजीव आया यह हुआ आस्रव और जीव में वे अजीव कर्म बहुत समय के लिए ठहर गए यह हुआ बंध और जीव के शुद्ध भावों के कारण कर्म न आ सके यह हुआ सम्वर और जो पहले के बंधे हुए कर्म हैं वे जीव से खिरने लगें तो यह हुई निर्जरा । जब सब कर्म खिर जायें, खालिस केवल एक जीव मात्र रह जाये तो यह कहलाता है मोक्ष । अब मेरे में आस्रव न हो, बंध न हो तो इसमें अपनी पूज्यता है । आश्रय किस कारण होता है? उन विषयों की अभिलाषा अथवा कषाय में पड़ जाना, इससे आस्रव होता है, यदि यह बात न हो तो आस्रव न होगा, कल्याण का मार्ग मिलेगा । तो इन 7 तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से इस जीव को सम्यक्त्व का लाभ होता है । तो यह सम्यग्दृष्टि पुरुष कौन कहलाता है? तो 6 द्रव्य, 9 पदार्थ, 5 अस्तिकाय, 7 तत्त्व, जिस स्वरूप में जिनेंद्र देव के द्वारा बताये गए हैं उस ही स्वरूप में इन तथ्यों का श्रद्धान जो करता है उसको ही सम्यग्दृष्टि जानियेगा । तो जो सम्यग्दृष्टि हो और फिर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भेषों का धारण करने वाला हो सो वह लिंग भेष अथवा उसमें रहने वाला आत्मा जैन शासन में पूज्य माना जाता है ।