वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 30
From जैनकोष
णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण ।
चोण्हं पि समाजोगे सिद्धा जीवा ण संदेहो ।। 30 ।।
(143) सम्यग्दर्शनादि की आराधना की अनिष्फलता―ज्ञान होने पर, दर्शन होने पर और सम्यक्त्वसहित तय होने पर और चारित्र होने पर जीव सिद्ध होता है, इसमें कोई संदेह नहीं । चार प्रकार की आराधनायें बतायी गई है―(1) सम्यक्त्व की आराधना (2) ज्ञान की आराधना (3) चारित्र की आराधना और (4) तप की आराधना ꠰ सम्यक्त्व की आराधना क्या है? जो सम्यग्दर्शन का विषय है अखंड सहज चिन्मात्र अंतस्तत्त्व, इसकी ओर प्रीति पूर्वक निहारना, इसमें ही हित का विश्वास रखना, मेरा हित मेरे सम्यक्त्वभाव से ही है, अन्य पदार्थ से नहीं है, ऐसे सम्यक्त्व को हित रूप से निहारना यह सम्यक्त्व की आराधना है । अपना परिणमन सम्यक्त्वरूप होना यह सम्यक्त्व की आराधना है । दुनिया में दूसरों-दूसरों के घर तो खूब जाये और जाने, पर अपने घर को न जाने, न रहे तो उसका गुजारा नहीं चल सकता । (यह एक लोक व्यवहार की बात कह रहे हैं) तो परमार्थ से यह ही बात है । अपने धाम को अपने स्वरूप को जानें कि यह कैसा स्वरूप है और अपने ही स्वरूप में रमे तो उसका गुजारा है, वह आनंद पाता है । जगत् में कोई सार नहीं ।
(144) विवेकबल के बिना ही कायरता का योग―जैसे कोई जुवा खेलने वाला किसी जुवा की फड़ पर बैठ जाये और उसमें अपना आधा धन हार जावे जितना कि अपने पास लिए था और वह चाहें कि मैं अब यहाँ से चला जाऊँ, अपना आधा धन बचा लूं तो वहाँ फड़ पर बैठे हुए लोग उसे फड़ से उठने नहीं देंगे । वे लोग ऐसी तानाकसी खींचेंगे कि वह उठ न पायगा फड़ पर बैठा ही रहेगा । जैसे―बस इतनी ही दम थी,....और जीत गया तो भी वह वहाँ से उठ न सकेगा । वे फड़ पर बैठे हुए लोग ऐसी तानाकसी करेंगे कि बस चल दिए, तुम बड़े खुदगर्ज निकले, जीत गए तो भगने लगे । यों वह फड़ से उठ न सकेगा । तो ऐसा ही समझो कि यह सारा संसार जुवा का फड़ है । किस तरह यहाँ से कोई हटे? बड़ा कठिन है, क्योंकि परिवार के लोग, अपने संग के लोग एक इस प्रकार व्यवहार करते हैं कि कुछ विरक्ति भी आये किसी में तो लोग उसकी विरक्ति को ढाने का प्रयत्न करते हैं । किंतु जो अत्यंत कुशल व्यक्ति हैं वे किसी के बहकाने में नहीं आते । जैसे जुवारी लोग चाहे कुछ भी कहें मगर जो चतुर होगा वह तो उठकर चल ही देगा, ऐसे ही जो ज्ञानी पुरुष है वह किसी भी वैभव या परिजन को देखकर उनके आकर्षण से अपना जीवन नहीं खोता, अपना विवेक बनाता है । ज्ञानी का विवेक यदि यह कहता है कि गृहस्थी में रहकर ही हम धर्मसाधना ठीक निभा पायेंगे, घर छोड़कर हम इस स्थिति में न निभा पायेंगे तो विवेक उसे घर में रख रहा है, और जब कभी यह अपने को समर्थ समझ ले तो विवेक ही उसे घर से निकाल देता है । ज्ञानी पुरुष हर स्थितियों में अपने विवेक से काम लेता है । तो मुख्य बात तो सम्यग्दर्शन है और सम्यक्त्व हुए बाद उसे कुछ पूछना नहीं पड़ता । जो सही मार्ग है वह उसको सहज मिलता जाता है । तो ज्ञान होने पर, सम्यग्दर्शन होने पर जो तपश्चरण और चारित्र होता है तो ये चारों मिलकर मोक्ष के हेतु बनते हैं ।
(145) तप आराधना से सिद्धि―तपश्चरण क्या? इच्छाओं का निरोध । इस मन को बाह्य विषयों में न जाने देना । कुछ सार ही नहीं बाहर में । तुम किसके भोगने की इच्छा करते हो? तेरा हितरूप तो तेरा ज्ञानस्वरूप है, अपने ज्ञान में अपने ज्ञानस्वरूप को लिए रह, इस ही में तेरी भलाई है, बाह्य पदार्थ में उसके इच्छा नहीं है यह ही तपश्चरण है, अब ये इच्छायें किस-किस प्रकार से रुके, कैसे-कैसे दूर हों, उनके ही उपाय में 12 प्रकार के तप बताये गए हैं । इन समस्त तपों में इच्छाओं को दूर करना यह ही उद्देश्य बसा हुआ है । तो तप की आराधना किया । यह तपश्चरण उसके लिए हितरूप है इस स्थिति में जहाँ के इंद्रिय और मन उद्दंड हो सक रहे हैं ।। इनको निग्रह करने का, इनको जीतने का उपाय तपश्चरण है । तपश्चरण को आनंद माना है । धूप में बैठने का आनंद नहीं मानते, किंतु धूप में बैठे हुए की स्थिति में जो इंद्रिय और मन अपने आप सही बन गए; विषयों की इच्छा न रही, उससे जो भीतर ज्ञान के अनुभवन का दर्शन का आनंद है वह आनंद मिल रहा । लौकिकजन तो यह देखते हैं कि ऐसी कड़ी गर्मी में तेज धूप में बैठे ये मुनिराज कैसा तपश्चरण कर रहे मगर वे तो वहां अंत: आनंद लुट रहे हैं । जो आत्मस्वरूप पर दृष्टि है और उस ही में ज्ञान की जो रमण है उसका वे अद्भुत आनंद लुटते हैं । उस तप की मन में प्रशंसा होना, उस तपश्चरण में अपना प्रयत्न होना यह है तब की आराधना । चारित्र की आराधना । सम्यक्चारित्र ही साक्षात् मोक्ष का हेतुभूत है । जैसे सीढ़ियाँ होती हैं तो जो आखिरी ऊपर की सीढ़ी है उस पर पहुंचने पर महल में पहुंच सकते हैं । महल में पहुंचने की साधन वे सब सीढ़ियां हैं, उन पर से गुजरने पर जीव साक्षात् पहुंच गया, तत्काल की बात वह आखिरी सीढ़ी है ꠰ तो सम्यक्चारित्र मोक्ष के अति निकट का भाव है । सम्यक्चारित्र के मायने आत्मा आत्मा में रमण करे, ज्ञान में ज्ञानस्वरूप समाया हो, ऐसी जो ज्ञान की स्थिति है उसे कहते हैं सम्यक्चारित्र । तो ज्ञानी पुरुष इस सम्यक्चारित्र की भावना रखता है । यों चारों का समायोग होने पर जीव सिद्ध होता है । इसमें रंच भी संदेह नहीं है ꠰