वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 32
From जैनकोष
लद्धूण य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गुत्तेण ।
लद्धूण य सम्मत्तं अक्खयसुक्खं च मोक्खं च ꠰꠰32꠰।
(149) मनुष्यत्व की दुर्लभता के प्रकरण में अनादिवास का कथन―उत्तम गोत्र से सहित मनुष्यपना पाकर और सम्यक्त्व को पाकर यह जीव अविनाशी मोक्षसुख प्राप्त करता है । पहले तो मनुष्यपना मिलना ही दुर्लभ है । इस जीव का अनादि वास निगोद में रहा, कब से रहा, इसकी कोई म्याद नहीं? अनादि से ही रहा । जिस किसी प्रकार कोई कर्मयोग हुआ तो निगोद पर्याय से निकलता है, कर्मयोग के मायने यह है कि जीव जिन कर्मों का बंध करता है उसी समय उन कर्मों में प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध ये चारों निश्चित हो जाते हैं और हिसाब यह रहता है कि स्थिति के अनुसार जैसे-जैसे आगे-आगे समय में परमाणु बटते हैं वैसे-वैसे परमाणु तो कम होते जाते हैं और अनुभाग बढ़ता जाता है । तो ऐसे पहले के अनेक समयों के बद्ध कर्म एक समय में उदय में आ रहे हैं तो उनके अनुभाग का अनुपात होता है । जैसे कोई 10 दवाइयों की एक गोली बना ली जाये तो पृथक्-पृथक् दवाइयों का असर अन्य-अन्य है और 10 दवाइयों को एक में मिलाकर दवा बनाने का असर दूसरा है । उनका असर उनके अनुपात माफिक है । ऐसे ही एक समय में जो उदय चल रहा वह अनुपात माफिक है । वह अनुपात जब कभी मंद दशा का आये और वही आयुबंध हो, गतिबंध हो और सुविधाजनक बातें होती हैं । कितने ही निगोद तो मनुष्यभव का बंध करके सीधे मनुष्यभव पा लेते हैं, पर यह अत्यंत विरलों को होता है ।
(15॰) निगोद से निकलकर अन्य स्थावरों में जन्म लेने की दुर्लभता―निकलने का तारतम्य के अनुसार क्रम यह है कि निगोद से निकले तो अन्य स्थावरों में जन्म लेता है, पृथ्वी, काय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और प्रत्येक वनस्पति, इन स्थावरों में जन्म लेता है । निगोद कहलाता है साधारण वनस्पति । साधारण वनस्पति से निकला और इन 5 प्रकार के एकेंद्रियों में उत्पन्न हुआ, अब यहाँ भी कुछ वश नहीं है, क्योंकि मन नहीं हैं । जहाँ तक मन नहीं वही तक कुछ वश नहीं चलता कि यह जीव अपना कोई पुरुषार्थ बनाये और तरक्की करें ꠰ वहां जो भी तरक्की होती है वह कर्मोदय की मंदता में होती है । जैसे कोई मनुष्य नदी पार कर रहा है तो नदी में अगर पूर अधिक है, तेज है तो वहाँ पार होना कठिन है, चलकर पार कर ही नहीं सकता और यदि नदी का वेग हल्का हो जाये तो वही पौरुष चल जाता है ।
(151) स्थावरों से निकलकर त्रसपर्याय पाने की दुर्लभता―एकेंद्रिय जीव भी कोई अवसर पाकर दोइंद्रिय जाति का बंध करके दो इंद्रिय में उत्पन्न हो लेता है । त्रस पर्याय में अब आया है, दो इंद्रिय जीव मरकर तीन इंद्रिय में पैदा हुआ तो यह उसकी प्रगति है, वहाँ से और प्रगति हुई तो तीन इंद्रिय से मरकर चार इंद्रिय में आया, चार इंद्रिय से मरकर असंज्ञी पंचेंद्रिय में आया, असंज्ञी पंचेंद्रिय से मरकर संज्ञी पंचेंद्रिय में आया, तो संज्ञी पंचेंद्रिय में नाना प्रकार की स्थितियां हैं । मेढक, चूहा, बिल्ली, कुत्ता आदि नाना प्रकार की जातियां हैं, उनमें उत्पन्न हुआ और कदाचित् और बड़ा बना जैसे घोड़ा, बैल, झोंटा, गधा, ऊँट, हाथी आदि तो वहाँ भी बहुत-बहुत बोझ लादा गया, बंधन, किया गया, वध किया गया । यों नाना प्रकार के दुःख भोगता है । अगर वहाँ कोई निर्बल है तो उसे बलवान पशुओं ने खाया और अगर बलवान हो तो क्रूर परिणाम का होने से अपना जीवन बिगाड़ता है, अनेक पापों का बंध करता है । तिर्यंचगति में उसने बहुत पाप किया तो मरकर मानो यह नरक में गया । यह कोई नियम नहीं, है जैसा कि विकास बताया जा रहा है । तिर्यंच मरकर मनुष्य भी हो जाये, देव भी हो सकता, पर यहाँ तारतम्य के अनुसार उसके क्रम में यह बात बतला रहे हैं कि नरक गति में जन्म लेकर इसने बड़े कठिन दुःख भोगे ।
(152) नरकगति के प्राकृतिक दुःख―वहां प्राकृतिक दुःख क्या-क्या हैं? तो वहाँ की भूमि ही ऐसी है कि उस भूमि के छूने से ही कठिन दुःख होता है । और उपमा दी है कि हजारों बिच्छू काटे तो भी उतना दुःख नहीं होता जितना कि नरक की भूमि छूने से होता है । तो क्या भूमि के स्पर्श में ऐसी वेदना संभव है? हां संभव है । यहाँ भी तो देखो―अगर बिजली का करेन्ट भींत में या फर्श में आ गया तो उस पर पैर धरना कठिन हो जाता है । वहाँ सारी पृथ्वी ऐसी है कि जिस भूमि के छूने से नारकी जीवों को इतना दुःख होता है कि हजारों बिच्छुवों के डसने पर भी उतना दुःख नहीं होता । और क्योंजी, वहाँ कभी-कभी देव भी तो जाते हैं संबोधने के लिए । असुर कुमार जाति के देव तो लड़ने के लिए जाते हैं । तो जो देव वहाँ पहुंचते हैं क्या उन्हें भी वहाँ की भूमि छूने से दु:ख होता है ?.... नहीं होता । यह फर्क कैसे पड़ गया? तो यह सब पुण्य पाप का खेल है । सीता का जीव प्रतींद्र रावण व लक्ष्मण को संबोधने के लिए नरकों में गया तो उसे तो वहाँ की भूमि छूने से दुःख नहीं हुआ । यहाँ भी तो देखा जाता कि जब रबड़ के जूते पहिनकर कोई आ जाये फर्श में और वहाँ हो बिजली का करेन्ट तो वह करेन्ट उसके तो नहीं लगता और, जो नंगे पैरों वाला कोई आ जाये तो उसके वह करेन्ट लग जाता । यह फर्क तो यही भी देखा जाता । फिर वहाँ तो कुछ देह का भी फर्क है और पुण्य पाप का महान अंतर है जिससे नरकों में प्राकृतिक दुःख अधिक है, जिन्हें कोई देता नहीं और होते रहते हैं । वहाँ ठंड और गर्मी इतनी पड़ती है कि मेरू के बराबर लोहा हो तो वह भी गल जाये, पर ऐसी ठंड गर्मी में उन्हें रहना पड़ता है । तो प्राकृतिक दुःख वही हैं ।
(153) नरकगति में पारस्परिक दु:ख―नारकी परस्पर दुःख पहुंचावे सो वह भी दुःख है । एक नारकी दूसरे नारकी को देखकर जैसे यहाँ एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखकर गुर्राता है बुरी तरह लड़ता है, सारा बल लगाकर, दांत निकालकर गुस्से में होकर, चिपटकर एक दूसरे को चीथता है, यह, उनका जातिस्वभाव है, ऐसे ही नारकी जीवों में परस्पर एक दूसरे को देखकर ऐसा क्रोध जमता है, बैर जगता है कि वे तिल-तिल बराबर देह के टुकड़े कर डालते हैं? मगर उनके पाप का उदय है ऐसा कि तिल-तिल बराबर टुकड़े भी हो गए और तुरंत वे जुड़ गए, देह बना है फिर ज्यों का त्यों । वे मरते नहीं है । एक नारकी जीव ऐसे हैं जो अपना मरण चाहते हैं, पर मरण नहीं हो पाता । बाकी तीन गतियों के जीव ये मरना नहीं चाहते । यह तो स्वयं नारकियों ने एक दूसरे को तकलीफ पहुंचायी और केवल इतनी ही बात नहीं, उनका शरीर ऐसा वैक्रियक है कि कोई नारकी चाहे कि मैं इसके सिर पर कुल्हाड़ी मारूँ तो बस भाव करते ही हाथ उठाया कि हाथ कुल्हाड़ा बन जाता है । तो ऐसी कठिन वेदनायें नारकियों में परस्पर होती रहती हैं । इसके अतिरिक्त दूसरे भी दुःख दिलाने वाले होते हैं ।
(154) असुर द्वारा भिड़ाये जाने का नरकगति में दुःख―असुर जाति के देव जिन्हें अंबा, वरीष, उपजाति कहते हैं असुर भी सभी नहीं भिड़ाते, उनमें भी जिनको कौतूहल है, जिनको मूढ़ता है वे ही जान-बूझकर भिड़ाते हैं । जैसे यहाँ के, कोई-कोई मनुष्य तीतर, मुर्गा, बकरा, झोंटा आदि को उन्हें परस्पर में लड़ाते हैं और उसे देखकर मौज मानते हैं तो ऐसा काम सभी मनुष्य तो नहीं करते । जिनकी खोटी प्रकृति है वे ही लड़ाते हैं, ऐसे ही सभी असुर जाति के देव उन नारकियों को नहीं लड़ाते, किंतु जिनकी प्रकृति खोटी है वे ही लड़ाते हैं किस तरह लड़ाते हैं ? उनको ऐसा याद दिलाते है कि देख तेरा यह पूर्वभव का बैरी आया । तेरा इस-इस तरह से कत्ल किया था, और वहाँ जो भी नारकी होते है चाहे वे पूर्वभव के संबंधी ही क्यों न हों, वहाँ पहुंचते ही प्रकृत्या उनमें बैर हो जाता है । मां ने अगर बच्चे की आंख में अंजन डाला हो, सलाई से अंजन लगाया हो और मां बेटे दोनों नरक में पहुंच जाये, एक दूसरे को देखें तो बेटा कुअवधिज्ञान से ऐसा जानेगा कि उसने मेरी आंख में तकुआ चुभोया था, मेरी आंख फोड़ना चाहा था, यों उल्टा अवधिज्ञान (कुअवधिज्ञान) होता है, तो वहाँ असुर जाति के देव एक दूसरे को भिड़ाते हैं, उनकी पहले की घटनायें याद कराते हैं । तो यह प्रेरणा वाला कष्ट है वहां । ऐसा सागरों पर्यंत कष्ट भोगता है नारकी जीव ।
(155) दुर्लभ मनुष्यजन्म पाकर भी अज्ञानवश प्रमाद―मान लो किसी नारकी के कुछ भले भाव हुए, और उसने मनुष्यायु बांध ली, वह मनुष्य बन गया । मनुष्य कोई भी बन सकता है । तिर्यंच भी बन जाते मगर एक क्रम मन में रखकर बोल रहे हैं । मनुष्य होने पर सब जानते ही हैं कि यहां कितने कष्ट हैं, कोई नीच कुल में उत्पन्न होता, वहाँ की अनेक तरह की बाधायें, अत्यंत दरिद्रता आयी उसकी वेदना, उपद्रव आते हैं वह भी वेदना । उनको रोग भी अनेक हुआ करते हैं उसका भी कष्ट, असंगति मिले, अज्ञान में बढ़ गए उसका भी कष्ट । तो ऐसे अनेक कष्टों में इस जीव का समय गुजरा और बड़ी मुश्किल से यह मनुष्यभव में आया । मनुष्यभव से मानो देवगति में पहुंचा तो देवगति में भी तरक्की का कोई उपाय नहीं, शारीरिक सुख या अन्य काल्पनिक मौज तो अनेक हैं, मगर कल्पनायें उन्हें दुःखी भी करती हैं । किसी भी तरह यह जीव उत्तम गोत्र के मनुष्य में उत्पन्न हुआ तो इसके मोक्षमार्ग में चलने की बुद्धि नहीं आयी तो वह भी व्यर्थ । आत्महित की बुद्धि जगे तो यह मनुष्यभव का पाना भी सफल है । तो किसी प्रकार उत्तम गोत्र से सहित मनुष्यपना पाया, वहाँ यह, प्रयास करना चाहिए कि मेरे को आत्मा के सही स्वरूप का बोध हो, सम्यक् स्वरूप के मायने अधिकार जाननमात्र जैसी अपनी सत्ता में अपना भाव है उसरूप अपने को अनुभव करना यह है सम्यक्त्व ꠰ तो ऐसे सम्यक्त्व को पाकर यह जीव और आगे बढ़े । जिसमें हित और शांति । समझा है, जिस स्वरूप को औपाधिक परभावों से निराला देखा है उसमें उपयोग को स्थिर करने का पौरुष करें, और इस प्रकार यह जीव अविनाशी मोक्षपद को प्राप्त करता है ꠰