वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 1
From जैनकोष
जीवमजीवं दव्वं जिणवरवसहेण जेण णिद्दिट्ठं ।
देविंदविंदवंदं वंदे तं सव्वदा सिरसा ।।1।।
अन्वय―जेण जिणवरवसहेण जीवमजीवं दव्वं णिद्दिट᳭ठं देविंदविंदवंदं तं सव्वदा सिरसा वंदे ।
अर्थ―जिन जिनवरवृषभ (तीर्थंकरदेव) ने जीव व अजीव द्रव्य का निर्देश किया है, देवेंद्रों के समूह द्वारा वंदनीय उन प्रभु को सदा सिर नमाकर वंदन करता हूँ ।
प्रश्न 1―जिन्हें वंदन किया है उनको जीव अजीव द्रव्य के निर्देष्टा―इस विशेषण से कहने का क्या कोई विशेष प्रयोजन है ?
उत्तर―यह विशेषण ग्रंथनाम से संबंध रखता है । इस ग्रंथ में द्रव्यों का वर्णन करना है अत: द्रव्य के निर्देष्टा को वंदित किया है ।
प्रश्न 2―इस विशेषण से क्या कुछ ग्रंथ की भी विशेषता होती है ?
उत्तर―जिन द्रव्यों का वर्णन इस ग्रंथ में करना है उन द्रव्यों का निर्देष्टा निर्दोष आप्त बतलाने से ग्रंथ की प्रामाणिकता सिद्ध होती है ।
प्रश्न 3―द्रव्य के नाम के लिये यहाँ “जीव अजीव” इतने शब्दों से क्यों कहा ?
उत्तर―जीव व अजीव के परिज्ञान बिना स्वभाव की प्राप्ति असंभव है अत: निज के स्वभाव जानने के प्रयोजन को जीव शब्द से बताया है व अन्य जिन सबों से लक्ष्य हटाना है उनको अजीव शब्द से कहा है ।
प्रश्न 4―मूर्त और अमूर्त―इस प्रकार भी तो द्रव्य के दो प्रकार हैं, तब “मुत्तममुत्तं द्रव्यं” इस प्रकार क्यों नहीं कहा गया ?
उत्तर―मूर्त अमूर्त कहने पर अमूर्त आत्मा मूर्त से तो पृथक् हो गया, किंतु अमूर्त अन्य 4 द्रव्यों से पृथक् प्रतीत नहीं हो पाता, अत: केवल आत्मा के ध्यान का मार्ग बनाने के उद्देश्य से रचित इस ग्रंथ में जीव अजीव शब्द का प्रयोग किया है ।
प्रश्न 5―जीव अजीव में जीव का पहिले नाम क्यों रक्खा ?
उत्तर―सब द्रव्यों में जीव ज्ञाता होने से प्रधान है तथा वक्ता श्रोता सभी जीव हैं । जीव को ही कल्याण करना है, अत: जीव का पहिले नाम रक्खा है ।
प्रश्न 6―जीव और अजीव का लक्षण क्या है ?
उत्तर―जीव अजीव के संबंध में इसी ग्रंथ में आगे विस्तार से वर्णन होगा, अत: यहाँ न कहकर अन्य आवश्यक बातें कही जायेगी ।
प्रश्न 7―श्लोक में व ग्रंथनाम में “दव्वं” शब्द क्यों कहा गया, तच्चं (तत्त्व) आदि शब्द भी तो कहा जा सकता था ?
उत्तर―वस्तु को पदार्थ, अस्तिकाय, द्रव्य, तत्त्व―इन चार शब्दों से कहा जाता है । इनमें द्रव्यदृष्टि से तो पदार्थ, क्षेत्रदृष्टि से अस्तिकाय, कालदृष्टि से द्रव्य, भावदृष्टि से तत्त्व नाम पड़ता है । सो इस ग्रंथ में काल की (पर्याय) बहुलता से वस्तु का वर्णन है, अत: दव्वं शब्द कहा है ।
प्रश्न 8―जिणवरवसहेण इतना बड़ा शब्द क्यों रक्खा, जब तीर्थंकर जिन भी कहलाते हैं, सो मात्र जिन शब्द से भी काम चल जाता ?
उत्तर―जिणवरवसह (जिनवरवृषभ) शब्द का अर्थ है जो मिथ्यात्व बैरी को जीते सो जिन अर्थात् सम्यग्दृष्टि गृहस्थ व मुनि उन सबमें श्रेष्ठ गणधर व उनसे भी श्रेष्ठ तीर्थंकर । इन तीन शब्दों से परंपरा भी सूचित कर दी गई है कि सिद्धांत के मूलग्रंथकर्ता तो तीर्थंकर देव हैं अर्थात् इनकी दिव्यध्वनि के निमित्त से सिद्धांत का प्रवाह चला, उसके बाद उत्तरग्रंथकर्ता गणधर देव हुए, फिर अन्य मुनिजन हुए, बाद में गृहस्थ पंडितों ने भी उसका प्रवाह बढ़ाया ।
प्रश्न 9―यहां “णिद्दिट्ठं” शब्द ही क्यों दिया, रचित आदि क्यों नहीं दिया ?
उत्तर―किसी भी सत् का रचने वाला कोई नहीं है । जीव अजीव द्रव्य सभी स्वतंत्रता से अपना अस्तित्व रखते हैं; तीर्थकर परमदेव ने तो पदार्थ जैसे अवस्थित हैं वैसा निर्देश मात्र किया (दर्शाया) है । इससे अकर्तृत्व सिद्ध हुआ ।
प्रश्न 10―देविंदविंदंवंदं इस विशेषण से प्रभु की निज महिमा तो कुछ भी नहीं हुई, फिर इस विशेषण से क्या द्योतित किया ?
उत्तर―जिन्हें देवेंद्रों का सर्वसमूह वंदन करता हो, उनमें उत्कृष्ट सच्चाई अवश्य है, सो इस विशेषण से उत्कृष्ट सच्चाई सुव्यक्त की; तथा वंदना का प्रकरण है उसमें केवल यही बात नहीं है कि मैं वंदना करता हूँ, किंतु उन्हें तीन लोक वंदन करता है । कहीं मैं नया मार्ग नहीं कर रहा हूँ, यह द्योतित होता है ।
प्रश्न 11―वंदन कितने प्रकार से होता है ?
उत्तर―जितनी दृष्टियां हैं उतने प्रकार से वंदन हैं । उनको संक्षिप्त करने पर ये पाँच दृष्टियां प्राप्त होती है―(1) व्यवहारनय, (2) अशुद्धनिश्चयनय, (3) एकदेशशुद्धनिश्चयनय, (4) सर्वशुद्धनिश्चयनय, (5) परमशुद्धनिश्चयनय ।
प्रश्न 12―व्यवहारनय से किसको वंदन किया जाता है ?
उत्तर―व्यवहारनय से अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतशक्ति―संपन्न घातिकर्मक्षयसिद्ध तीर्थंकर परमदेव को नमस्कार किया है ।
प्रश्न 13―अशुद्धनिश्चयनय से किसको वंदन हुआ ?
उत्तर―तीर्थंकर परमदेव के लक्ष्य के निमित्त से जो प्रमोद व भक्तिभाव हुआ है उस भाव को उस भाव में परिणत होने रूप वंदन हुआ है ।
प्रश्न 14―एकदेशशुद्धनिश्चयनय से किसका वंदन हुआ ?
उत्तर―इस नय से निज आत्मा में ही जो शुद्धोपयोग का अंश प्रकट हुआ है उसके उपयोगरूप वंदन हुआ है ।
प्रश्न 15―सर्व शुद्धनिश्चयनय से किसको वंदन हुआ है ?
उत्तर―इस नय से पूर्ण शुद्धपर्याय गृहीत होती है, वह वंदक के हैं नहीं और जब होगी तब केवल शुद्ध परिणमन हैं, वहाँ मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहते हैं ।
प्रश्न 16―परमशुद्ध निश्चयनय से किसको नमस्कार हुआ ?
उत्तर―यह नय विकल्पातीत अनादिनिधन स्वत:सिद्ध चैतन्यमात्र को देखता है, वहाँ वंद्यवंदक भाव नहीं है ।
प्रश्न 17―इस श्लोक में किस नय से वंदन हुआ है ?
उत्तर―शब्द-प्रणाली से तो व्यवहारनय से वंदन हुआ और परमशुद्ध निश्चयनय व सर्वशुद्धनिश्चयनय को छोड़कर शेष अशुद्ध निश्चयनय व एकदेश शुद्धनिश्चयनय से पूर्वोक्त वंदन अंतर्निहित है ।
प्रश्न 18―यहां सर्वदा वंदन करना लिख रहे हैं यह तो सिद्धांतविरुद्ध भाव है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि यदि सर्वदा कुछ चाहता है तो ज्ञानमात्र परिणमन ही चाहता है ?
उत्तर―यहां सर्वदा के काल को सीमा के भीतर ही लेना चाहिये अर्थात् जब तक निर्विकल्प स्थिति के सन्मुख नहीं हुआ तब तक आपका स्मरण वंदन रहे । जब तक अजीव से पृथक् निज जीवस्वरूप की निर्विकल्प उपलब्धि न हो तब तक ध्यान रहे ।
प्रश्न 19―सिरसा शब्द देने की कोई विशेषता है क्या ?
उत्तर―सिर श्रद्धा की हाँ के साथ ही झुकता है, इससे मन की संभाल सूचित हुई । अंतर्जल्प के साथ सिर नमता है, इससे वचन की संभाल हुई । काय की संभाल तो प्रकट व्यक्त है । इस तरह सिरसा इस शब्द से मन, वचन, काय तीनों को संभालकर वंदन करना सूचित हुआ ।
प्रश्न 20―द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म तीनों से रहित परमात्मा तो सिद्ध परमेष्ठी हैं जो अत्यंत उत्कृष्ट हैं उन्हें नमस्कार करना चाहिये था ?
उत्तर―यद्यपि यह सत्य है कि सर्वोत्कृष्ट देव सिद्ध परमेष्ठी हैं और वे आराधनीय हैं तथापि उनका भी परिज्ञान एवं विविध सम्यग्ज्ञान श्री जिनेंद्रदेव के प्रसाद से हुआ है तो उनके उपकार के स्मरण के लिये अर्हंत परमेष्ठी को नमस्कार किया है तथा जितने भी सिद्ध परमेष्ठी हुए हैं वे भी पहिले अरहंत परमेष्ठी थे, सो उनकी पूर्वावस्था ने नमस्कार में सिद्धप्रभु का नमस्कार तो सिद्ध ही है ।
प्रश्न 21―विवेकी जनों की शासनप्रवृत्ति संबंध, अभिधेय, प्रयोजन, शक्यानुष्ठान बिना होती नहीं है । यहाँ ये चारों किस प्रकार हैं ?
उत्तर―संबंध तो यहाँ व्याख्यान व्याख्येय का है । व्याख्यान तो द्रव्य व परमात्मस्वरूप आदि के विवरण का है और व्याख्येय उसके वाचक सूत्र हैं । अभिधेय परमात्मस्वरूप आदि वाच्य अर्थ हैं । प्रयोजन सब द्रव्यों का परिज्ञान है और निश्चय से ज्ञानानंदमय निज स्वरूप का संवेदन, ज्ञान है और अंत में पूर्ण शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति है । शक्यानुष्ठान तो यह है ही, क्योंकि ज्ञानमय आत्मा ज्ञानरूप मोक्षमार्ग को साधे, इसमें कोई कठिनाई भी नहीं है ।
प्रश्न 22―क्या ग्रंथ के आदि में मंगलाचरण करना आवश्यक है ?
उत्तर―यद्यपि परमात्मा का व्याख्यान स्वयं मंगल है तथापि जिनेंद्रदेव के मूल परोपकार से सन्मार्ग को पाने वाले अंतरात्मा से उनका स्मरण हुए बिना रहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि महापुरुष निरहंकार और कृतज्ञ होते हैं ।
प्रश्न 23―मंगलाचरणविधान से क्या अन्य भी कोई फल व्यक्त होते हैं ?
उत्तर―मंगलाचरण के अन्य भी फल हैं―1-नास्तिकता का परिहार । 2-शिष्टाचार की पालना । 3-विशिष्ट पुण्य । 4-शास्त्र की निर्विघ्न समाप्ति । 5-कृतज्ञता का विकास । 6-निरहंकारता की सूचना । 7-ग्रंथ की प्रामाणिकता । 8-ग्रंथ पढ़ने सुनने वालों की श्रद्धा की वृद्धि आदि ।
इस प्रकार श्रीमज्जिनेंद्रदेव को नमस्कार करके श्रीमंनेमिचंद्राचार्य अब जीवद्रव्य का साधिकार वर्णन करते हैं―