वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 23
From जैनकोष
एवं छब्भेयमिदं जीवाजीवाप्पभेददो दव्वं ।
उत्तं कालविजुत्तं णायव्वा पंच अत्थिकाया हु ।।23।।
अन्वय―एवं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं छब्भेयं उत्तं, हु कालविजुत्तं पंच अत्थिकाया णायव्वा ।
अर्थ―इस प्रकार एक जीव और 5 अजीवों के भेद से यह सब द्रव्य 6 प्रकार वाला कहा गया है, परंतु कालद्रव्य को छोड़कर शेष 5 द्रव्य अस्तिकाय जानना चाहिये ।
प्रश्न 1―द्रव्य वास्तव में क्या 6 ही होते हैं?
उत्तर―द्रव्य तो वास्तव में अनंतानंत हैं क्योंकि स्वरूपसत्त्व सबका भिन्न-भिन्न ही है । इसका प्रमाण स्पष्ट है कि प्रत्येक पदार्थ का चतुष्टय अपने आपमें है । एक द्रव्य का चतुष्टय अन्य द्रव्य में नहीं पहुंचता । फिर भी जो-जो द्रव्य असाधारणगुण से भी पूर्ण समान हैं उनकी एक-एक जाति मानकर द्रव्य को 6 प्रकार की कहा है ।
प्रश्न 2―चतुष्टय से तात्पर्य क्या है?
उत्तर―द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार को यहाँ चतुष्टय शब्द से कहा गया है ।
प्रश्न 3―द्रव्य किसे कहते हैं?
उत्तर―जो स्वयं परिपूर्ण सत् है, एक पिंड है उसे द्रव्य कहते हैं । अथवा क्षेत्रकाल भाव को एक समुदाय में द्रव्य कहते हैं ।
प्रश्न 4―क्षेत्र किसे कहते हैं?
उत्तर―वस्तु के प्रदेशों को क्षेत्र कहते हैं । प्रत्येक वस्तु का कोई आकार होता है वह क्षेत्र से ही होता है । इसका अपरनाम देशांश भी है ।
प्रश्न 5―काल किसे कहते हैं?
उत्तर―परिणमन याने पर्याय को काल कहते हैं । प्रत्येक वस्तु किसी न किसी पर्याय (हालत) में होती है । पर्याय का अपरनाम गुणांश भी है ।
प्रश्न 6―भाव किसे कहते हैं?
उत्तर―पदार्थ के स्वभाव को भाव कहते हैं । शक्ति, गुण, शील, धर्म, ये इसके पर्यायवाची नाम हैं ।
प्रश्न 7―कोई पदार्थ किसी अन्य के चतुष्टयरूप नहीं है इसका स्पष्ट भाव क्या?
उत्तर―एक पदार्थ दूसरे पदार्थ के द्रव्यरूप नहीं है अर्थात् प्रत्येक पदार्थ का स्वरूपसत्त्व जुदा-जुदा है । प्रदेश भी जुदे-जुदे हैं यह क्षेत्र की भिन्नता है । कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ की परिणति से नहीं परिणमता यह काल की भिन्नता है । कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ के गुणरूप नहीं होता है यह भाव की भिन्नता है । इस तरह अनेकांतात्मक वस्तु में रहने वाले अनेक धर्म स्याद्वाद से सिद्ध हो जाते हैं ।
प्रश्न 8―अनेकांत किसे कहते हैं?
उत्तर―जिसमें अनेक अंत याने धर्म हों उसे अनेकांत कहते हैं । इस सिद्धांत का नाम भी अनेकांत है । इसको प्रकट करने की पद्धति स्याद्वाद है ।
प्रश्न 9―स्याद्वाद किसे कहते हैं?
उत्तर―अनेकानात्मक वस्तु के धर्मों को स्यात् अर्थात् अपेक्षा से वाद याने कहना स्याद्वाद है । स्याद्वाद का दूसरा नाम अपेक्षावाद भी है ।
प्रश्न 10―सप्रतिपक्ष एक धर्म को स्याद्वाद कितने प्रकार से कह सकता है?
उत्तर―सप्रतिपक्ष एक धर्म को स्याद्वाद सात प्रकार से कह सकता है । उस धर्म के विषय में अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्ति नास्ति, अस्ति नास्ति अवक्तव्य । इसे नयसप्तभंगी कहते हैं ।
प्रश्न 11―इन सातों भंगों का क्या भाव है?
उत्तर―इन भंगों को एक धर्म का आश्रय करके घटावें । जैसे नित्य धर्म का प्रकरण बनाकर देखा तो वस्तु स्यात् नित्य है, वस्तु स्यात् नित्य नहीं (अनित्य) है, वस्तु स्यात् अवक्तव्य है, वस्तु स्यात् नित्य अवक्तव्य है, वस्तु स्यात् अनित्य अवक्तव्य है, वस्तु स्यात् नित्य और अनित्य है, वस्तु स्यात् नित्य अनित्य अवक्तव्य है ।
प्रश्न 12―इन भंगों की अपेक्षायें क्या-क्या हैं?
उत्तर―वस्तु द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से अनित्य है, परमार्थ से युगपूद्दृष्टि से अवक्तव्य है, द्रव्य व युगपद्दृष्टि से नित्य अवक्तव्य है, पर्याय व युगपद्दृष्टि से अनित्य अवक्तव्य है, द्रव्य व पर्यायदृष्टि से नित्य अनित्य है, द्रव्य व पर्यायदृष्टि एवं युगपद्दृष्टि से नित्य अनित्य अवक्तव्य है ।
प्रश्न 13―स्यात् शब्द का अर्थ क्या “शायद” नहीं होता?
उत्तर―स्यात् शब्द का अर्थ “शायद” होता ही नहीं, स्यात् शब्द अपेक्षा अर्थ में निपातित है ।
प्रश्न 14-―अस्तिकाय 5 ही क्यों होते हैं?
उत्तर―अस्तिकाय संबंधी सब विवरण आगे 24वीं गाथा में किया जा रहा है, उससे जानना चाहिये ।
इस प्रकार द्रव्यजाति और अस्तिकाय जाति की संख्या बताकर अब अस्तिकाय का निरुक्त्यर्थ सहित विवरण करते हैं―