वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 31
From जैनकोष
णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि ।
दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ।।31।।
अन्वय―णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि स दव्वासवो अणेयभेओ णेओ जिणक्खादो ।
अर्थ―ज्ञानावरणादि कर्मरूप से परिणत होने योग्य जो पुद्गल आता है वह अनेक भेद वाला द्रव्यास्रव जानना चाहिये, ऐसा श्री जिनेंद्रदेव ने कहा है ।
प्रश्न 1―कौन से पुद्गल कर्मरूप में परिणत होने के योग्य होते हैं?
उत्तर―कार्माणवर्गणा नामक स्कंध कर्मरूप से परिणत होने के योग्य होते हैं ।
प्रश्न 2―कार्माणवर्गणायें कहां मौजूद रहती हैं?
उत्तर―कार्माणवर्गणायें समस्त लोक में ठसाठस व्याप्त हैं । लोक के एक-एक प्रदेश पर अनंत कार्माणवर्गणायें हैं ।
प्रश्न 3―उन कार्माणवर्गणाओं का कर्मरूप होने से पहिले भी जीव के साथ कोई संबंध हैं या नहीं?
उत्तर―कुछ कार्माणवर्गणाओं का कर्मरूप होने से पहिले भी जीव के साथ एकक्षेत्रावगाह संबंध रहता है, उन्हें विस्रसोपचय कहा जाता है । सभी संसारी जीवो के विस्रसोपचय बना रहता है ।
प्रश्न 4―क्या कुछ कार्माणवर्गणायें विस्रसोपचय से अलग भी है?
उत्तर―कुछ कार्माणवर्गणायें विस्रसोपचय से अलग भी हैं । ये भी कभी विस्रसोपचय में शामिल हो जाती हैं ।
प्रश्न 5―क्या विस्रसोपचय वाले स्कंध ही कर्मरूप परिणत होते हैं या अन्य कार्माणवर्गणायें भी कर्मरूप परिणत हो जाते हैं?
उत्तर―विस्रसोपचय के कार्माण स्कंध ही कर्मरूप परिणत होते हैं । अन्य कार्माणवर्गणायें भी विस्रसोपचयरूप बनकर कर्मरूप परिणत हो जाते हैं ।
प्रश्न 6―कर्म कितने प्रकार के हैं?
उत्तर―कर्म के मूल में 2 प्रकार है―(1 ) घातियाकर्म और (2) अघातियाकर्म ।
प्रश्न 7―घातियाकर्म किसे कहते है?
उत्तर―जो कर्म आत्मा के ज्ञानादि अनुजीवी गुणों के घातने में निमित्त हों उन्हें घातियाकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 8―अनुजीवी गुण किसे कहते हैं?
उत्तर―भावात्मक गुणों को अनुजीवी गुण कहते हैं । इन गुणों के अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । ये गुण कम या अधिक नाना प्रकार के स्थानों में विकसित हो सकते हैं । जैसे ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, शक्ति ।
प्रश्न 9―अघातियाकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो कर्म जीव के अनुजीवी गुणों का घात न करें और केवल प्रतिजीवी गुणों का विकास रुकने में निमित्त हों उन्हें अघातियाकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 10―प्रतिजीवी गुण किसे कहते हैं?
उत्तर―अभावात्मक धर्मों को प्रतिजीवी गुण कहते हैं । इन गुणों के अविभागप्रतिच्छेद नहीं होते । जैसे अगुरुलघुत्व, सूक्ष्मत्व, अवगाहना, अव्याबाध ।
प्रश्न 11―घातियाकर्म के कितने भेद हैं?
उत्तर―घातियाकर्म के चार भेद है―(1) ज्ञानावरणकर्म, (2) दर्शनावरणकर्म, (3) मोहनीयकर्म और अंतरायकर्म ।
प्रश्न 12-―ज्ञानावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो कर्म आत्मा के ज्ञानगुण को प्रकट न होने दें अर्थात् ज्ञानगुण के अविकास में जो निमित्त हो उसे ज्ञानावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 13―ज्ञानावरणकर्म के कितने प्रकार हैं?
उत्तर―ज्ञानावरणकर्म के 5 प्रकार हैं―(1) मतिज्ञानावरण, (2) श्रुतज्ञानावरण, (3) अवधिज्ञानावरण (4) मन:पर्ययज्ञानावरण और (5) केवलज्ञानावरण ।
प्रश्न 14―मतिज्ञानावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय को पाकर मतिज्ञान प्रकट न हो, उसे मतिज्ञानावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 15―श्रुतज्ञानावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो श्रुतज्ञान को प्रकट न होने दे उसे श्रुतज्ञानावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 16―अवधिज्ञानावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो अवधिज्ञान का आवरण करे उस कर्म को अवधिज्ञानावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 17―मनःपर्ययज्ञानावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो कर्म मनःपर्ययज्ञान को प्रकट न होने दे, उसे मन:पर्ययज्ञानावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 18―केवलज्ञानावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो कर्म केवलज्ञान को प्रकट न होने दे, उसे केवलज्ञानावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 19―आत्मा में यदि केवलज्ञान आदि ज्ञान हैं तो उनका आवरण हो ही नहीं सकता और यदि नहीं है तो आवरण किसका हो?
उत्तर―आत्मा में केवलज्ञान आदि शक्तिरूप से हैं, कर्म के निमित्त से वे प्रकट नहीं हो पाते, यही उनका आवरण है ।
प्रश्न 20―क्या ज्ञानावरणकर्म निश्चय से ज्ञान का घात करते हैं?
उत्तर―एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का किसी प्रकार का परिणमन नहीं करता, अतः निश्चय से कर्म ज्ञान का घात नहीं करता, किंतु ऐसा सहज ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि कर्मों के उदय होने पर आत्मज्ञानगुण का उचित विकास नहीं कर पाता । उदय भी ऐसी योग्यता वालों के होता है ।
प्रश्न 21-―दर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो आत्मा के दर्शनगुण का विकास न होने दे, उसे दर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 22-―दर्शनावरणकर्म के कितने भेद हैं?
उत्तर-―दर्शनावरणकर्म के 9 भेद हैं―(1) चक्षुर्दर्शनावरण, (2) अचक्षुर्दर्शनावरण, (3) अवधिदर्शनावरण, (4) केवलदर्शनावरण, (5) निद्रा, (6) निद्रानिद्रा, (7) प्रचला, (8) प्रचलाप्रचला, (9) स्त्यानगृद्धि ।
प्रश्न 23―चक्षुर्दर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-―जो कर्म चक्षुर्दर्शन को न होने दे उसे चक्षुर्दर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 24―अचक्षुर्दर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-―जो कर्म अचक्षुर्दर्शन न होने दे उसे अचक्षुर्दर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 25―अवधिदर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो कर्म अवधिदर्शन न होने दे उसे अवधिदर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 26―केवलदर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो कर्म केवलदर्शन को प्रकट न होने दे उसे केवलदर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 27―निद्रादर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से साधारण नींद आवे, जहाँ दर्शन अथवा स्वसंवेदन न हो सके उस कर्म को निद्रादर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 28―निद्रानिद्रादर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से गाढ़ निद्रा आवे, बीच में जगकर भी पुन: सो जावे, जिससे दर्शन अथवा स्वसंवेदन नहीं हो सकता उसे निद्रानिद्रादर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 29―प्रचलादर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से अर्धनिद्रितसा सोवे, जिससे दर्शनगुण का उपयोग न हो सके उसे प्रचलादर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 30―प्रचलाप्रचलादर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से ऐसी निद्रा आवे जहाँ अंग उपांग चले, दांत किटकिटाये, मुंह से लार बहे आदि जिससे दर्शनोपयोग न हो उसे प्रचलाप्रचलादर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 31―स्त्यानगुद्धिदर्शनावरणकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से ऐसी निद्रा आवे कि निद्रा में ही उठकर कोई बड़ा काम कर आवे और जागने पर यह मालूम भी न हो उसे स्त्यानगुद्धिदर्शनावरणनामकर्म कहते हैं । इसके उदय में भी जीव को दर्शन अथवा स्वसंवेदन नहीं हो पाता ।
प्रश्न 32―मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से अन्य तत्त्वों में मोहित हो जाये, अपने शुद्ध स्वरूप का भान न कर सके और न स्वरूप में स्थिर हो सके उसे मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 33―मोहनीयकर्म के कितने भेद हैं?
उत्तर―मोहनीयकर्म के मूल में दो भेद है―(1) दर्शनमोहनीय, (2) चारित्रमोहनीय ।
प्रश्न 34―दर्शनमोहनीय के कितने भेद हैं?
उत्तर―दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं―(1) मिथ्यात्व, (2) सम्यग्मिथ्यात्व और (3) सम्यक᳭प्रकृति ।
प्रश्न 35―चारित्रमोहनीय के कितने भेद हैं?
उत्तर―चारित्रमोहनीय के 25 भेद हैं―16 कषायवेदकमोहनीय और 9 नोकषायवेदकमोहनीय ।
प्रश्न 36―कषायवेदकमोहनीयकर्म 16 कौन-कौन से हैं?
उत्तर―कषायवेदकमोहनीयकर्म 16 इस प्रकार है―(1) अनंतानुबंधीक्रोधवेदकमोहनीय, (2) अनंतानुबंधीमानवेदकमोहनीय, (3) अनंतानुबंधीमायावेदकमोहनीय, (4) अनंतानुबंधीलोभवेदकमोहनीय, (5) अप्रत्याख्यानावरणक्रोधवेदकमोहनीय, (6) अप्रत्याख्यानावरणमानवेदकमोहनीय, (7) अप्रत्याख्यानावरणमायावेदकमोहनीय, (8) अप्रत्याख्यानावरणलोभवेदकमोहनीय, (9) प्रत्याख्यानावरणक्रोधवेदकमोहनीय, (10) प्रत्याख्यानावरणमानवेदकमोहनीय, (11) प्रत्याख्यानावरणमायावेदकमोहनीय, (12) प्रत्याख्यानावरणलोभवेदकमोहनीय, (13) संज्वलनक्रोधवेदकमोहनीय, (14) संज्वलनमानवेदकमोहनीय, (15) संज्वलनमायावेदकमोहनीय और (16) संज्वलनलोभवेदकमोहनीयकर्म ।
प्रश्न 37―नोकषायवेदकमोहनीयकर्म के 9 प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर―नोकषायवेदकमोहनीयकर्म 9 इस प्रकार हैं―(1) हास्यवेदकमोहनीय, (2) रतिवेदकमोहनीय, (3) अरतिवेदकमोहनीय, (4) शोकवेदकमोहनीय, (5) भयवेदकमोहनीय, (6) जुगुप्सावेदकमोहनीय, (7) पुरुषवेदकमोहनीय, (8) स्त्रीवेदकमोहनीय और (9) नपुँसकवेदकमोहनीय ।
प्रश्न 38―मिथ्यात्वमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय को निमित्त पाकर आत्मा यथार्थ श्रद्धान न कर सके उसे मिथ्यात्वमोहनीयकर्म कहते हैं । इस कर्म के उदय से जीव शुद्ध निजस्वरूप का प्रत्यय नहीं कर सकता व शरीर आदि में आत्मबुद्धि करता है ।
प्रश्न 39―सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव के न तो केवलसम्यक्त्वरूप परिणाम हों और न केवल मिथ्यात्वरूप परिणाम हों, किंतु मिले हुए हों उस कर्म को सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 40―सम्यक᳭प्रकृतिमोहनीयकर्म किसे कहते है?
उत्तर-―जिस कर्म के उदय से आत्मा के सम्यग्दर्शन में चल, मलिन, अगाढ़ दोष उत्पन्न हों उसे सम्यक᳭प्रकृतिमोहनीयकर्म कहते हैं । इस कर्म के उदय में सम्यग्दर्शन का घात नहीं होता । ये चल मलिन अगाढ़ दोष भी अत्यंत सूक्ष्मरूप दोष हैं ।
प्रश्न 41―अनंतानुबंधी क्रोधवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से पाषाणरेखा सदृश दीर्घकाल तक न मिटने वाले ऐसे क्रोध का वेदन हो जिससे मिथ्यात्वभाव पुष्ट होता चला जावे उस कर्म को अनंतानुबंधी क्रोधवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 42―अनंतानुबंधी मानवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-―जिस कर्म के उदय से पाषाण की कठोरता सदृश दीर्घकाल तक न नमने वाले मान का वेदन हो जिससे मिथ्यात्व पुष्ट होता रहे उसको अनंतानुबंधी मानवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 43-―अनंतानुबंधी मायावेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से बांस की जड़ की तरह अत्यंत वक्र माया (छल कपट) का परिणमन हो जिससे मिथ्यात्व पुष्ट होता रहे उसको अनंतानुबंधी मायावेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 44―अनंतानुबंधी लोभवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से हिरमजी के रंग को तरह दीर्घकाल तक न छूटने वाली तृष्णा का वेदन हो जिससे मिथ्यात्व पुष्ट होता रहे उसे अनंतानुबंधी लोभवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 45―अनंतानुबंधी कषाय का कितना काल है?
उत्तर―अनंतानुबंधी कषाय के संस्कार की अवधि नहीं है । यह कई भवों तक साथ जा सकता है, अनंत भवों तक साथ जा सकता है ।
प्रश्न 46―अनंतातुबंधी कषाय का कार्य क्या है?
उत्तर―सम्यक्त्व न होने देना और मिथ्यात्व को उत्पन्न करना, पुष्ट करना, दोनों अनंतानुबंधी कषाय के कार्य हैं ।
प्रश्न 47―अनंतानुबंधी शब्द का निरुक्त्यर्थ क्या है?
उत्तर―जो अनंत भवों तक भी संबंध रखे उसे अनंतानुबंधी कहते हैं ।
प्रश्न 48―अप्रत्याख्यानावरण क्रोधवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से हलरेखासदृश (पृथ्वी में हल के चलने से होने वाले गड᳭ढे की तरह) कुछ बहुत काल तक न मिटने वाले क्रोध का वेदन हो जिससे संयमासंयम प्रकट न हो सकता उसको अप्रत्याख्यानावरण क्रोधवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 49―अप्रत्याख्यानावरण मानवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से हड्डी की तरह कुछ कठिनता से मुड़ने वाले मान का वेदन हो जिससे संयमासंयम प्रकट नहीं हो सकता उसको अप्रत्याख्यानावरण मानवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 50―अप्रत्याख्यानावरण मायावेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से मेढ़ा के सींग की कुटिलता की तरह वक्र माया का वेदन करे जिससे संयमासंयम प्रकट नहीं हो सकता उसे अप्रत्याख्यानावरण मायावेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 51―अप्रत्याख्यानावरण लोभवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से चके के ओंगन के रंग की रंगाई की तरह कुछ बहुत काल तक न छूटने वाली तृष्णा का वेदन हो जिससे संयमासंयम प्रकट नहीं हो सकता उसे अप्रत्याख्यानावरण लोभवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 52―अप्रत्याख्यानावरण कषाय का काल कितना है?
उत्तर―अप्रत्याख्यानावरण कषाय का संस्कार अधिक से अधिक 6 माह तक रहता है ।
प्रश्न 53 ―अप्रत्याख्यानावरण कषाय का कार्य क्या है?
उत्तर―अप्रत्याख्यानवरण कषाय का कार्य देश संयम को प्रकट न होने देना है अप्रत्याख्यानावरण का शब्दार्थ यह है―अ―ईषत्, प्रत्याख्यान ― त्याग का, आवरण ― ढाकने वाला । ईषत् माने आंशिक त्याग को देशसंयम अथवा संयमासंयम कहते हैं ।
प्रश्न 54―प्रत्याख्यानावरण क्रोधवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से धूलिरेखा याने गाड़ी के चक्के की लकीर के सदृश अल्पकाल तक ही न मिटने वाले क्रोध का वेदन हो जिससे सकल संयम प्रकट नहीं हो सकता उसे प्रत्याख्यानावरण क्रोधवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 55―प्रत्याख्यानावरण मानवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से लकड़ी याने काष्ठदंड की तरह कुछ शीघ्र मुड़ जाने वाले मान का वेदन हो जिससे सकल संयम प्रकट नहीं हो सकता उसे प्रत्याख्यानावरण मानवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 56―प्रत्याख्यानावरण मायावेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से गौमूत्र की तरह अल्पवक्ररूप माया का वेदन हो जिससे सकल संयम प्रकट नहीं हो सकता उसे प्रत्याख्यानावरण मायावेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 57―प्रत्याख्यानावरण लोभवेदकमोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर पर लगे हुए मल की तरह अल्प प्रयत्न से छूट सकने वाली तृष्णा का वेदन हो जिससे सकल संयम प्रकट नहीं हो सकता उसे प्रत्याख्यानावरण लोभवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 58―प्रत्याख्यानावरण कषाय का काल कितना है?
उत्तर―प्रत्याख्यानावरण कषाय के संस्कार का काल अधिक से अधिक 15 दिन तक ही है ।
प्रश्न 59―प्रत्याख्यानावरण कषाय का कार्य क्या है?
उत्तर―प्रत्याख्यानावरण कषाय का कार्य सकल संयम महाव्रत प्रकट नहीं होने देना हैं । प्रत्याख्यानावरण का शब्दार्थ यह है―प्रत्याख्यान=त्याग (सर्वदेश व्रत) का, आवरण=ढांकने वाला ।
प्रश्न 60-―संज्वलनक्रोधवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जलरेखा के सदृश शीघ्र मिट जाने वाले क्रोध का वेदन हो जिससे यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं हो सकता उसे संज्वलनक्रोधवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 61―संज्वलनमानवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से बेंत (पतली छड़ी) की नम्रता की तरह शीघ्र मिट सके, ऐसे मान का वेदन हो जिससे यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं हो सकता उसे संज्वलनमानवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 62-―संज्वलनमायावेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-―जिस कर्म के उदय से चमरी गौ के केशों की तरह अत्यल्प वक्रता वाले मायाकषाय का वेदन हो जिससे यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं हो सकता उसे संज्वलनमायावेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 63―संज्वलनलोभवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से हल्दी के रंग की तरह शीघ्र नष्ट हो जाने वाली तृष्णा का वेदन हो जिससे यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं हो सकता उसे संज्वलनलोभवेदकमोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 64―संज्वलनकषाय का काल कितना हैं?
उत्तर―संज्वलनकषाय के संस्कार का काल अंतर्मुहूर्त तक ही हो सकता है ।
प्रश्न 65―संज्वलन कषाय का कार्य क्या है?
उत्तर―संज्वलन का शब्दार्थ है-सं= सम्यक् प्रकार से, ज्वलन = जो जले अर्थात् संज्वलनकषाय सकलसंयम का नाश न करते हुए रहती है, यही इसका सम्यक᳭पना है और कषाय के कारण यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं हो पाता ।
प्रश्न 66―यथाख्यात चारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर―कषाय का अभाव होने पर आत्मा का यथा=जैसा कषायरहित शुद्ध स्वभाव है उस स्वरूप के ख्यात याने प्रकट हो जाने को यथाख्यात चारित्र कहते हैं ।
प्रश्न 67―हास्यवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय होने पर हास्यजनक राग हो उसे हास्यवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 68―रतिवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से इष्ट विषयों में रमे उसे रतिवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 69―अरतिवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से अनिष्ट विषयों में अरुचि हो उसे अरतिवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 70―शोकवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव के विषाद उत्पन्न हो उसे शोकवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 71-भयवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव के भय उत्पन्न हो उसको भयवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 72―जुगुप्सावेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव के ग्लानि उत्पन्न हो उसे जुगुप्सावेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 73―पुरुषवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से महान् कर्तव्यों में वृत्ति, स्त्रीरमणाभिलाषा आदि पौरुष भाव हों उसे पुरुषवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 74-―स्त्रीवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से कोमलांगता, नेत्रविभ्रम, मुख फुलाना, पुरुष रमणेच्छा आदि स्त्रैणा भाव हों उसे स्त्रीवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 75―नपुंसकवेदक मोहनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से स्त्री पुरुष दोनों में रमने की इच्छा, कामाग्नि की प्रबलता, कायरता आदि क्लैव भाव उत्पन्न हों उसे नपुंसकवेदक मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 76―इन उक्त नौ भेदों का नाम नोकषाय क्यों है?
उत्तर―इन कर्मों की स्थिति अल्प होती है और इनमें अनुभाग भी अल्प होता है, इस कारण ये ईषत् कषायें हैं । नोकषाय का शब्दार्थ यह है―नो=ईषत् कषाय सो नोकषाय ।
प्रश्न 77―अंतरायकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जो कर्म दो के बीच अंतर को उत्पन्न करने में निमित्त हो उसे अंतरायकर्म कहते हैं । अंतराय शब्द का अर्थ भी यही है कि जो अंतर का आय याने उत्पाद करे सो अंतराय अर्थात् जो जीव के दान, लाभ आदि में विघ्न होने में निमित्त हो उसे अंतरायकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 78―अंतरायकर्म के कितने भेद हें?
उत्तर―अंतरायकर्म के 5 भेद हैं―(1) दानांतराय, (दे) लाभांतराय, (3) भोगांतराय, (4) उपभोगांतराय और (5) वीर्यांतराय ।
प्रश्न 79―दानांतरायकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-―जिस कर्म के उदय से दान देते हुए, जीव के दान में विघ्न उपस्थित हो उसे दानांतरायकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 80―लाभांतरायकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव के लाभ में विघ्न हो उसे लाभांतरायकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 81―भोगांतरायकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव के भोग में विघ्न उपस्थित हो उसे भोगांतरायकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 82―उपभोगांतरायकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव उपभोग में विघ्न आवे उसे उपभोगांतरायकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 83-―वीर्यांतरायकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के, उदय से जीव के शक्ति के विकास में विघ्न हो उसे वीर्यांतरायकर्म कहते हैं ।
द्रव्य 84―अघातियाकर्म के कितने भेद हैं?
उत्तर―अधातिया कर्म के 4 भेद हैं―(1) वेदनीयकर्म, (2) आयुकर्म, (3) नामकर्म और गोत्रकर्म ।
प्रश्न 85―वेदनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव इंद्रिय व मन के विषयों का भोगरूप वेदन करे उसे वेदनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 86-―वेदनीयकर्म के कितने भेद हैं?
उत्तर―वेदनीयकर्म के 2 भेद हैं―(1) सातावेदनीय और (2) असातावेदनीय ।
प्रश्न 87-―सातावेदनीयकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-―जिस कर्म के उदय से जीव सुख का वेदन करे उसे सातावेदनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 88―असातावेदनीयकर्म किसे कहते हें?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव दुःख का वेदन करे उसे असातावेदनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 89―क्या वेदनीयकर्म का क्षय होने पर सुख दुःख दोनों का अभाव हो जाता है?
उत्तर―वेदनीयकर्म के क्षय होने पर सुख और दुःख दोनों का क्षय हो जाता है ।
प्रश्न 90―सुख के अभाव में जीव का स्वभाव ही मिट जावेगा?
उत्तर―जीव का स्वभाव है आनंद । आनंद गुण के परिणमन 3 होते हैं―(1) आनंद, (2) सुख और (3) दुःख । सुख और दुःख आनंदगुण के विकृत परिणमन हैं और आनंद गुण का स्वाभाविक परिणमन है ।
प्रश्न 91―सुख क्यों विकृत परिणमन है?
उत्तर―सुख का अर्थ है-―सु=सुहावना, ख=इंद्रियों को अर्थात् जो इंद्रियों को सुहावना लगे सो सुख है । यह सुख दुःख की भांति विकृत परिणमन है, क्योंकि दुःख का मतलब है―दु:=बुरा, असुहावना, ख=इंद्रियों को अर्थात् जो इंद्रियों को असुहावना लगे सो दुःख है । इंद्रियों को सुहावना असुहावना वेदन करना दोनों ही आनंदगुण के विकार हैं ।
प्रश्न 92-―आनंद स्वाभाविक परिणमन कैसे है?
उत्तर-―आनंद का भाव यह है―आ=समंतात् नंदतीति आनंद: । सर्व ओर से समृद्धिशाली होना सो आनंद है । इसमें परम निराकुल अवस्था ही परम समृद्धि है, वह कर्म क्षय होने पर होती ही है ।
प्रश्न 93-―आयुकर्म किसे कहते हें?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीवन अवस्था हो और अभाव से मरण अवस्था हो उसे आयुकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 94―आयुकर्म के कितने भेद हैं?
उत्तर―आयुकर्म के 4 भेद हैं―(1) नरकायु, (2) तिर्यगायु, (3) मनुष्यायु और (4) देवायु ।
प्रश्न 95-―नरकायुकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव का नरकभव में अवस्थान हो उसे नरकायुकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 96―तिर्यगायकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से आत्मा का तिर्यंचभव में अवस्थान हो उसे तिर्यगायुकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 97―मनुष्यायुकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव का मनुष्यभव में अवस्थान हो उसे मनुष्यायुकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 98―देवायुकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव का देवभव में अवस्थान हो उसे देवायुकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 99―नामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से नाना प्रकार शरीर संबंधी रचना हो उसे नामक में कहते हैं ।
प्रश्न 100―नामकर्म के कितने भेद हैं?
उत्तर-―नामकर्म के 93 भेद हैं―4 गतिनामकर्म (नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव), 5 जातिनामकर्म (एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय), 5 शरीरनामकर्म (औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण), 3 अंगोपांगनामकर्म (औदारिक, वैक्रियक और आहारक), 1 निर्माणनामकर्म, 5 बंधननामकर्म (औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण ), 5 संघातनामकर्म (औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, कार्माण), 6 संस्थाननामकर्म (समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, वामन, कुब्जक और हुंडक), 6 संहनननामकर्म (वज्रऋषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलक और असंप्राप्तसृपाटिका), 8 स्पर्शनामकर्म (स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, गुरु, लघु, कठोर और मृदु) 5 रसनामकर्म (अम्ल, मधुर, कटु, तिक्त, कषायित), 2 गंधनामकर्म (सुगंध और दुर्गंध), 5 वर्णनामकर्म (कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत), 4 आनुपूर्व्यनामकर्म (नरकगत्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, देवगत्यानुपूर्व्य), 1 अगुरुलघुनामकर्म, 1 उपघातनामकर्म, 1 परघातनामकर्म, 1 आतपनामकर्म, 1 उद्योतनामकर्म, 1 उच्छ᳭वासनामकर्म, 2 विहायोगतिनामकर्म (प्रशस्त और अप्रशस्त), 1 प्रत्येकशरीरनामकर्म, 1 त्रसनामकर्म, 1 सुभगनामकर्म, 1 सुस्वरनामकर्म, 1 शुभनामकर्म, 1 वादरनामकर्म, 1 पर्याप्तिनामकर्म, 1 स्थिरनामकर्म, 1 आदेयनामकर्म, 1 यश:कीर्तिनामकर्म, 1 साधारणशरीरनामकर्म, 1 स्थावरनामकर्म, 1 दुर्भगनामकर्म, 1 दुःस्वरनामकर्म, 1 अशुभनामकर्म, 1 सूक्ष्मनामकर्म, 1 अपर्याप्तिनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, 1 अनादेयनामकर्म, 1 अयश:कीर्तिनामकर्म और 1 तीर्थंकरनामकर्म ।
प्रश्न 101-―नरकगतिनामकर्म किसे कहते है?
उत्तर-―जिस नामकर्म के उदय से नरकभव के योग्य परिणाम हो जिस भाव में रहने पर नरक में उदय आने योग्य कर्मों का उदय होता है उसको नरकगतिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 102―तिर्यग्गतिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से तिर्यग्भव के योग्य परिणाम हों, जिस भाव में रहने पर तिर्यंच में उदय आने योग्य कर्मों का उदय होता रहता है उसे तिर्यग्गतिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 103―मनुष्यगतिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से मनुष्यभव के योग्य परिणाम हों, जिस भाव में रहने पर मनुष्य में उदय याने योग्य कर्मों का उदय होता रहता है उसे मनुष्यगतिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 104―देवगतिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से देवभव के योग्य परिणाम हों, जिस भाव में रहने पर, देव में उदय आने के योग्य कर्मों का उदय होता रहता है उसे देवगतिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 105―जातिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से प्राणियों के सदृश उत्पन्न हों उसे जातिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 106―एकेंद्रियजातिनामकर्म किसे कहते है?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से केवल स्पर्शनइंद्रिय वाला जीवन मिले उसे एकेंद्रियजातिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 107―द्वींद्रियजातिनामकर्म किस कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से स्पर्शन और रसना―इन दो इंद्रिय वाला जीवन मिले उसे द्वींद्रियजातिनामकर्म हैं ।
प्रश्न 108―त्रींद्रियजातिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिसके उदय से स्पर्शन, रसना व घ्राण-―इन तीन इंद्रिय वाला जीवन मिले उस कर्म को त्रींद्रियजातिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 109―चतुरिंद्रियजातिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु―इन चार इंद्रिय वाला जीवन मिले उसे चतुरिंद्रियजातिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 110―पंचेंद्रियजातिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र―इन पांचों इंद्रिय वाला जीवन मिले उसे पंचेंद्रियजातिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 111―शरीरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर की रचना हो उसे शरीरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 112―औदारिक शरीरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से औदारिक नामक आहारवर्गणा के पुद्गलस्कंध शरीररूप परिणत होते हुये जीव के साथ संबंध हो उसे औदारिक शरीरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 113―वैक्रियकशरीरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से वैक्रियक नामक आहारवर्गणा के पुद᳭गलस्कंध शरीररूप परिणत होते हुये जीव के साथ संबंध हो उसे वैक्रियकशरीरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 114―आहारकशरीरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से, आहारक नामक आहारवर्गणा के पुद्गलस्कंध शरीररूप परिणत होते हुये जीव के साथ संबंध हो उसे आहारकशरीरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 115―तैजसशरीरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से तैजसवर्गणा के पुद्गलस्कंध शरीररूप परिणत होते हुये जीव के साथ संबंध हो उसे तैजसशरीरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 116―कार्माणशरीरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से कार्माणवर्गणा के पुद्गल स्कंध कर्मरूप परिणत होकर कार्माण शरीररूप परिणत होते हुए जीव के साथ संबंध हो उसे कार्माणशरीरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 117―अंगोपांगनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से शरीर के अंग और उपांगों की निष्पत्ति होती है उसे अंगोपांगनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 118―अंग कितने और कौन-कौन से हैं?
उत्तर―अंग 8 होते हैं―(1) दक्षिण पाद, (2) वाम पाद, (3) दक्षिण हस्त, (4) वाम हस्त, (5) नितंब, (6) पीठ, (7) हृदय, (8) मस्तक ।
प्रश्न 119―उपांग कितने और कौन-कौन से हे?
उत्तर―कपाल, ललाट, कान, नाक, ओंठ, अंगुली, ठोड़ी आदि अनेक उपांग होते हैं ।
प्रश्न 120―औदारिक शरीर अंगोपांगनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से औदारिक शरीर के अंग और उपांगों की रचना हो उसे औदारिक शरीर अंगोपांग नामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 121―वैक्रियकशरीर अंगोपांगनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से वैक्रियक शरीर के अंग और उपांगों की निष्पत्ति हो उसे वैक्रियकशरीर अंगोपांगनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 122―आहारकशरीर अंगोपांगनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म में उदय से आहारक शरीर के अंग और उपांगों की रचना हो उसे आहारकशरीर अंगोपांगनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 123-―निर्माणनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से अंग उपांगों की यथायोग्य ठीक-ठीक प्रमाण से और ठीक-ठीक स्थान पर निष्पत्ति हो उसे निर्माणनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 124―बंधननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से जीवसंबंध वर्तमान पुद्गल संबंधों के साथ शरीररूप परिणत होने वाले पुद्गलस्कंधों का परस्पर बंधन हो उसे बंधननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 125―औदारिकशरीर बंधननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से जीवसंबद्ध वर्तमान पुद्गलस्कंधों के साथ औदारिक शरीररूप परिणत हुए पुद्गलस्कंधों का परस्पर बंधन हो उसे औदारिक शरीरबंधननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 126―वैक्रियकशरीर बंधननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से जीवसंबद्ध वर्तमान पुद्गलस्कंधों के साथ वैक्रियक शरीररूप परिणत हुए पुद्गलस्कंधों का परस्पर बंधन हो उसे वैक्रियकशरीर बंधननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 127―आहारकशरीर बंधननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से आहारकशरीररूप परिणत हुए पुद्गलस्कंधों का जीवसंबद्ध पुद्गलस्कंधों के साथ परस्पर बंधन हो उसे आहारकशरीर बंधननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 128―तैजसशरीर बंंधननामकर्म किसे कहते है?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से तैजसशरीररूप परिणत हुए पुद्गलस्कंधों का जीवसंबद्ध पुद᳭गलस्कंधों के साथ परस्पर बंधन हो उसे तैजसशरीर बंधननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 129―कार्माणशरीर बंधननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से कार्माणशरीररूप परिणत हुए पुद्गलस्कंधों का जीवसंबद्ध पुद्गलस्कंधों के साथ परस्पर बंधन हो उसे कार्माणशरीर बंधननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 130―संघातनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से बद्धशरीर स्कंधों का परस्पर छिद्ररहित संश्लेष हो उसे संघातनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 131―औदारिक शरीरसंघातनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से बद्ध औदारिक शरीरस्कंधों का परस्पर छिद्ररहित संश्लेष हों उसे औदारिक शरीरसंघातनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 132―वैक्रियकशरीर संघातनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से बद्ध वैक्रियकशरीर स्कंधों को परस्पर छिद्ररहित संश्लेष हो उसे वैक्रियकशरीर संघातनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 133―आहारकशरीर संघातनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से बद्ध आहारकशरीर स्कंधों का परस्पर छिद्ररहित संश्लेष हो उसे आहारकशरीर संघातनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 134-―तैजसशरीर संघातनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से बद्ध तैजसशरीर स्कंधों का परस्पर छिद्ररहित संश्लेष हो उसे तैजसशरीर संघातनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 135-―कार्माणशरीर संघातनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से बद्ध कार्माणशरीर स्कंधों का परस्पर छिद्ररहित संश्लेष हो उसे कार्माणशरीर संघातनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 136―संस्थाननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है उसे संस्थाननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 137―समचतुरस्र संस्थाननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर बिल्कुल सुडौल बने उसे समचतुरस्र संस्थाननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 138―न्यग्रोधपरिमंडल संस्थाननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से बड़ के पेड़ के आकार की तरह शरीर का नीचे का भाग छोटा और ऊपर का भाग बड़ा हो उसे न्यग्रोधपरिमंडल संस्थाननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 139―स्वाति संस्थाननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर का स्वाति (वामी) का आकार बने याने नीचे का भाग छोटा और ऊपर का लंबा बने उसे स्वातिसंस्थाननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 140―वामन संस्थाननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बौना हो उसे वामन संस्थाननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 141―कुब्जक संस्थाननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार कुबड़ा हो उसे कुब्जक संस्थाननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 142―हुंडक संस्थाननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार कई प्रकार का या विचित्र अथवा अटपटा हो उसे हुंडक संस्थाननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 143―संहनननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों और हड्डियों के संधियों याने बंधन विशेष की रचना होती है उसे संहनननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 144―वज्रऋषभनाराच संहनननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से वज्र के हाथ, वज्र के वेठन और वज्र के न हों उसे वज्रऋषभनाराच संहनननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 145―वज्रनाराच संहनननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से वज्र के हाड़ और वज्र की कलियां हों, किंतु वेठन वज्र की कीलियां हों उसे वज्रनाराच संहनननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 146―नाराचसंहनननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से हड्डियाँ कीलियों से कीलित हों उसे नारचसंहनननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 147―अर्द्धनाराच संहनननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियां आधी कीलित हों उसको अर्द्धनाराच संहनननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 148―कीलक संहनननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियां कीलियोंसी स्पष्ट हों उसे कीलकसंहनन नामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 149―असंप्राप्तसृपाटिका संहनननामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियाँ नसाजाल से बंधी हुई हों उसे असंप्राप्तसृपाटिका संहनननामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 150―स्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में नियत स्पर्श की निष्पत्ति होती है उसे स्पर्शनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 151―स्निग्धस्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में नियत स्निग्ध स्पर्श की निष्पत्ति होती है उसे स्निग्धनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 152―रूक्षस्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में नियत रूक्ष स्पर्श की निष्पत्ति होती है उसे रूक्षस्पर्शनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 153―शीतस्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में नियत शीतस्पर्श की निष्पत्ति होती है उसे शीत―स्पर्शनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 154―उष्णस्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में नियत उष्ण स्पर्श की निष्पत्ति होती है उसे उष्णस्पर्शनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 155―गुरुस्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में नियत गुरु नामक स्पर्श की निष्पत्ति होती है उसे गुरुस्पर्शनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 156―लघुस्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में नियत लघु नामक स्पर्श की निष्पत्ति होती है उसे लघुस्पर्शनामकर्म कहते हैं?
प्रश्न 157―कठोरस्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से नियत कठोरनामक स्पर्श की निष्पत्ति होती है उसे कठोर स्पर्शनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 158―मृदुस्पर्शनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में नियत कोमल स्पर्श की उत्पत्ति होती है उसे मृदुस्पर्शनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 159―रसनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत रस की निष्पत्ति हो उसे रसनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 160―अम्लरसनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत अम्ल (खट᳭टे) रस की निष्पत्ति हो उसे अम्लरसनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 161―मधुररसनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत मधुर रस की निष्पत्ति हो उसे मधुररसनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 162―कटुरसनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत कडुवे रस की निष्पत्ति हो उसे कटुरसनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 163―तिक्तरसनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत तीखे रस की निष्पत्ति हो उसे तिक्तरसनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 164―कषायितरसनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत कषैले रस की निष्पत्ति हो उसे कषायितरसनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 165―गंधनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत गंध की निष्पत्ति हो उसे गंधनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 166―सुगंधनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत सुगंध की निष्पत्ति हो उसे सुगंध नामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 167―दुर्गंधनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत दुर्गंध की निष्पत्ति हो उसे दुर्गंधनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 168―वर्णनामकर्म किसे कहते है?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से प्रतिनियत वर्ण की निष्पत्ति हो उसे वर्णनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 169―कृष्णवर्णनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत कृष्णवर्ण की निष्पत्ति हो उसे कृष्णवर्णनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 170―नीलवर्णनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत नील वर्ण की निष्पत्ति हो उसे नीलवर्णनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 171―रक्तवर्णनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत लाल वर्ण की निष्पत्ति हो उसे रक्तवर्णनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 172―पीतवर्णनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत पीले वर्ण की निष्पत्ति हो उसे पीतवर्णनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 173―श्वेतवर्णनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रतिनियत श्वेत वर्ण की निष्पत्ति हो उसे श्वेतवर्णनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 174―शरीर पुद्गल है और पुद्गल का स्वभाव ही रूपादि का है, फिर स्पर्शनामकर्म की क्या आवश्यकता है?
उत्तर―यदि स्पर्शादि नामकर्म न हों तो यह व्यवस्था नहीं बनेगी कि भौंरों में भौंरों जैसा प्रतिनियत रूप, रस, गंधादि से हो । घोड़ों, मनुष्यों आदि में घोड़ों, मनुष्यों आदि जैसा रूप रसादि हो । यह व्यवस्था इन स्पर्शादि नामकर्मों के उदय से होती है ।
प्रश्न 175―आनुपूर्व्यनामकर्म कहते हैं?
उत्तर-―जिस कर्म के उदय से विग्रहगति में पूर्व शरीर के आकार आत्मप्रदेश हों उसे आनुपूर्व्यनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 176―विग्रहगति किसे कहते हैं?
उत्तर-―मरण के पश्चात् नवीन देह धारण करने के लिये जो जीव का गमन होता है उसे विग्रहगति कहते हैं ।
प्रश्न 177-―क्या सभी विग्रहगतियों में जीव का आकार पूर्वभव जैसा होता है?
उत्तर―मोड़े लेकर जाने वाली गति में जीव का आकार पूर्वभव के आकार का होता है ।
प्रश्न 178―बिना मोड़े की विग्रहगति में जीव का क्या आकार रहता है?
उत्तर―बिना मोड़े वाली गति में जीव को एक भी समय का अवकाश नहीं मिलता, किंतु पहिले समय में मरा, दूसरे समय में उत्पन्न हो गया, इसलिये आकार सहित गति न होकर जीव का विसर्पण होकर जन्मस्थान पर संकोच हो जाता है । वहाँ आनुपूर्व्यनामकर्म का उदय भी नहीं है ।
प्रश्न 179-―नरकगत्यानुपूर्व्यनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से तिर्यंच या मनुष्यगति से मरणकर नरकभव में देहधारण के लिये जाने वाले जीव का आकार पूर्व के देह के आकार में हो उसे नरकगत्यानुपूर्व्यनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 180―तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यनामकर्म किसे कहते है?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से किसी गति से मरणकर तिर्यग्गति में देहधारण के लिये जाने वाले जीव का आकार पूर्व के देह के आकार में हो उसे तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 181―मनुष्यगत्यानुपूर्व्यनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से किसी गति से मरणकर मनुष्यगति में देहधारण के लिये जाने वाले जीव का आकार पूर्व के देह के आकार में हो उसे मनुष्यगत्यानुपूर्व्यनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 182―देवगत्यानुपूर्व्यनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से तिर्यंच या मनुष्यगति से मरणकर देवगति में देहधारण के लिये जाने वाले जीव का आकार पूर्व के देह के आकार में हो उसे देवगत्यानुपूर्व्यनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 183―अगुरुलघुनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर यथायोग्य गुरु और लघु हो अर्थात् न तो ऐसा गुरु शरीर हो कि लोह के गोले के समान गिर जावे और न ऐसा लघु शरीर हो कि आक के तूल के समान उड़ जावे, उसे अगुरुलघुनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 184―उपघातनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से अपने ही शरीर का अवयव अपना ही घात करने वाला हो उसे उपघातनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 185―परघातनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से परप्राणी का घात करने वाला देह में अवयव हो उसे परघातनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 186―आतपनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर मूल में तो ठंडा हो और दूरवर्ती पदार्थों के उष्ण हो जाने में निमित्त हो तथा तेजोमय हो उसे आतपनामकर्म कहते हैं । इसका उदय सूर्यविमान के पृथ्वीकायिक जीवों में पाया जाता है ।
प्रश्न 187―उद्योतनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर मूल में भी शीत हो और दूरवर्ती पदार्थों के उष्णता का कारण न हो तथा उद्योतरूप (चमकदार) हो उसे उद्योतनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 188―उच्छ᳭वासनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में श्वास और उच्छ᳭वास प्रकट हो उसे उच्छ᳭वासनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 189―विहायोगतिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव गमन करे उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 190―प्रशस्तविहायोगतिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से सुंदर गमनविधि हो उसे प्रशस्तविहायोगतिनामकर्म कहते हैं । जैसे हंस, घोड़ा आदि की गति ।
प्रश्न 191―अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से असुंदर गमनविधि हो उसे अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म कहते हैं । जैसे गधा, कुत्ता आदि की गतिविधि ।
प्रश्न 192―प्रत्येकशरीरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से एक शरीर का अधिष्ठाता एक जीव हो उसे प्रत्येकशरीरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 193―त्रसनामकर्म किसे कहते है?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से अंग उपांग सहित काय (शरीर) मिले उसे त्रसनामकर्म कहते हैं । द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय जीव त्रस कहलाते हैं ।
प्रश्न 194―सुभगनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से प्राणी पर अन्य प्राणियों की प्रीति उत्पन्न हो उसे सुभगनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 195―सुस्वरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से अच्छा स्वर हो उसे सुस्वरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 196―शुभनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर के शुभ अवयव हों उसे शुभनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 197―वादरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से वादर शरीर हो, के दूसरे को रोक सके व दूसरे से रुक सके उसे वादरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 198―पर्याप्तिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से ऐसा शरीर मिले जिसकी पर्याप्ति नियम से पूर्ण हो, शरीरपर्याप्ति पूर्ण हुए बिना मरण न हो उसे पर्याप्तिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 199―स्थिरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस नामकर्म के उदय से शरीर में धातु उपधातु अपने-अपने ठिकाने रहें, अचलित रहें उसे स्थिरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 200―आदेयनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर में कांति प्रकट हो उसे आदेयनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 201―यश:कीर्तिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव का यश और कीर्ति प्रकट हो उसे यश:कीर्तिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 202―साणारणशरीरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से एक शरीर के स्वामी अनेक जीव हों उसे साधारणशरीरनामकर्म कहते हैं । जैसे निगोद ।
प्रश्न 203―स्थावरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से अंग उपांग रहित शरीर मिले उसे स्थावरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 204―दुर्भगनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से प्राणी पर अन्य प्राणियों की अरुचि उत्पन्न हो उसे दुर्भगनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 205―दुःस्वरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर--जिस नामकर्म के उदय से बुरा स्वर हो उसे दुःस्वरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 206―अशुभनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर के असुहावने अवयव हों उसे अशुभनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न207―सूक्ष्मनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-―जिस कर्म के उदय से शरीर सूक्ष्म हो, जो न किसी को रोक सके और न किसी से रुक सके उसे सूक्ष्मनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 208―अपर्याप्तिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से ऐसा शरीर मिले जिसकी पर्याप्ति पूर्ण न हो और मरण हो जाये उसे अपर्याप्तिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 209―अस्थिरनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से शरीर के धातु उपधातु चलित हो जाया करें उसे अस्थिरनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 210―अनादेयनामकर्म किसे कहते है?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से कांतिरहित शरीर हो उसे अनादेयनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 211―अयश:कीर्तिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से अपयश और अकीर्ति हो उसे अयशःकीर्तिनामकर्म कहते हैं ꠰
प्रश्न 212―तीर्थंकरप्रकृतिनामकर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से तीर्थंकरपना हो, सर्वज्ञदेव के सातिशय दिव्यध्वनि, विहार आदि से लोकोपकार हो उसे तीर्थंकरप्रकृतिनामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 213―क्या ये भेद एक-एक कर्मस्कंध हैं?
उत्तर―प्रत्येक भेद अनंत कार्माणवर्गणावों का स्कंध है । जिन कार्माणवर्गणाओं की प्रकृति उस भेदरूप है उन कार्माणस्कंधों की वह संज्ञा है ।
प्रश्न 214―इन द्रव्यास्रवों के जानने से कुछ आत्मलाभ है?
उत्तर―भूतार्थनय से यदि इन्हें जाना जाये तो इनका ज्ञान निश्चयसम्यक्त्व का कारण हो जाता है ।
प्रश्न 215―भूतार्थनय से इन द्रव्यास्रवों का जानना किस प्रकार है?
उत्तर-―उक्त सब द्रव्यास्रव पर्यायें हैं । किस द्रव्य की पर्यायें हैं? पुद्गल द्रव्य की ये पर्यायें पुद्गलद्रव्य से उत्पन्न हुई हैं । जहाँ से उत्पन्न हुई हैं केवल उस द्रव्य की दृष्टि रहने पर ये पर्यायें गौण हो जाती हैं और द्रव्यदृष्टि मुख्य हो जाती है । पश्चात् द्रव्यदृष्टि में विकल्पों का अवकाश न होने से द्रव्यदृष्टि का विकल्प भी छूटकर आत्मा का केवल सहज आनंदमय परिणमन का अनुभव रह जाता है । इस शुद्ध आत्मतत्त्व की अनुभूति को निश्चयसम्यक्त्व कहते हैं ।
इस प्रकार आस्रव तत्त्व का वर्णन करके बंधतत्त्व का वर्णन करते हैं―